गीत
दृष्टि जा पाए जहाँ तक
सामने हो भूमि ऐसी
सिर्फ बालू, धूल
जिसमें दूर-दूर बबूल
शूलमय दो-चार दीखें।
परम विरही के नयन-सी शुष्कता,
हृदय जैसी शून्यता
निबिड़; चारों ओर
हो रहा उपहास ज्यों
ऐसी उपेक्षा वायु में हो।…
सामने प्रतिपल रहो तुम,
सामने, या, भूमि ऐसी-
और ऐसी ही दिशाएँ, वायु ऐसी।
(1950)