भारत की अधिकतर स्त्रियों के लिए नारी मुक्ति का अर्थ क्या है

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

(दूसरी किस्त)

भारत की बहुसंख्य स्त्रियों के लिए नारी मुक्ति का अर्थ क्या है? मैं चार चीजों का उल्लेख करना चाहूँगा- (1) घर में नल का पानी, (2) रसोई गैस, (3) वॉशिंग मशीन और, (4) रेफ्रिजरेटर। यें चारों चीजें स्त्री के जीवन को आसान बनाती हैं। उसे फालतू श्रम से मुक्त करती हैं। उसके जीवन में फुरसत ले आती हैं। उसके भीतर आत्मविश्वास भरती हैं। आज जिस स्त्री के पास इनमें से कोई एक भी सुविधा नहीं है, उसकी स्वतंत्रता वांछित स्तर से कम है। मोटरगाड़ी, पंखे, टेलीविजन आदि को आप विलासिता की श्रेणी में रख सकते हैं। इनके बिना आदमी का काम चल सकता है। लेकिन नल, गैस, कपड़े धोने की मशीन और फ्रिज के बगैर आज भी स्त्री का जीवन अधूरा है।

गरीब परिवारों की स्त्रियों के दैनंदिन जीवन पर एक नजर डालने से ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि उनका कितना समय पानी का इंतजाम करने, कोयले या लकड़ी की आँच पर खाना बनाने और कपड़े धोने में नष्ट हो जाता है। इन कामों में सिर्फ समय ही नहीं लगता, ऊर्जा भी खर्च होती है। फलस्वरूप ऐसी हर स्त्री को हमेशा यह लगता रहता है कि करने को काफी काम पड़ा है। उसके पास समय नहीं है। लेकिन मामला इतना ही नहीं है। चूँकि ये सारे काम महत्त्वहीन माने जाते हैं, इनका मूल्य नहीं आँका जाता, इन कामों को करनेवाले को हीन समझा जाता है, इसलिए परिवार में– और फलतः समाज में– श्रमिक स्त्रियों की हैसियत गिरी हुई रहती है।

जाति-व्यवस्था के ढाँचे में जो स्थान शूद्र का है, परिवार में वही स्थान स्त्री को मिलता है। वह घर की दासी है। उसका अपना कोई वजूद नहीं रह जाता। वह अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीती है। ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’की कहावत एक नहीं, कई अर्थों में सच है।

इस सिलसिले में सिंगर मशीन के आविष्कार की कहानी को याद करना उपयोगी हो सकता है। आज कपड़ा सिलने की मशीनें कई नामों से आती हैं। लेकिन कुछ समय पहले तक सिंगर कंपनी इस क्षेत्र में अकेली थी। यहाँ तक कि सिलाई की किसी भी मशीन को सिंगर मशीन कहने की प्रथा है, जैसे हमारे यहाँ किसी भी डिटरजेंट पाउडर को सर्फ कह देते हैं। सिंगर कंपनी का नाम सिंगर नाम के महाशय पर पड़ा है। ये संयुक्त राज्य अमेरिका के रहनेवाले थे। शुरू से ही मशीनों में रुचि थी। जब उन्होंने देखा कि कपड़े सिलने में उनकी पत्नी के हाथ दुख जाते हैं, कभी-कभी सुई गड़ जाती है और खून टपकने लगता है, तो उन्होंने कपड़े सीने की मशीन बना डाली। यह मशीन व्यावसायिक रूप से बहुत सफल हुई और देखते ही देखते पश्चिमी दुनिया में छा गयी, लेकिन इसके आविष्कार का प्रेरणास्रोत क्या था? एक पति का अपनी पत्नी के प्रति लगाव। कहने की जरूरत नहीं कि सिलाई मशीन ने सिंगर महाशय की पत्नी को एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में मुक्त किया।

भारत की करोड़ों-करोड़ स्त्रियों को ऐसी मुक्ति की अर्जेंट जरूरत है। ‘पुरुष प्रधान समाज’ की शिकायत का रटंत लगानेवाली स्त्रियों से निवेदन है कि उनके एजेंडा में पहला स्थान स्त्रियों को वे भौतिक संसाधन दिलाने का होना चाहिए जिनसे उनका जीवन आसान बनता है, उनके समय और ऊर्जा की बचत होती है और उनमें आत्मविश्वास आता है। पुरुष की मानसिकता बदलना आसान नहीं है। परिवार के ढाँचे में लोकतंत्र ले आना और भी कठिन है। अपने शरीर और कोख पर स्त्री का अपना अधिकार हो, यह बात मनवाने में काफी समय लगेगा। लेकिन भौतिक स्थितियों को तो बदला ही जा सकता है।

हर स्त्री के पास गैस का चूल्हा होना चाहिए, हाथ बढ़ाते ही नल चल पड़े और उससे पानी आने लगे- यह सुविधा हर स्त्री को मिलनी चाहिए, घर में एक छोटा-सा फ्रिज होना चाहिए ताकि खाने की बरबादी न हो और एक बेला की सब्जी दूसरे बेला भी काम में लायी जा सके– ये ऐसी माँगें हैं जो पूरी हो जाएँ तो इससे पुरुष समाज का भी फायदा होगा। यानी स्त्रीवादी विचारकों, लेखकों, कार्यकर्ताओं  और संगठनों से ये माँगें की जाएँ, तो उन्हें पुरुष वर्ग का भी समर्थन मिल सकता है।

आखिर कौन पुरुष नहीं चाहेगा कि उसका सामना एक बीमार-सी, थकी हुई और ऊर्जा-रहित स्त्री के बजाय स्वस्थ, ऊर्जावान और स्फूर्तिमय स्त्री से हो?इस माँग से भारत में स्त्री एकता जितनी मजबूत हो सकती है, उतनी किसी और माँग से नहीं। तब गाँव की अनपढ़ स्त्रियाँ भी सोचेंगी कि हमारी पढ़ी-लिखी बहनों के स्वप्न में हमारे लिए भी जगह है। इसकी तुलना इस माँग से करके देखिए कि संसद और विधानसभाओं में स्त्रियों के लिए एक-तिहाई जगह आरक्षित होनी चाहिए, तो तुरंत पता चल जाएगा कि हमारी प्रबुद्ध स्त्रियाँ भारत के सामान्य यथार्थ से कितनी दूर खड़ी हैं। निवेदन है कि एक-तिहाई तो क्या, उससे भी ज्यादा स्थान हमारी स्त्रियाँ आगे बढ़कर खुद ले लेंगी– आप पहले उन्हें दिन-रात की अनावश्यक मशक्कत से मुक्त तो कराइए।

यहाँ जो प्रतिपादित करने की कोशिश की जा रही है, उसके बारे में यह सोचा जा सकता है कि यह नारी आंदोलन को भटकाने की कोशिश है। स्त्री-मुक्ति के ये चार औजार– नल का जल, रसोई गैस, वॉशिंग मशीन और फ्रिज– भारत की सभी स्त्रियों को उपलब्ध कराने में सौ साल भी लग सकते हैं। जब तक नौ मन तेल न हो, तब तक राधा अपना नाचना क्या स्थगित रखे? सच तो यह है कि अपनी तमाम विपन्नता में भी ऐसी स्त्रियाँ हो सकती हैं जो किसी की गुलामी करने के लिए राजी नहीं हैं और अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हममें से हर एक की मुलाकात ऐसी स्त्री से हुई होगी। यह दिखाता है कि आदमी की आत्मा भौतिक परिस्थितियों की बंदी नहीं है। मन शरीर से ज्यादा शक्तिशाली होता है। लेकिन यह क्षमता एक असामान्य उपलब्धि है। जिनके पास यह क्षमता है, वे सभी की बधाई के पात्र हैं। लेकिन सामान्य व्यक्तियों से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्हें इसके लिए बराबर उद्बुद्ध किया जाना चाहिए कि वे ‘जहाँ हैं जैसे हैं’ उसी परिवेश में अपने हकों के लिए संघर्ष करें और पुरुषवादी व्यवस्था के षड्यंत्रों को नाकाम करने का प्रयास जारी रखें- निजी जीवन में भी और व्यवस्था के स्तर पर भी।

लेकिन देश में दरिद्रता का जैसा फैलाव है और इस दरिद्रता के सूत्र जिस तरह पूरी व्यवस्था से जुड़े हुए हैं, उसे देखते हुए यह दिवा-स्वप्न ही है कि कोल्हू के बैल की तरह एक निर्धारित घेरे में लगातार श्रम करते रहनेवाली स्त्रियाँ उन अन्यायों से संघर्ष करना तो छोड़िए– उन्हें संदर्भ के साथ समझ भी सकेंगी जिनका शिकार उन्हें सिर्फ इसलिए होना पड़ रहा है कि उनका जन्म स्त्री के रूप में हुआ है। इसके लिए पहली शर्त यह है कि उन भौतिक परिस्थितियों को बदला जाए जो स्त्री चेतना को परिमित करती हैं।

अभी नारीवाद के ज्यादातर स्वर स्त्री-पुरुष संबंध को पुनर्परिभाषित करने पर लगे हुए हैं। यह काम चलते रहना चाहिए। लेकिन भारतीय स्त्री और भारतीय पुरुष के भौतिक परिवेश को भी पुनर्परिभाषित करना होगा, ताकि संबंधों के नये और सभ्यतर रूप व्यापक तथा टिकाऊ हो सकें।

आजाद आत्माएँ आजाद शरीरों में ही रहती हैं।   


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