— रामप्रकाश कुशवाहा —
चन्द्रेश्वर वैसे कवियों मे से एक हैं जो कवि तो पहले से थे लेकिन जिनकी मौलिक ढंग से हस्तक्षेपकारी कवि के रूप में उपस्थिति इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में दर्ज हुई। 30 मार्च 1960 को जनमे कवि चन्द्रेश्वर का पहला कविता संकलन पचास वर्ष की अवस्था में ”अब भी” सन 2010 में प्रकाशित हुआ। दूसरा काव्य संकलन 2017 में ‘सामने से मेरे’ और 2021में प्रकाशित तीसरा काव्य संकलन डुमराव नजर आएगा है।
चन्द्रेश्वर की कविताओं को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कविताओं का शिल्प कवि ने अपनी रुचि, स्वभाव, मानसिकता और अभिव्यक्ति की अन्त:प्रेरणाओं के अनुरूप ही चुना है। अपनी कविताओं के आधार पर चन्द्रेश्वर लोक और जीवन के सघन और दीर्घकालिक निरीक्षण के कवि के रूप में सामने आते हैं। उनकी कविताएँ अनुभवों, स्मृतियों और विचारों से बुनी गयी हैं। परिपक्व विवेक के कारण उधार की आंखों यानी देशी-विदेशी विचारधाराओं का आतंक कवि पर नहीं है। विनम्र और शिष्ट दृढ़ता के साथ कवि अपनी भावनाओं और निष्कर्षों को अपनी कविताओं में व्यक्त करता चलता है। प्रसंगों और दृष्टान्तों के चयन में एक अनौपचारिक किस्म की आत्मीयता है। कवि लगातार समाज और व्यवस्था की बेहतरी के लिए चिन्तित है लेकिन उसका दृष्टिकोण आशावादी और सकारात्मक है। एक सृजनधर्मी आत्मविश्वास उसकी संकल्प शक्ति का आधार है-
”सहसा/हरियल हो उठती है/टहनी वही/हरे पत्तों से हो जाती है आच्छादित/कुछ भी संभव है जीवन में ”
(‘ऐसा ही होता है”,पृष्ठ 54)
इस संकलन का शीर्षक ”डुमराव नजर आएगा मुगलसराय से” कविता से लिया गया है जो स्थानों के बेवजह नाम-परिवर्तन के विरुद्ध लिखी गयी है। चन्द्रेश्वर ने अपने सुदीर्घ जीवनानुभवों, दृष्टान्तों, विविध स्थितियों में वैयक्तिक एवं सामूहिक व्यवहार की संभावना और कल्पना तक को आधार बनाकर सार्थक कविताएँ रची हैं।
पेशे से हिन्दी का प्राध्यापक होने के बावजूद चन्द्रेश्वर की कविताओं में समकालीन कवियों और कविताओं से प्रभावित वह समरूपता नहीं मिलती जिसे आचार्य शुक्ल ने कभी रीति कहा था। साहित्य का प्राध्यापक होने का सकारात्मक प्रभाव उनकी कविताओं में यह दिखता है कि अपनी विशेषज्ञता के बावजूद अपनी कविताओं के लोकसंवेदी और संवादी स्वरूप को बचाए रख सके हैं। संभवतः इसके पीछे उनका लोकभाषा भोजपुरी के प्रति प्रेम है। इस प्रेम के कारण ही उनकी कविताएं बौद्धिक और दुरूह होने से सायास बचती हुई सहजता का शिल्प चुनती हैं। उनकी कविताओं में संश्लेषण और विश्लेषण का आधार कवि की निजी अनुभूतियाँ और दीर्घावधि तक किया गया समाज के चाल-चलन का गहन निरीक्षण है; इसीलिए अनुभूति की विश्वसनीयता का संकट चन्द्रेश्वर के यहाँ बिल्कुल नहीं है। उनकी कविताओं को मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि भावात्मक अनुभवों की समृद्धि तथा आम आदमी (पाठक) के लिए विवेकपूर्ण नेतृत्व और मार्गदर्शन के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
संकलन की पहली ही कविता ‘टरुआ’ गांवों में पशुओं का गोबर हटानेवाले एक उपकरण को प्रतीक, रूपक, दृष्टान्त और मुहावरे कई स्तरों पर सन्दर्भित करते हुए लोक जीवन को अभिजात मानसिकता के कारण हिकारत से देखनेवालों पर करारा व्यंग्य करती है। यह कविता कवि की निरीक्षण शक्ति और शोधपूर्ण दृष्टि का भी पता देती है। इसी तरह दूसरी कविता ‘पूरब-पश्चिम’ ‘हर पश्चिम का एक पूरब होता है’ की टिप्पणी के साथ पूरब और पश्चिम के सांस्कृतिक भेद-भाव पर एक मानवीय और संवेदनाधर्मी विमर्श करती है। कवि ‘अपना समय’ कविता का आरम्भ ही यह सूचना देते हुए करता है कि ‘कुछ बातें रंग और दम पैदा कर देती हैं/ कल्पना में भी” और यह कल्पना एक गौरैया के फुदकने से शेर के शिकार में पड़ने वाली बाधा की है। इस कल्पना द्वारा कवि इस विशाल मानवीय समाज के जोड़ को छोटे-छोटे प्रयासों के माध्यम से बचाने पर जोर देता है।
‘चिरई का दाना’ कविता एक लोक-कथा को अन्योक्ति के रूप में इस्तेमाल करती हुई न्याय पाने के लिए जन-प्रतिरोध की सामूहिकता बनाए रखने का सन्देश देती है। ‘गुलामी’ कविता शान्ति और अनुशासन के नाम पर यथास्थितिवादी जड़ता को जीने और स्वीकार करनेवाली जनता पर ‘पिंजरे के सुग्गे’ के माध्यम से व्यंग्य करती है। ‘धैर्य’ कविता धैर्य की विडम्बनात्मक सापेक्षिकता और सीमा को रेखांकित करती है।
‘अन्दर का रसायन’ कविता पिता को अपने बचपन में निर्मित दृष्टिकोण से बाहर निकलकर उनकी अच्छाइयों और कमियों के साथ उन्हें एक मनुष्य के रूप में देखने का साहसिक आह्वान करती है। पिता पर लिखी दूसरी कविता ‘बाबू’ एक संस्मरणात्मक और पारिवारिक रेखाचित्र है तो पिता से सम्बन्धित तीसरी कविता ‘बाबूजी का वन-वे मोबाइल’ पिताजी के माध्यम से भारत के किसी भी वृद्ध-वरिष्ठ नागरिक की कोरोना काल की जीवनचर्या को कविता का विषय बनाती है। इसके स्थान पर ‘बबुआ की लोरी’ कविता नए जमाने के अनुसार एक दुनियादार पिता द्वारा अपने पुत्र को सौंपी गयी सुरक्षात्मक समझदारी है।
”बात में बात” कविता बातों को लेकर लोक-व्यवहार के सभी अनुभवों का काव्य-संग्रह प्रस्तुत करती है। ‘मुश्किल की मुश्किल’ कविता का लिखा जाना कवि के भाषाविद हुए बिना संभव ही नहीं था। यह कविता मुश्किल और आसान जैसे शब्दों को सजीव मानवीय चरित्रों की तरह देखती और दिखाती है। एक अन्य कविता ‘क्रियाएँ ‘भी सक्रियता के दर्शन को भाषा, कवियों, समाज और लोकतंत्र तक ले जाती है। ‘हुनरमंद’ कविता बढ़ते जीवन-दबावों के साथ जीने के कौशल के महत्त्व को अनेक व्यंग्यात्मक परिणतियों के बीच दर्ज करती है।
लोक को तुरन्त ही उसकी परम्परागत सामाजिक या सामूहिक समझदारी से काटकर वैश्विक प्रतिमानों वाला आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। इसे देखते हुए चन्द्रेश्वर परम्परा कै परिष्कार के साथ आधुनिकता की ओर बड़ा अधिक सुरक्षित समझते हैं-
कोई भले तुमको पुराना या पिछड़ा कहे/ विचलित न होना/वक्त चाहे जिस रफ्तार में भागे/वो उत्तर आधुनिक या उत्तर सत्य में बदल जाए/कुछ बातें नहीं होतीं पुरानी/कभी भी !(कुछ बातें बेटे से’ कविता, पृष्ठ 26)
‘फिर भी साथ-साथ’ कविता रेल यात्रा के अनुभव से सृजित होकर धरती की कल्पना तक किसी यात्रा के बोगी सदृश करती है। ‘जरा-सा यकीन नहीं मुझपर’ कविता का आधार हैतुक से अहैतुक प्रेम तक पहुँच गया पत्नी का स्नेह है। ‘अपने-अपने नायक’ कविता का कथ्य सामुदायिक विभाजन की अपसंस्कृति और उसका विद्रूप यथार्थ है। ‘ये हमारा वक्त’ कविता अपने गुजरते समय की शिनाख्त है तो ‘सरल जिन्दगी का फलसफा’ कविता कवि को भी मूल्य संस्थापक पिता की भूमिका में देखती है। ‘मृत्यु का आधार’ कविता का विषय जीवन का महत्त्व है। ‘सुरक्षित कवि’ कविता दरबारी कविता के आधुनिक वंशजों पर व्यंग्य करती है। ‘कवियों की पूरी पृथ्वी ‘ कविता कवि प्रजाति की सकारात्मक भूमिका की पड़ताल है। संकलन की पूर्वार्ध की कविताएं जहाँ क्रमशः आत्मपरक और पारिवारिक हैं तो उत्तरार्ध में कविताएँ एक प्रतिरोधी नागरिक की भूमिका में हैं। इसमें ‘देशभक्त होना’ और ‘हर मसले का हल’ जैसी कविताएँ हैं, जिनकी शक्ति और सार्थकता सजग एवं चुभते व्यंग्य बोध में है। संकलन की अधिकांश कविताएँ अपने ढंग से आदर्श समाज की प्राप्ति के लिए प्रतिरोधी जन-चेतना के निर्माण की भूमिका में और भारतीय लोकतंत्र के पक्ष में हैं।
किताब- डुमराव नजर आएगा (कविता संग्रह)
कवि- चन्द्रेश्वर
प्रकाशक- रश्मि प्रकाशन
महाराजापुरम, केसरीखेडा रेलवे क्रॉसिंग के पास
कृष्णानगर, लखनऊ-226023
मोबाइल- 08756219902
ईमेल- [email protected]
गरीबी,बेरोजगारी और असमानता को दूर कर देश को वास्तविक विकास के मार्ग पर ले जाने वाली अर्थनीति द्वारा विकास की मौलिक अवधारणा की प्रस्तावना करने वाले नंदकुमार आचार्य के लेख, गंगा-जमुनी तहजीब के शायर नजीर बनारसी की कविताओं, अशोक वाजपेई रचनावली के प्रकाशन पर विमल कुमार द्वारा वाजपेई जी की रचनाधर्मिता,और आलोचकीय दायित्व से परिचित कराते लेख, पुस्तक-समीक्षा मे ‘डुमराव नजर आएगा’ कवि चन्द्रेश्वर की काव्य संवेदना से परिचित कराती रामप्रकाश कुशवाह की पुस्तकीय समीक्षा के साथ समता मार्ग साप्ताहिक का यह अंक बहुत सुन्दर बन पडा है।मेरी कविताओं के लिए राजेन्द्र राजन सर को धन्यवाद।