10 मार्च। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने उन सभी लोगों को आहत और मायूस किया है जो कानून के शासन, संविधान तथा समता और सौहार्द में व संघीय ढांचे में विश्वास करते हैं और भाजपा समेत संघ परिवार से इन मूल्यों, मान्यताओं व लोकतांत्रिक संस्थाओं को खतरा महसूस करते हैं। सच तो यह है कि खतरा अब सिर्फ खतरा नहीं रहा, वह रोज फलीभूत हो रहा है। यह उम्मीद की जा रही थी कि इन चुनावों से भाजपा को तगड़ा झटका लगेगा और उसके वर्चस्व, उसकी सांप्रदायिक नीतियों और उसके फासिस्ट व्यवहार के कारण छाया हुआ खौफ कम होगा और मार्च 2022 का चुनाव परिणाम 2024 में मोदी की विदाई की पटकथा भी लिख सकता है। लेकिन हुआ उम्मीद से उलट। तमाम एंटी इनकम्बेन्सी को धता बताते हुए भाजपा उत्तर प्रदेश समेत उन सभी राज्यों में चुनाव जीत गयी जहां वह सत्तारूढ़ थी। पंजाब में तो वह पहले से ही दावेदार नहीं थी।
इन नतीजों के चलते जहां भाजपा के खेमे में जश्न का माहौल है और आगामी विधानसभा चुनावों तथा 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अभी से आत्मविश्वास और हौसला हिलोरें लेने लगा है, वहीं भाजपा खेमे के बाहर चिंता ही चिंता है। यह कोई सामान्य चुनावी हार-जीत नहीं है। यह हमारे सेकुलर गणतंत्र के लिए घोर चिंता और निराशा के पल हैं। क्या उम्मीद की कोई गुंजाइश है? कोई रास्ता है? कोई योजना और रणनीति बन सकती है? कोई कार्यक्रम और तरीका निकल सकता है जिससे निराशा का अंधेरा कुछ छंटे। इस बारे में सोचें और अपनी टिप्पणी, अपनी राय हमें भेजें। क्या पता, एक निहायत जरूरी और सार्थक संवाद का सिलसिला बन पाए। फिलहाल, चुनाव नतीजों के मद्देनजर, सुनिए सत्ता से संघर्ष और समाज से संवाद की दोहरी भूमिका की जरूरत को रेखांकित करता योगेन्द्र यादव का यह वीडियो।
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