— डॉ. उमेश प्रसाद सिंह —
चुनाव का मौसम है। मौसम अपने श्रृंगार में व्यस्त है। सड़कें दौड़ रही हैं, हाँफती हुई। चौराहे चिल्ला रहे हैं। चाय-पान की दुकानों पर गलचौर के फव्वारे फूट रहे हैं। चाय की चुस्कियों के साथ लोग बतरस की फुहारों में भीग रहे हैं। पान जमाने में लोगों को उतना रस नहीं रह गया है, जितना रंग जमाने में। लोग अपने कामों को जैसे-तैसे निपटा कर अपनी दूरदृष्टि का डंका बजाने चौराहों पर जुट आ रहे हैं। जो प्रायः चुप रहते हैं या कम बोलते हैं, उनकी भी जुबान अपना जंग छुड़ाने उतर आयी है। इस दौर में हर किसी के लिए अपने सामाजिक सरोकार का पुख्ता प्रमाणपत्र हासिल कर लेने का सुनहरा अवसर सुलभ है। इस अवसर को कोई गँवाना भला क्यों कोई चाहे।
चुनाव की सरगर्मी चढ़ते ही हमारे देश में हर आदमी राजनीतिक हो जाता है। गली-गली राजनीति की पाठशाला खुल जाती है। शहर में, बाजार में, गाँव में हर जगह नेता पैदा हो जाते हैं- जैसे बरसात के दिनों में सारी धरती पर घास उग आती है। पैदा होने के साथ ही सब जवान हो जाते हैं। वाचालता की हरियाली उदास पत्थरों को भी हरा-भरा बना देती है। वह हर जगह मुखर हो उठती है। पेड़-पालो, ईंट-पत्थरों के भी मुँह खुल जाते हैं। आदमी का तो पूरा वजूद ही मुँह में समा जाता है। इतनी तरह की ध्वनियाँ इतनी तरह से उठती हैं, दौड़ती हैं, उड़ती हैं कि यातायात के सारे नियम-कानून नेस्तनाबूद हो जाते हैं। सारी ध्वनियाँ आपस में भिड़ जाती हैं। भिड़कर दुर्घटनाग्रस्त हो जाती हैं।
दुर्घटनाग्रस्त ध्वनियों के कुहराम से वातावरण काँप उठता है। अहं के भयानक विस्फोट से दिशाएँ धुआँ-धुआँ हो जाती हैं। आक्षेपों, आरोपों के प्रक्षेपास्त्र से मानवीय मर्यादा के चिथड़े उड़ने लगते हैं। उत्साह, भय, अनिश्चय, जुगुप्सा की आँधी घरों के दरवाजे बरजोरी खोलकर आँगन-आँगन किरकिरी से भर देती है। जिनकी आँखें खुली हैं, वे आँख मलते-मलते बेहाल हो जाते हैं। जो आँख के अंधे हैं, वे मटके लेकर हर दिशा में दौड़ते दिखते हैं। साँप और नेवले की लड़ाई का झूठा रोमांच हर कहीं छा जाता है। आदमी से उसकी आँख छीनने का ऐसा मदारी का मेला कहीं दूसरा देखने में नहीं आता।
चुनाव के दौर में लोगों की भूख काफी बढ़ जाती हैं। लोग अखबारों के समाचार हड़बड़-हड़बड़ बिना चबाये भोजन की तरह घोंट जाते हैं। समाचार चैनलों पर सूचनाओं की खौलती चाशनी को चाट जाते हैं। उबलते हुए डिबेट के दूध को होंठ जलाते हुए पी जाते हैं। कुछ भी खाया-पिया उनको बिल्कुल नहीं पचता। जिससे भी सामना होता है, लोग उसी के ऊपर उमगकर उल्टी कर देते हैं। उल्टी करके हल्के हो जाते हैं। हल्के होकर खुश हो उठते हैं। मनहूसियत के पत्थर पर हर कहीं दूब उग आती है। मगर यह उगती ही है, हरियाने के साथ ही मुरझा जाने के लिए। इसलिए कि यह हरियाली मिट्टी में नहीं उगती। हवा में उगती है। हवा में किसी भी तरह की खुशी की जड़ें फूट सकती हैं क्या? भला मैं चुनाव में अचानक पनप उठी उल्लास की हरियाली के बारे में क्या कहूँ।
कविवर रहिम ने पहले ही कह रखा है- “कहु रहीम कब लौं हरी, छपरे पर की घास।”
लोगों के चेहरे पर छा गयी यह हरियाली राजनीति के पाखंड की हरियाली है। यह हरियाली आदमी को ठगने के लिए विनम्रता की नौटंकी की हरियाली है। यह हरियाली सेवा और समर्पण के उपहास की हरियाली है। यह हरियाली राजनीति की अपने स्वार्थ के संपोषण के लिए आदमीयत की हद के पतन से उपजी हरियाली है। बड़ी घातक हरियाली है।
यह हरियाली उत्तेजना से पैदा की गयी है। इसका उन्माद से पोषण किया गया है। उत्तेजना और उन्माद से आदमी को अपनी सही जगह से विचलित करने का उद्योग हमारी राजनीति में खूब फलफूल रहा है। कभी राजनीति की पालकी देशभक्ति के, त्याग और तपस्या के कंधों पर चला करती थी। आज राजनीति घृणा, विद्वेष के कंधों पर सवार होकर चल रही है। राजनीति का रथ गुण्डे, बदमाश, माफिया और लाभ के लोलुप ठेकेदार खींच रहे हैं। दारू-मुर्गा की तामसिक ऊर्जा से उन्मत्त लफंगे गाली-गलौज की गोलियाँ चला रहे हैं। स्थानीय धरातल से लेकर राष्ट्रीय फलक तक हमारी राजनीति बहुत बुरी तरह से हिंसक हो उठी है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए बेहद अशुभ संकेत है।
हिंसा केवल हथियारों से ही नहीं होती। वह तो बहुत बाद की बात है। जब आदमी जबान से तलवार का काम लेने लगता है, मनुष्यता के कलेजे में कटार धँस जाती है। आज हम देख रहे हैं, हमारी भाषा की मुख्यधारा युद्ध की भाषा बन चुकी है। हमारे समय में भाषणों की भाषा, समाचारों की भाषा, युद्ध की भाषा में बदल चुकी है। भाषा को उत्तेजना पैदा करने का, उन्माद को उकसावा देने का और विद्वेष की आग को हवा देने का हथियार बनाया जाने लगा है। विभाजन की छुरी पर धार देकर पानी चढ़ाने का काम किया जाने लगा है। दूषित भाषा के प्रदूषण से सारा पर्यावरण ही प्रदूषित है। मैं समझता हूँ राजनीति की पतनशीलता से और जो नुकसान हुए हैं, वे तो हुए ही हैं, सबसे अधिक नुकसान भाषा का हुआ है। यह गंभीर चिंता का विषय है।
इसलिए कि भाषा का सवाल भविष्य से जुड़ा सवाल है। भाषा को प्रदूषित करने का अपराध भविष्य को बन्ध्या बना देने का अक्षम्य अपराध है। मगर मेरी क्या बिसात कि मैं राजनीति के चमकते सूर्य की तरफ उँगली उठा सकूँ, खैर।
अभी कल शाम मैं घर लौटते समय चौराहे पर रुक गया था। जैसे ही मैं चाय की दुकान की तरफ बढ़ा मुझे अँधेरे में एक आवाज सुनाई पड़ी। “मुझे उठा लो भाई, मैं कब से गिरा पड़ा हूँ।” मैं उस गुहार की अवहेलना नहीं कर सका। हमारे कहानीकार मित्र रामजी प्रसाद ‘भैरव’ भी हमारे साथ थे। हम लोगों ने पहुँचकर देखा सचमुच ही वहाँ एक बड़ा ही विशाल व्यक्ति औंधे मुँह गिरा हुआ है। जब वह उठ खड़ा हुआ तो हम उसकी भव्यता से चकित रह गए।
“नहीं, नहीं हमें किसी ने धक्का नहीं मारा भाई। हम खुद ही धक्का खाकर गिर गए। मैं धक्के पे धक्का खाता आ रहा हूँ। गिरता आ रहा हूं। गिर-गिर कर उठता रहता हूं।”
आप कौन हैं महाशय? हमने पूछा।
अभी थोड़ी देर पहले इधर से एक बड़ा भारी जुलूस निकला। लोग जै श्रीराम के नारे लगा रहे थे। नारे का धक्का इतना जबरदस्त था कि मैं एक धमनिया और खा गया। थोड़ी देर बाद एक और विशाल जुलूस आया, वे लोग जय भीम का नारा लगा रहे थे। मैं एक बार फिर पलट गया। फिर एक जुलूस और आया, वे लोग साइकिल की जय बोल रहे थे। सच, अपनी धरती के साथ जब ऐसे नारे लगते हैं न, हिंद की छाती हिल उठती है। मेरा भी कलेजा हिल गया। खैर, मेरी कोई बात नहीं। मेरा तो कलेजा कब से काँप रहा है।
मैंने बार-बार पुकारा। किसी ने नहीं सुना। जो अपने ही सुख में व्याकुल हैं, भला वे किसी की व्यथा क्या सुनेंगे। मुझे बार-बार जयशंकर प्रसाद की कविता याद हो आती है,-
“व्याकुल हैं जो अपने सुख से, जिनकी है सुप्त व्यथाएँ
कहकर क्या तुम भला करोगे! अपनी करूण कथाएं।”
“खैर, छोड़िए। आपका बहुत धन्यवाद। अब मैं धीरे-धीरे अपने रस्ते चला जाऊँगा।”
“मैं जय हिंद हूं भाई! मेरा नाम जयहिंद है।”