यूक्रेन की ‘आपदा’ में भी ‘अवसर’ गँवा दिया विश्वगुरु ने !

0

— श्रवण गर्ग —

‘विश्वगुरु’ भारत को अगर यह गलतफहमी हो गयी थी कि ह्यूस्टन (टेक्सास, अमेरिका) की रैली में ‘भक्तों’ से ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ का नारा लगवा देने भर से रिपब्लिकन मित्र डॉनल्ड ट्रम्प की अमेरिका में फिर से सरकार बन जाएगी; रूस और यूक्रेन दोनों से शांति की अपील कर देने भर से ही तानाशाह मित्र पुतिन अपनी सेनाएँ वापस बुला लेंगे; और उसके एक इशारे पर पोलैंड, रोमानिया, स्लोवाकिया और मोल्डोवा की सरकारें और वहाँ के नागरिक कीव आदि युद्धग्रस्त क्षेत्रों से अपनी जानें बचाकर पहुँचे हमारे हजारों छात्रों को आँखों में काजल की तरह रचा लेंगे तो वह अब पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।

यूक्रेन के रेलवे स्टेशनों, सड़कों और पोलैंड की सीमाओं पर हमारे छात्रों को जिस तरह का व्यवहार झेलना पड़ रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों ने अपने स्व-आरोपित आत्मविश्वास के चलते हजारों बच्चों को कितनी गम्भीर त्रासदी में धकेल दिया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यूक्रेन में अध्ययनरत दो छात्रों (एक कर्नाटक से और दूसरा पंजाब से) द्वारा रूसी सैन्य कार्रवाई में जान गँवा देने के समाचार हैं।

सरकारी दावों के विपरीत यूक्रेन से बाहर निकलने के लिए संघर्षरत सभी सैकड़ों या हजारों बच्चों की कुशल-क्षेम के ईमानदार समाचार प्राप्त होना अभी भी बाकी है। हजारों बच्चे अभी भी वहाँ फँसे हुए बताए जाते हैं और उन्हें ज्ञान दिया जा रहा है कि युद्ध क्षेत्र के बंकरों में संकट का सामूहिक रूप से सामना कैसे करना चाहिए !

भारतीय छात्र-छात्राओं द्वारा युद्धग्रस्त यूक्रेन और उसकी पश्चिमी सीमाओं से लगे पड़ोसी देशों में भुगती गयीं और भुगती जा रहीं यातनाओं को ठीक से समझने के लिए इस घटनाक्रम को भी जानना जरूरी है:

काबुल से अपने सभी नागरिकों और समर्थकों को वक्त रहते सुरक्षित निकाल पाने की कोशिशों में दूध से जले राष्ट्रपति बाइडन ने दस फरवरी (तारीख ध्यान में रखें) को ही यूक्रेन में रह रहे सभी अमरीकियों के लिए चेतावनी जारी कर दी थी कि वे रूसी आक्रमण की आशंका वाले देश को तुरंत ही छोड़ दें। उन्होंने चेतावनी में यह भी कहा कि रूसी हमले की स्थिति में उनका प्रशासन नागरिकों को बाहर नहीं निकाल पाएगा।अमरीका ही नहीं, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, इटली, इजराइल, जापान सहित कोई दर्जन भर देशों ने भी अपने नागरिकों, राजनयिक स्टाफ और उनके परिवारजनों को यूक्रेन तुरंत ही खाली करने को कह दिया था। सिर्फ हमारी ही दिल्ली स्थित सरकार और कीव स्थित भारतीय दूतावास बैठे रहे।

भारतीय नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए जवाबदेह हमारे दूतावास ने क्या किया? उसने पंद्रह फरवरी (तारीख पर ध्यान दें ) यानी बाइडन की अपने नागरिकों को दी गयी चेतावनी के पाँच दिन बाद भारतीय छात्रों को ‘सलाह’ दी कि: “मौजूदा अनिश्चित स्थिति को देखते हुए, भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र जिनका कि वहाँ रहना जरूरी नहीं है, यूक्रेन को अस्थायी तौर पर छोड़ने पर विचार कर सकते हैं।” वहाँ निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिकों को यह सलाह भी दी गयी कि यूक्रेन के भीतर भी उन्हें गैर-जरूरी यात्राएँ नहीं करना चाहिए। उक्त सलाहें भी इन आशंकाओं के बीच जारी की गयीं कि रूसी हमला किसी भी समय हो सकता है।

भारतीय दूतावास द्वारा ‘सलाहपत्र’ जारी किए जाने के वक्त तक लगभग सभी देशों की विमान सेवाओं ने यूक्रेन से अपनी उड़ानें बंद कर दी थीं। जो एक-दो बची भी थीं उनमें भी सीटें नहीं मिल रही थीं और किराए दो गुना से ज्यादा हो गए थे। एक छात्र ने तब टिप्पणी की थी कि दूतावास ने सूचना इतने विलम्ब से जारी की है कि वे यूक्रेन छोड़ ही नहीं सकते। रूसी सेनाओं की बमबारी के बीच छात्रों से जो कहा जा रहा था उसका अर्थ यह था कि वे हजार-पंद्रह सौ किलोमीटर की यात्रा किसी भी साधन से पूरी करके पड़ोसी देशों में पहुँचें।

यूक्रेन के घटनाक्रम पर विचार करते समय स्मरण किया जा सकता है कि जिन तारीखों में छात्र अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन तारीखों (मतदान के चरणों) में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता यूपी में सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यूक्रेन पर जब 24 फरवरी को तीन तरफ से आक्रमण हो ही गया तब केंद्र सरकार पूरी तरह से हरकत में आयी पर तब तक देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और नागरिकों के आत्म-विश्वास को जो चोट पहुँचनी थी, पहुँच चुकी थी। भारतीय छात्रों के दर्द को सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर शेयर की जा रही व्यथाओं में पढ़ा जा सकता है।

यूक्रेन से अपने नागरिकों को समस्त संसाधनों का उपयोग करके सुरक्षित तरीके से समय रहते निकाल लेने में उसी तरह की लापरवाही बरती गयी जैसी कि तालिबानी हमले के समय काबुल से या उसके भी पहले कोरोना के पहले विस्फोट के तुरंत बाद वुहान (चीन) से भारतीयों को निकालने के दौरान देखी गयी थी। वुहान में रहनेवाले भारतीयों द्वारा अपने अपार्टमेंट्स से मदद के लिए जारी की गयी वीडियो-अपीलों और यूक्रेन के छात्रों के वीडियो-संबोधनों में एक जैसी पीड़ाएँ तलाशी जा सकती हैं। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि 1990 में वीपी सिंह की राजनीतिक रूप से कमजोर और आर्थिक तौर पर लगभग दीवालिया सरकार ने भी किस तरह से युद्धरत देशों कुवैत और इराक से एक लाख सत्तर हजार भारतीयों को सफलतापूर्वक बाहर निकाल लिया था।

जिस समय हमारे हजारों बच्चे यूक्रेन की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए घरों को लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं, हमारी आँखों के सामने उन लाखों प्रवासी मजदूरों, नागरिकों और बच्चों के चेहरे तैर रहे हैं जिन्होंने बिना किसी तैयारी और पूर्व सूचना के थोपे गए लॉकडाउन में सड़कों पर भूखे-प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर पैदल यात्राएँ की थीं।

‘पंचवटी’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसी अद्वितीय रचनाओं के शिल्पकार और ‘भारत भारती’ जैसी प्रसिद्ध काव्यकृति के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त ने वर्ष 1912-13 में जो सवाल किया था वह आज भी जस का तस कायम है : ‘हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी!’ अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ ने यूक्रेन के कारण भारत पर आयी मुसीबत से संबंधित एक खबर का शीर्षक यूँ दिया है : ‘आपदा में अवसर उलटा पड़ गया।’


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment