शाहाबाद की संस्कृति

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

— उमेश प्रसाद सिंह —

बाबू कुंअर सिंह के साथ आदरणीया मॉं सदृश धरमन बीबी और करमन बीबी को भी याद करूंगा। शाहाबाद की संस्कृति पूरे भारत में नायाब इसलिए भी है कि उस माटी ने बाबू साहब के साथ इन दोनों बहनों की याद को भी सॅंजोये रखा। बीच शहर में जहाॅ धर्मन बी रहती थी उस चौक का नाम आज भी धर्मन- चौक है। जिस मुहल्ले में करमन बी रहती थी आज भी वह करमन-टोला के नाम से विख्यात है। ऐसे ही नहीं हम वैशाली में अम्बपाली या पाटलिपुत्र की नगरवधू कोसा का नाम उज्ज्वल कर सके हैं। भला हो महान वैद्य सुश्रुत का, जब वे पाटलिपुत्र आए थे तो यूनान तक विख्यात चावल का नाम उन्होंने ‘कोसा’ रखा था, जो आज विलुप्त है। रामधारी सिंह दिनकर जी ने उर्वशी और अन्य साहित्यकारों ने जरूर आम्रपाली को अमरत्व दिया है लेकिन राजपुरुषों ने तो इन महान महिलाओं को सिरे से नकार दिया है।

डॉ राममनोहर लोहिया एक घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि एक बार वे रोम के किसी कहवाघर में बैठे थे; उनके सामने उस समय के यूरोप के एक बड़े दार्शनिक भी बैठे थे।

आधुनिक यूरोपियन सभ्यता का रहस्य? लोहिया पूछते हैं?

कोई जबाब न देकर उस दार्शनिक ने सामने एक मूर्ति की ओर इशारा कर दिया। वह ‘मेरी’ की मूर्ति थी जो यूरोप के हर शहर में प्रमुख स्थानों पर है। यह महान नारी ईसा मसीह के जीवन में आयी है। तमाम गोस्पेल में उनका जिक्र है।

हम आम्रपाली, कोसा की या धर्मन, करमन की मूर्ति लगाने में झिझकेंगे? हमारा धर्म कलंकित हो जाएगा। जबकि हमारे ग्रंथों में उर्वशी-मेनका का स्थान बहुत ऊंचा है। जब लोहिया आज के अरुणाचल को भारतीय भूभाग में लाने का संघर्ष कर रहे हैं तब उस नेफा (नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) का नाम उर्वशीयम रखा था। भारत की मुख्य भूमि के नायक राजा पुरुरवा-उर्वशी को जोड़ते हुए ‘उर्वशीयम’ रखा था।

एक बार आचार्य शिवबालक राय आदरणीय दिनकर जी की ‘उर्वशी’ पर एक आख्यान दे रहे थे। एक छात्र ने सवाल दागा कि सर! उर्वशी वायुमार्ग से जा रही है; उनकी यादों में खोये राजा पुरुरवा उन्हें चुम्बन दे रहे हैं-

वो शून्य गगन में मुझे देख,
चुम्बन अर्पित करने वालों,
सम्पूर्ण निशा मेरी छवि का,
उनींन्द्र ध्यान धरने वालों

सर! दिनकर जी ने कैसे लिखा? आसमान में प्रेमिका को चुम्बन! आचार्य पान खाये ओठों पर स्मित हॅंसी लाते हुए बोले – आपलोग जब भागलपुर के लिए ट्रेन के डिब्बे झॉंकते हुए सीट खोजते देखते हैं; यदि कोई नजर आ जाती हैं तो मैं ‘फ्लाइंग किस’ लेते देखता हूॅं। जोरदार ठहाका।

विषयांतर हो गया। हमारे देश में राजनीति और दर्शन से प्रेम विसर्जित हो गया है। मैं बार-बार राजनेताओं से आग्रह करूंगा कि वे ऐसी महान नारियों को देश के पटल पर लायें।

मैं जिक्र कर रहा था धर्मन और करमन बी का। बाबू साहब के 700 किमी लांग मार्च (जो माओ-त्से-दुंग के भी मार्च से लम्बा था) में धर्मन बी सम्पूर्ण दौलत बाबूसाहब को समर्पित करते हुए शामिल हुई थी। कानपुर के आसपास आप शहीद हो गयीं। इसका थोड़ा जिक्र ले.जनरल सिन्हा ने बिड़ला फाउंडेशन की मदद से ब्रिटिश-फ्रांसीसी अभिलेखागारों से सरकारी दस्तावेज के जरिये अपनी शोधपरक किताब बाबू कुंअर सिंह पर लिखी थी – उसमें जिक्र आया है। मेरे पास वह किताब थी लेकिन नागपुर से आरएसएस वाले हमारे एक मित्र मॉंगकर ले गये; उस समय वे लोग कुंअर सिंह पर काम कर रहे थे।

मुझे इन्दौर के राजबाड़ा में संगमरमर पर कुंअर सिंह का युद्ध से संबंधित जिक्र देखने को मिला। बाबूसाहब कानपुर जब पहुॅंचे तो ज्ञात हुआ कि रानी झाॅंसी शहीद हो चुकी है; तब वे अपने रिश्तेदारों रीवा-सतना की ओर मुड़े लेकिन उनका आगमन सुनते ही सभी रिश्तेदार पलायन कर गये। वे बलिया के रास्ते सुरेमनपुर के पास पहुंचे, शिवपुर-घाट गंगा के पास अंग्रेजों से मुठभेड़ में बाॅंह में गोली लग गयी जिसे अशुद्ध मान बाॅंह काटकर माॅं गंगा को अर्पित कर जगदीशपुर की ओर बढ़ गये।,

1857 के सभी नायकों को, अपने सम्राट बहादुर शाह जफर सहित सबको नमन।

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