क्या जिसने प्रथम भारतीय गणतंत्र का व्याकरण लिखा हम उसकी ओर इस उम्मीद से देख सकते हैं कि वह दूसरे भारतीय गणतंत्र का भी व्याकरण रचेगा? जो लोग इस रचयिता के प्रति या फिर भारत के भविष्य को लेकर गंभीर हैं उन्हें बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती के मौके पर यह कठिन सवाल जरूर पूछना चाहिए।
इस हफ्ते आंबेडकर जयंती की तारीख तक पहुंचते-पहुंचते यह बात शीशे की तरह साफ है कि भारत का पहला गणतंत्र मटियामेट हो चुका है। एक ऐसे हफ्ते के दरम्यान जिसमें मौलिक अधिकारों की हिफाजत की संवैधानिक गारंटी के धारक नागरिकों को धमकाया गया, उनकी मस्जिदों को नापाक करने की हिमाकत हुई और घरों पर बुलडोजर चलाये गये। संविधान की प्रस्तावना (क्या यहां ‘पहला संविधान’ कहना ठीक होगा?) को याद करना एक क्रूर मजाक की तरह है, और हां, यह भी याद रहे कि यह सारा कारनामा संवैधानिक रूप से चुनी हुई सरकारों के शासन के तहत हुआ।
ऐसे वक्त में आंबेडकर को याद करना उन्हें सिर्फ रोजमर्रा के हिसाब से याद करना भर नहीं है। हम विचारधाराई बरतरी के पुराने और पक्षपात से भरे खेल खेलने का जोखिम मोल नहीं ले सकते। सियासी खेमेबंदी के दायरे में खींचकर आंबेडकर के संदेशों से अपना मनभावन अर्थ निकालने के खेल से हमें बाज आना होगा। हमें साहस दिखाना होगा कि हम आंबेडकर को उन्हीं के लेखन के बरक्स पढ़ें और अपने वक्त के लिए प्रासंगिक आंबेडकर को उनके संदेशों के बीच से खोज निकालें।
समय और समाज को पढ़ने की आंबेडकर की जो दृष्टि और पद्धति है उसी को अपनाते हुए हम उनकी कुछ मान्यताओं को प्रश्नांकित करें और यह सब इसलिए कि भारत का स्वप्न नये सिरे से सजाने के लिए हमें एक बार फिर से बाबासाहेब आंबेडकर की जरूरत है।
तीन घेरेबंदियों के पार…
इसके लिए हमें आंबेडकर की विरासत को उन बहुविध घेरेबंदियों से निकालना होगा जिसके दायरे में आंबेडकर के आलोचकों और प्रशंसकों ने उसे बांध रखा है। आपको नजर आएगा कि इन घेरेबंदियों में कहीं तो आंबेडकर एक पावन मूर्ति की तरह प्रतिष्ठित हैं (जिससे प्रश्न ना पूछें जाएं, बस श्रद्धा-भाव से सिर नवाया जाए) तो कहीं उन्हें सियासी तंगनजरी के चश्मे से देखा जा रहा है और बहुधा यह भी जान पड़ेगा कि आंबेडकर को देखने-समझने में बौद्धिक आलस्य से काम लिया जा रहा है।
इन साझे कारणों से आंबेडकर एक ऐसे प्रतीक में बदले जा रहे हैं कि कोई भी उन्हें अपने खेमे का योद्धा बताकर प्रचारित कर ले, यहां तक कि वे भी जो उनके रचे गणराज्य को खील-खील बिखेरने में लगे हुए हैं।
पहली घेरेबंदी तो यही है कि आंबेडकर को उनकी सामाजिक जन्मभूमि से जोड़कर देखा जाता है और इसी क्रम में उन्हें बस इतनी ही भर जमीन के दायरे में सीमित कर दिया जाता है। मतलब, आंबेडकर में प्राथमिक रूप से यह देखा जाता है कि वे एक दलित सामाजिक पृष्ठभूमि के थे। ऐसे में, आंबेडकर का चित्रण दलित समाज के नायक या प्रतिनिधि के रूप में होता है, उन्हें जाति-व्यवस्था के मुखर आलोचक के रूप में दिखाया जाता है।
मैंने अपने एक लेख में यह बताने की कोशिश की है कि आंबेडकर को बीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र के इकलौते सिद्धांतकार के रूप में देखा जाना चाहिए। आंबेडकर ने जाति-व्यवस्था की बाबत जो कुछ कहा है उसे हम एक विशिष्ट शब्दकोश के रूप में देख सकते हैं जिसके सहारे सामाजिक ऊंच-नीच की किसी भी बद्धमूल व्यवस्था के मायने खोजे जा सकते हैं।
आंबेडकर एक सम्यक धर्म की खोज में लगे थे और उनकी यह खोज-वृत्ति हमें अपनी सभ्यता की विरासत से जुड़ने की राह बताती है। लेकिन हम इन बातों को भुला देते हैं और आंबेडकर को सिर्फ जाति-व्यवस्था के आलोचक के रूप में चित्रित करते हैं। इसमें चुप्पा मान्यता यह काम कर रही होती है कि कोई अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि से दलित है तो वह सिर्फ अपने बारे में या फिर अपने लोगों के बारे में बोल सकता है ना कि पूरे राष्ट्र के बारे में।
दूसरी घेरेबंदी समय की है- आंबेडकर को उनके अपने वक्त के दायरे में रखकर पढ़ा-समझा जाता है और इस पढ़ने-समझने में आंबेडकर के जीवन में हुई घटनाओं का संदर्भ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है। अपने सियासी सफर में आंबेडकर सरीखे कर्मयोगी को ऐसे अनेकानेक विवादों में उलझना पड़ा जिसमें कोई न कोई पक्ष लेना ही होता है और ऐसे में चुना गया पक्ष विवादास्पद जान पड़ता है और ऐसे विवादों में उलझने के क्रम में आपके बहुत से विरोधी भी खड़े हो जाते हैं।
अफसोस की बात है कि आंबेडकर से जुड़ी हमारी ज्यादातर यादों का रिश्ता पक्षपात से भरे ऐसे विवादों से है और उन विवादों के पीछे जो सिद्धांत काम कर रहे थे हम उन्हें शायद ही कभी याद करते हैं। अंग्रेजी-राज से नाता न तोड़ने के लिए अगर उन्हें लांछित किया जाता है तो इसके पीछे निश्चित ही एक एजेंडा काम कर रहा होता है। ऐसे बहुत से विवादों, खासकर 1932 के पूना-पैक्ट से संबंधित गांधी से जुड़े उनके विवादों को जिंदा रखने के पीछे निश्चित ही कोई न कोई न्यस्त स्वार्थ काम कर रहा होता है।
देश-विभाजन की पृष्ठभूमि में उन्होंने जो कुछ मुसलमानों के बारे में कहा उसके चुनिंदा इस्तेमाल के पीछे भी निश्चित ही कोई कुटिल चाल काम कर रही होती है। इन विभावनों का मिला-जुला असर ये होता है कि आंबेडकर हमेशा आपको एक ऐसे सियासी योद्धा के रूप में नजर आते हैं जो किसी खास मकसद को साधने और खास विरोधी को मात देने के लिए मैदान में उतरा।
और, इस सिलसिले की एक आखिरी घेरेबंदी है आंबेडर की उन उक्तियों की, जिन्हें किसी सूक्ति की तरह इस्तेमाल किया जाता है जबकि वे एक खास मनोदशा में कही गयी अत्युक्ति में गिनी जाएंगी। ऐसी उक्तियों को आंबेडकर का सिद्धांत-सूत्रीकरण मान लिया जाता है और उन्हीं के सहारे आंबेडकर की एक मूर्ति गढ़ी जाती है। ऐसा होने पर हम आंबेडकर को एक ऐसे क्रुद्ध और बुजुर्ग नेता के रूप में याद करते हैं जिसने हिंदू समाज-व्यवस्था को निंदनीय माना और हिंदू धर्म के भीतर अंतिम सांस ना लेने का अपना प्रण पूरा किया।
ऐसे में हम सिर्फ आंबेडकर के एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति व्यवस्था का नाश) को पढ़ते रह जाते हैं, उनका लिखा कुछ और नहीं देखते। हम ये देखते ही नहीं कि आंबेडकर ने ‘स्टेटस एंड माइनॉरिटी’`(राज्य और अल्पसंख्यक तबके) या फिर ‘द बुद्ध एंड हिज धम्म’ (महात्मा बुद्ध और उनका धम्म) भी लिखा।
हम मानकर चलते हैं कि दलित-शोषित की आवाज है तो इस आवाज को तीक्ष्ण और कटु होना ही है लेकिन हम ऐसी आवाज के बारे में ये नहीं मान पाते कि वह शुद्ध बुद्धि और विवेक के पवित्र स्थान पर प्रतिष्ठित हो सकती है।
क्रांतिधर्मी गणतंत्रवाद
अगर हम आंबेडकर को बांधनेवाली इन तीन घेरेबंदियों से उबर पायें तो हम उनसे मुखामुखम कर सकते हैं— वह आंबेडकर जो क्रांतिधर्मी गणतंत्रवाद के सिद्धांतकार हैं और इस आंबेडकर से उम्मीद पाल सकते हैं कि वे हमें एक नवीन भारतीय गणतंत्र की बुनियाद रखने की राह दिखाएंगे।
घेरेबंदियों से पार जाने पर हमारी भेंट एक ऐसे आंबेडकर से होगी जो एक अनूठा व्यक्तित्व तो है ही, साथ ही साथ एक विचार-परंपरा का प्रतिनिधि भी है। आमूल बदलाव की इस विचार-परंपरा की जड़ें महात्मा बुद्ध तक जाती हैं, यह परंपरा परवर्ती युगों में हुए समाज-सुधारकों, धर्म-सुधारकों जैसे ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु तथा ई.वी.एस. पेरियार को अपने में समेट लेती है।
गणतंत्रवाद (रिपब्लिकनिज़्म) शब्द का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है और इस बहुतायत के इस्तेमाल में इस शब्द की दुर्दशा भी खूब हुई है। राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में गणतंत्रवाद का अर्थ सिकोड़कर उसे ऐसी किसी भी सरकार के साथ जोड़ दिया गया है जिसका मुखिया वंशानुगत न होता हो। लेकिन, आंबेडकर हमें गणतंत्रवाद के कहीं ज्यादा गहरे मायने समझाते हैं और ऐसा वे भारतीय तथा पाश्चात्य विचार-परंपराओं के बीच तुक और तान बैठाते हुए करते हैं।
गणतंत्र आखिरकार एक राजनीतिक समुदाय का ही नाम है जिसके जीवन के उपादान और सार्वजनिक जीवन के मान-मूल्य साझे के होते हैं। यह राजनीतिक समुदाय ऐसे सक्रिय नागरिकों की अपेक्षा रखता है जो निर्णय लेने के काम में भागीदारी करें। भारत के अनेकानेक आधुनिक राजनीतिक चिंतकों की तरह आंबेडकर भी “स्वतंत्रता, समानता और बंधुता’ के नारे से प्रेरित हुए लेकिन वे एकमात्र चिंतक हैं जिन्होंने राजनीतिक मूल्यों की इस तिकड़ी में बंधुता को सर्वाधिक प्रमुख यानी केंद्र में रखा। उन्होंने बंधुता की धारणा को बौद्ध-परंपरा के आदर्श मैत्री से जोड़ा।
आंबेडकर के अनुसार, गणतंत्र एक ऐसे राजनीतिक समुदाय की कल्पना पर आधारित है जो भीतर से खंडित ना हो, जो किसी तरह के प्रभुत्व या फिर दमन पर आधारित ना हो। जाति-व्यवस्था की उनकी आलोचना सिर्फ वर्ण-व्यवस्था में निहित दमन-उत्पीड़न की आलोचना या सिर्फ इस बात का दिग्दर्शन नहीं कि जाति-व्यवस्था ने अपने उत्पीड़ितों के साथ क्या-क्या किया है।
आंबेडकर का आह्वान था कि हर किस्म की गैर-बराबरी का खात्मा होना चाहिए। आंबेडकर मानते थे कि कानूनन सबको एक बराबर मान लेना काफी नहीं होता। वे मानते थे कि लोकतंत्र की पूर्वशर्त है कि हर नागरिक के साथ रोजमर्रा के शासन-प्रशासन में बराबरी का बरताव। एक राजनीतिक समुदाय के भीतर चाहे किसी भी किस्म की गैर-बराबरी हो उसका खात्मा हरचंद होना ही चाहिए— बाबासाहब आंबेडकर का जोर इस बात पर रहा और वे अपनी इस निष्ठा पर अविचल रहे। इसी नाते वे क्रांतिधर्मी गणतंत्रवादी हैं।
इसका संबंध सार्वजनिक जीवन के उन मान-मूल्यों से भी है जिस पर गणतंत्रवादियों का हमेशा से जोर रहा है। आंबेडकर ने समझा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था तब तक काम नहीं कर सकती जब तक जनसाधारण के स्तर पर संविधान-वर्णित नैतिकताओं का स्वीकार ना हो। वे इस बात को बखूबी समझते थे कि सर्वजन के जीवन में विवेक की प्रतिष्ठा होना और समाज में नैतिक व्यवस्था का बने रहना लोकतंत्र की कामयाबी की पूर्वशर्तों में शामिल हैं।
समकालीन प्रासंगिकता
अमूर्त जान पड़ते ऊपर के इस सूत्रीकरण का सीधा रिश्ता उन चुनौतियों से हैं जो आज हमारे आगे मुंह बाये खड़ी हैं। भारतीय गणतंत्र खील-खील होकर बिखर रहा है तो इसलिए कि आंबेडकर ने लोकतंत्र की कामयाबी के लिए जिन पूर्वशर्तों की पहचान की थी हम उन्हें साकार करने में नाकाम रहे।
रामनवमी के उत्सव के नाम पर जो कुछ हुआ वह शासक और जनता दोनों ही के बीच संवैधानिक नैतिकता के छार-छार होने का प्रमाण है। आज हम इतिहास के जिस मुकाम पर खड़े हैं उसी के बारे में आंबेडकर ने चेतावनी के स्वर में कहा था कि लोकतंत्र की आड़ में बहुसंख्यक की तानाशाही भी कायम की जा सकती है।
हम वैसा राजनीतिक समुदाय बनाने में नाकाम रहे जो एक गणतंत्र में तब्दील होता है। जातिगत गैर-बराबरी लगातार कायम रही और जाति के आधार पर होनेवाले भेदभाव तथा उत्पीड़न भी। धर्म के आधार पर बनी हुई खाई– खासकर हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई और भी ज्यादा गहरी हुई है और सरकार ने इस खाई को बड़ा बनाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा बंटाया है। और, बड़े चुप्पे तरीके से अमीर-गरीब के बीच की खाई भी बढ़ती जा रही है।
चूंकि भारत का पहला गणतंत्र समाप्त होकर अपने परवर्ती स्वरूप के लिए जगह तैयार कर रहा है, सो ऐसे वक्त में यह उम्मीद पालना बेमानी है कि 1950 में जिस गणतंत्र की नींव पड़ी उसमें प्राण फूंक कर फिर से जिलाया जा सकेगा। हम बस इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि जो दूसरा गणराज्य उभार ले रहा है वह अपने हर मायने में उन मान-मूल्यों का विरोधी ना हो जिनके सहारे भारत नाम के विचार को आज दिन तक परिभाषित किया जाता रहा है। बाबासाहेब आंबेडकर उन चंद प्रकाश-स्तंभों में हैं जिनके सहारे हम ये उम्मीद पाल सकते हैं।