समता के सेनानी और प्रबोधक

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स्मृतिशेष : विलास वाघ

– समीर मनियार 

फुले-शाहू-आंबेडकर के विचारों के प्रसार के लिए आजीवन संघर्ष, जाति की लड़ाई को पूरा करने के लिए अंतर-जातीय विवाह, अंतर-धार्मिक विवाह आंदोलन में अग्रणी, समाज के उपेक्षित-वंचित वर्गों की शिक्षा के लिए संघर्ष, प्रगतिशील और सामाजिक चिंता से प्रेरित पुस्तकों का प्रकाशन और प्रचार-प्रसार करने वाले सुगावा प्रकाशन के संस्थापक-संचालक प्रो. विलास वाघ का गुरुवार (25 मार्च) की सुबह कोरोना के कारण  निधन हो गया। वह 83 वर्ष के थे। वह अपने पीछे उन्हीं की तरह समर्पित अपनी पत्नी प्रो उषा  ताई वाघ को छोड़ गए हैं।
आज सुबह प्रो. वाघ के निधन की खबर दिल दहला देने वाली थी। विलास वाघ को पिछले चार दशकों से लोग सामाजिक ज्ञान के लिए काम करनेवाले बहुआयामी व्यक्ति के रूप में देखते रहे हैं। वह एक निर्भीक व्यक्ति थे जिन्होंने प्रसिद्धि  से दूर रह कर लगातार काम किया। प्रचार से लगातार दूर रहने वाला यह शख्स साहित्य के क्षेत्र में एक सच्चा औलिया  था। वह बाकी विद्वानों की तरह सूखे स्वभाव के नहीं थे।  .उनके अचानक चले जाने के कारण, महाराष्ट्र ने एक सक्रिय टिप्पणीकार खो दिया है। उनकी स्मृति को नमन।
सादा रहन-सहन और सामाजिक मुद्दों के बारे में गहरी संवेदना वाघ सर की पहचान थी। उनसे  पुणे और मुंबई में कई  बार मिलने का मौका मिला। वह एक बुलंद शख्सियत के मालिक थे। एक शांत नायक लगते थे।   हालांकि जिस लक्ष्य और सिद्धांत के साथ उन्होंने अपने जीवन का बलिदान किया, उसकी तुलना नहीं हो सकती।  वाघ सर  के साथ, उषाताई वाघ ने भी इस काम में उनका साथ दिया।

उनका पैतृक गांव खानदेश के धुले जिले का मोरने है। 1 मार्च, 1939 को मोरने में जनमे वाघ सर ने धुले जिले में अपनी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। पुणे में 1958 से 1962 के बीच डब्ल्यू कॉलेज में उन्होंने बीएससी डिग्री का कोर्स पूरा किया।
वह जून 1962 से कोंकण के नारदवाने गांव में एक शिक्षक के रूप में काम कर रहे थे। 1964 से 1980 तक, उन्होंने पुणे में अशोक विद्यालय में पढ़ाया। महाराष्ट्र में भयानक अकाल के दौरान, 1972 में पुणे में सुगावा प्रकाशन शुरू किया। यह आज भी जारी है। 1981 में, बीएड की डिग्री ली। वह पुणे विश्वविद्यालय में आ गए। साल 1983 में, उन्होंने प्रो उषा वाघ के साथ अंतरजातीय विवाह किया। 1986 में पुणे विश्वविद्यालय की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

1964 से 1980 तक, उन्होंने पुणे में वड़वाड़ी के उपेक्षित क्षेत्र में बालवाड़ी शुरू की। सर्वदेव सेवा संघ के माध्यम से देवदासी के बच्चों के लिए पहला छात्रावास शुरू किया। वह एक वर्ष के लिए राष्ट्र सेवा दल के शिक्षा प्रसार मंडल के अध्यक्ष थे। 1972 में उन्होंने समता शिक्षण संस्थान की स्थापना की और इसके माध्यम से तलेगांव धामधेरे में लड़कियों के लिए एक कस्तूरबा छात्रावास शुरू किया। वहाँ 1978 में, उन्होंने खानाबदोश विमुक्त जनजाति के बच्चों के लिए एक आश्रम स्कूल खोला।

1994 में, अपने जन्मस्थान मोरेन में, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर सोशल वर्क कॉलेज शुरू किया। सिद्धार्थ सहकारी बैंक की स्थापना करने का बीड़ा उठानेवाले वाघ सर इसके दो बार चेयरमैन रहे। 1974 में, उन्होंने सुगावा नामक एक वैचारिक पत्रिका शुरू की। वह समाज प्रबोधन पत्रिका के पदाधिकारी थे। पीपुल्स इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट, परिवार मिश्र विवाह संस्थान जैसे कई संगठनों से निकटता से जुड़े थे। उन्होंने पुणे जिले के एक गाँव में सामुदायिक खेती का प्रयोग किया था।

पुणे में भी, सदाशिव पेठ में आंबेडकर के विचारों के प्रकाशन को स्थापित करना आसान काम नहीं था। वाघ साहब ने बड़ी मुश्किल से अपना रास्ता बनाया। सुगावा प्रकाशन एक दीप स्तंभ की तरह पुणे में लोगों के मन को आलोकित कर रहा है। सुगावा प्रकाशन ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा पा ली है। सुगावा की पहली किताब ‘मेरे अन्नाभाऊ साठे’ ’थी, जबकि उनकी दूसरी किताब रावसाहेब कासबे की ‘आंबेडकर और मार्क्स’ थी। बाद में उन्होंने कई दलित लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित कीं। जल नियोजन पर डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के विचार, सुखदेव थोरात द्वारा लिखित पुस्तक पढ़ने लायक है। बाबासाहेब ने देश में जल योजना के विकास में एक महान योगदान दिया है। विचारक जी.बी. सरदार की पुस्तक ‘गांधी और आंबेडकर’ भी विद्वानों के लिए अमूल्य है। प्रो. वाघ ने प्रसिद्ध विचारक शरद पाटिल की ‘मार्क्सवाद और फुले-आंबेडकरवाद’, ‘दासों की गुलामी’, ‘अब्रह्मणी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र’ पर पुस्तकें प्रकाशित कीं।

उन्हें महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार मिला। सुगावा पत्रिका को कई पुरस्कार मिले, जिनमें अंतरराष्ट्रीय मिशन कनाडा-2003 पुरस्कार शामिल है। ‘मैं सेवा दल में बड़ा हुआ, समाजवादियों के बीच,  लेकिन मूल रूप से मैं एक आंबेडकरवादी हूं।’‘ दलितों और सवर्णों को एकसाथ आना चाहिए और जातियों को तोड़कर देश के आर्थिक विकास के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।’ यह आठ साल पहले विलास वाघ ने कहा  था।  मौका था अमृत महोत्सव का।

प्रो विलास वाघ अमृत महोत्सव गौरव समिति की ओर से भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोरात के हाथों विलास वाघ और उषाताई वाघ का सम्मान किया गया।  पुणे विश्वविद्यालय के उस समय के कुलपति डॉ  वासुदेव गाडे ने अभिनंदन (गौरव) ग्रंथ का विमोचन किया। वरिष्ठ समाजवादी चिंतक भाई वैद्य, गौरव (अभिनंदन) समिति के अध्यक्ष थे।   उस मंच पर रावसाहेब कस्बे भी थे।

जाति गरीबी, राजनीति और धर्म को मात दे देती  है। यहां तक कि अगर कोई  अपना धर्म बदलता है, तो वह अपनी जाति को उस धर्म में भी ले जाता है। भारत में  जाति और विकास के बीच एक संबंध है, पर कोई भी इसे गंभीरता से नहीं लेता है। दलितों और सवर्णों द्वारा एकसाथ आर्थिक संघर्ष नहीं छेड़ा गया।  लोगों को लगता है कि उसकी जाति श्रेष्ठ है। इसलिए कोई भी जाति छोड़ने को तैयार नहीं है। ऐसे देश में क्रांति कैसे हो सकती है जो सोचता है कि अन्याय, न्याय है?  यह सवाल आठ साल पहले विलास वाघ ने किया था।

इस पर विचार करना और सामाजिक समानता की लड़ाई लड़ना ही प्रो. वाघ के प्रति सच्ची  श्रद्धांजलि होगी।

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