प्रेम में हूँ

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— विमल कुमार —

उसने पूछना कहॉं हो आजकल
क्या कर रही हो
मैंने कहा- प्रेम में हूँ
उसने हॅंसकर कहा- क्या? तुम और प्रेम?
क्यों मैं प्रेम नहीं कर सकती
तुमने ही तो कहा था- प्रेम व्रेम तुम्हारे वश की बात नहीं
चलो अच्छा है- तुम्हें किसी से प्रेम हुआ
धीरे से कहा मैंने- दोस्त!
पीड़ा में सुख की तलाश
मृत्यु से भी प्रेम करना सिखा देती है”

ये पंक्तियां हैं युवा कवयित्री महिमाश्री की, जो उनके पहले कविता संग्रह जरूरी है प्रेम करते रहना से ली गयी हैं। हाल ही में महिमाश्री का कैंसर के कारण निधन हो गया। वह पिछले कुछ वर्षों से कैंसर की मरीज थीं और सोशल मीडिया पर सक्रिय भी थीं। जब तब फेसबुक पर उनकी कविताएं-पोस्ट पढ़ने को मिलते थे। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को उनका यह संग्रह तब हाथ लगा जब वह नहीं रहीं।

उनके प्रथम काव्य संग्रह को देखकर लगता है कि उनमें एक अच्छी कवयित्री होने की अपार संभावनाएं थीं। ऊपर जिस कविता की पंक्तियों को उदधृत किया गया है वह उनकी मनोदशा को व्यक्त करती है। किस तरह मृत्यु उनके लिए प्रेम का अभीष्ट बन गयी थी।

स्मृतिशेष महिमाश्री

आखिरकार महिमाश्री को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था और इसलिए उनके प्रथम कविता संग्रह में कई कविताएं हैं जो उनके जीवन और मृत्यु दर्शन के बारे में उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। जाहिर है एक व्यक्ति जो कैंसर का मरीज है, वह अपने दुख और सुख के बारे में जिस तरह लिखेगा उस तरह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं लिख सकता है। हिंदी के बहुत सारे लेखकों को अपनी मृत्यु का पूर्वानुमान हुआ था। महाप्राण निराला ने तो बहुत पहले ही एक कविता में इसका संकेत दे दिया था। उसके बाद अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध जैसे अनेक कवियों की कविताओं में मृत्यु की छवियां दिखती है। यहाँ हिंदी में ‘काल’ पर लिखी गयी कविताएं देखी जा सकती हैं। “काल तुझसे होड़ है मेरी” यह सम्पूर्ण हिंदी कविता एक सूत्रवाक्य ही है।

महिमा की कविताओं में मृत्यु को लेकर एक तरह का भाव जगह जगह देखा जा सकता है। लेकिन यह जीवन संघर्ष के रूप में है। वह कैंसर के मरीज के रूप में रोज मृत्यु का साक्षात्कार कर रही थी लेकिन वह अपनी कविताओं में हताश नहीं थी और न ही जीवन से निराश थी और न ही मृत्यु को लेकर आक्रांत या भयभीत। महिमा बुद्धत्व की खोज में थी लेकिन उननकी यह खोज भी प्रचलित खोज से अलग थी।उनकी कविता “बुद्ध भीतर ही मिलेंगे” की पंक्तियां इस प्रकार हैं – “प्रेम को भ्रम समझना बड़ी भूल होगी जैसे जिंदगी को ताउम्र/ तलाशना जिंदगी में/ बुद्ध भीतर ही मिलेंगे/ अपनी खीर भी खुद ही बनानी होगी सुजाता अंतर्मन की पुकार है!/सांसों की अंगूठी सुलझा कर/ बस प्यास को जगाए रखना /बुद्धत्व तुम्हें भी मिलेगा / मेरे यायावर !”

इस कविता को पढ़कर अज्ञेय का यायावर भी याद आता है और दूसरी तरफ बुद्धत्व को लेकर कई महापुरुषों की खोज भी याद आती है चाहे वह राहुल सांकृत्यायन हों या आंबेडकर या बाबा नागार्जुन आदि। महिमाश्री बुद्ध को बाहर खोजने के बजाय अपने अंतर्मन में ही खोज चुकी है और यह भी कहती है खीर भी खुद बनानी है और सुजाता की कोई जरूरत नहीं।स्त्री सुजाता भी खुद बने और बुद्ध के चरित्र का ही हिस्सा बने। महिमाश्री अपने जीवन संघर्ष में सौंदर्य के प्रतिमानों को भी बदलने-गढ़ने की कोशिश करती है।”गढ़ने होंगे सौंदर्य के नए प्रतिमान” इस शीर्षक को पढ़कर मुक्तिबोध की याद आना स्वभाविक है- अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब।

महिमा इस कविता में कहती हैं – छाती के बिना भी वह स्त्री ही है।….आकार बदलने से रिश्ते नहीं बदलते / ममत्व छाती का मोहताज नहीं/ कोई उसे बता दो जरा/बालों के बिना पहले से ज्यादा खूबसूरत हो गयी है/ सौंदर्य के प्रतिमान तो गढ़े जाते हैं।”

कैंसर स्त्री के जीवन में पुरुष से अधिक संकट उत्पन्न करता है। वक्षविहीन स्त्री की पीड़ा पुरुष की पीड़ा से अधिक है। कैंसर के कारण एक स्त्री का सौंदर्य बरकरार नहीं रहता। इन पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि महिमाश्री में केवल कला नहीं थी बल्कि उनकी जीवन दृष्टि बहुत परिपक्व थी। उनकी एक कविता है- स्त्री कहां सोच पाती है!

इस कविता में भी उन्होंने स्वर्ग की अवधारणा के पीछे पुरुष की दृष्टि को रेखांकित किया है और कहा है- “स्वर्ग की अवधारणा भी पुरुषों की बनाई हुई है। इसलिए उसमें एक स्त्री की कोई जगह नहीं है। उनकी कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं- मृत्यु कैसे होगी?/ मरने के बाद क्या होगा?/ उसे मोक्ष मिलेगा या नहीं?/ हर रोज मर के जीने वाली स्त्रियों से पूछा है कभी/ वह मर के स्वर्ग जाना चाहेगी क्या?/ स्वर्ग भी तो बनाया पुरुषों ने/ पुरुषों के लिए।”

महिमाश्री पहली महिला रचनाकार हैं जिन्होंने स्वर्ग की इस मर्दवादी अवधारणा प्रर प्रश्नचिह्न लगाया है और उसे पुरुष सत्ता की एक चाल बताया है। उनकी एक कविता है मोक्ष।केवल तीन पंक्तियां हैं। इन पंक्तियों में उन्होंने जीवन के विराट सत्य को कैद कर लिया है।
कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं- “जब तक हूँ/ तब तक ही हूँ/ फिर कहीं भी नहीं हूं।”

यह कहीं नहीं होना कवयित्री के लिए मोक्ष है। पर न होने का एक क्षोभ ही है।
एक और कविता है उनकी ‘मेरी यायावरी’-
“ढूंढ़ना है मुझे फानी होने से पहले
स्वेद विन्दुओं के सूखने का रहस्य भूखी अंतड़ियों के अंतिम सांस तक जिंदा होने का मर्म
चलना है अंधेरी गुफाओं में उजास होने तक
मेरी यायावरी सोने नहीं देती
किसी के साथ होने नहीं देती।”

इस कविता में महिमाश्री का ‘यायावर’ अज्ञेय के ‘यायावर’ से थोड़ा भिन्न है और वह कहती है कि यायावरी ऐसी है जो किसी को सोने नहीं देती। जाहिर है उनकी यह यायावरी मृत्यु के द्वार तक जाती है और उन्हें पता है कि कोई प्रेमी भी उनके जीवन में उनका साथ नहीं दे सकता है ।

उनकी एक और कविता है- ‘मैं अक्सर शोक में होती हूं’-

पिछली गलतियों की कतरनें बिखरी होती हैं मेरे पास
मैं उनके साथ ही सोती जागती हूं

मैं अक्सर शोक में होती हूं
कभी मैंने सुन लिया था शायद
दर्द का रिश्ता ही सच्चा होता है इसलिए हर बार चुन लेती हूं

थोड़े सी कोई शिकायत है
कुछ दुख भरी दास्तान
जिन्हें गुनती हुई इंतजार की चादर बुनती हूँ
इस तरह मैं अक्सर शोक में होती हूं!

इस पूरे संग्रह की महिमाश्री की कविताओं में एक बैरागी मन दिखता है और उसमें जीवन और मृत्यु का निरंतर द्वैत भी नजर आता है। उनके संग्रह की अनेक कविताओं में जीवन-मृत्यु का भाव दिखाई देता है।

‘विदा होने से पहले’ कविता में वह कहती हैं-
“मृत्यु शैया से उठकर चुन रही हूं
प्रेम के अनगिन फूल
जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले
सीख लेना है मल्लाहों के गीत
अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूं
जुदा होने से पहले।”

महिमाश्री की कविताओं में एक गहरे प्रेम की तीव्र आकांक्षा अधिक दिखाई देती है क्योंकि उनका मानना है “जरूरी है प्रेम करते रहना”और यही उनके कविता संग्रह का शीर्षक भी है। महिमा के पास एक व्यापक मानवीय उदात्त दृष्टि है जो समकालीन कविताओं के बीच कम ही दिखाई देती है।

झरने पर हिंदी में कई लोगों ने कविताएं लिखी हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद से लेकर आरसी प्रसाद सिंह और आज के कवियों तक, लेकिन महिमा ने झरने को जिस तरह देखा है वैसे पहले नहीं देखा गया। वह उसे एक दूसरे रूप में ही देखती हैं। उनकी पंक्तियां हैं-
“पहाड़ अपने गीत झरनों को सौंपते आए हैं
सैलानी सोचते हैं
झरने कितना सुंदर गाते हैं।”

यानी जो बाहर दिखता है उसके पीछे की हकीकत अलग है। महिमा अपनी कविताओं में बार-बार जीवन और संसार को एक दार्शनिक अंदाज में देखती हैं लेकिन उनकी दार्शनिकता न बोझिल है न बनावटी। वह जीवन के दुख से निकली हैं दर्शन से नहीं निकली हैं। वह इस संसार को भी एक नयी दृष्टि से देखने का प्रयास करती हैं।
‘इंतज़ार’ कविता मात्र दो पंक्तियों की है। देखिए महिमा कितने सुंदर शब्दों में इसे परिभाषित करती हैं-
“उसने कहा – वह बहुत व्यस्त है
मैंने इंतजार सुन लिया।”

80 पेज के इस संग्रह में कुल 52 कविताएं हैं और उनमें मृत्यु और प्रेम के अलावा वर्तमान व्यवस्था पर प्रहार भी है पर महिला मूल रूप से जीवन, प्रेम और मृत्यु की कवयित्री हैं जो बात उन्हें युवा कवयित्रियों से अलग करती है। उनकी कई कविताएं ऐसी हैं जिनको पढ़कर लगता है कि महिमाश्री में एक अच्छी कवयित्री होने के तमाम बुनियादी गुण मौजूद थे और उनमें पार संभावना थी। अगर वह कुछ और दिन जीवित होतीं तो शायद हिंदी कविता को थोड़ा और समृद्ध कर पातीं। दुखद है कि बहुत ही कम उम्र में उनका निधन हो गया लेकिन उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन में आशावाद को लेकर एक संदेश दिया है और जिंदगी जीने का एक जज्बा भी पेश किया है।

किताब – जरूरी है प्रेम करते रहना (कविता संग्रह)
कवयित्री – महिमाश्री
लोकोदय प्रकाशन, 769 A, किरण एनक्लेव, कुर्सी रोड, लखनऊ-226026; मूल्य 80 रुपए।

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