बाजारवाद का अधूरा विरोध

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राजकिशोर ( 2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018 )


— राजकिशोर —

भारत में बाजार व्यवस्था के दुष्परिणाम जैसे-जैसे सामने आ रहे हैं, उसके विरोधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। सभ्यता के इतिहास में बाजार की निर्णायक भूमिका है। लेकिन आधुनिक पूँजीवाद के प्रादुर्भाव के पूर्व बाजार की जो सामाजिक भूमिका थी, वह उसके बाद नहीं रह गयी। तब बाजार सामाजिक विनिमय का एक स्वाभाविक केन्द्र था। वह वस्तुओं की उपयोगिता बढ़ाता था और लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। लेकिन पूँजीवाद ने बाजार को एक स्वाभाविक सामाजिक मंच नहीं रहने दिया। बाजार पूँजी के खेल का यंत्र बन गया।

शुरू में बाजार पर कब्जा करने के लिए हिंसक युद्ध लड़े गये। इसका एक परिणाम था उपनिवेशवाद, जिसने एशिया और अफ्रीका के करोड़ों लोगों के जीवन की रंगत छीन ली, उनका स्वाभाविक आर्थिक विकास अवरुद्ध कर दिया और उन्हें उपमान बना दिया। इसका समानांतर परिणाम था गोरी जातियों में समृद्धि की बढ़ोत्तरी। कुछ सौ वर्षों में ही वे विश्व की नियंता बन गयीं। यही कारण है कि उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के बाद अधिकांश देशों ने समाजवाद या मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता पकड़ा। उसका राष्ट्रीय नेतृत्व जानता था कि बाजारवादी अर्थव्यवस्था अपनाकर देश का आर्थिक पुर्ननिर्माण नहीं किया जा सकता। 

उनकी प्रेरणा के स्रोत के रूप में सोवियत संघ था, जिसने समाजवादी अर्थव्यवस्था अपनाकर देखते ही देखते अपने को एक विश्वशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया था। दूसरी ओर, साम्यवादी चीन ने भी यही कमाल दिखाया।

बेशक इसके विकल्प के तौर पर जापान का मॉडल था, जिसने पूँजीवाद के रास्ते पर चलकर समृद्धि की सफल उपासना की, लेकिन जापानी मॉडल को और कहीं दुहराया नहीं जा सका है। संभवतः यह एक विशेष प्रकार की परिस्थिति की उपज है, जिसका अध्ययन अभी तक चल रहा है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद बाजारवाद को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल गयी है और सभी देश इसी रास्ते पर चल रहे हैं। भारतीय नेतृत्व को भी इसी में अपना भविष्य दिखाई दे रहा है, हालाँकि इसके साथ ही इसका उग्र विरोध भी जारी है।

वस्तुतः भारत में पूँजीवाद को कभी भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा गया। स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व करनेवाला कोई भी दल पूँजीवाद का समर्थक नहीं था। 

यद्यपि कांग्रेस को अनेक देशी पूँजीपतियों का समर्थन था, लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने पूँजीवाद का समर्थन नहीं किया। गांधीजी एक ऐसी अर्थव्यवस्था के कायल थे, जिसके केंद्र में आत्मनिर्भर गाँव हों, और जो भारी पूँजी और भीमकाय टेक्नोलॉजी के अभिशाप से मुक्त हो। चरखा उनके लिए विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक था। बेशक स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने गांधीजी का रास्ता छोड़ दिया। उसने आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था को भारत के भविष्य निर्माता के रूप में देखा और समाजवाद को मौखिक श्रद्धांजलि दी।

इसमें संदेह नहीं कि मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रयोग विफल रहा। यह न तो देश को संपन्नता की ओर ले जा सका और न ही समता की ओर। उत्पादन की आधुनिकता पैदा किये बगैर भोग की आधुनिकता की वासना इतनी प्रबल थी कि राष्ट्र-निर्माण के सभी प्रयत्न एक अंधी गली में ले जानेवाले साबित हुए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व तक इस व्यवस्था का खोखलापन पूरी तरह उजागर हो चुका था। लेकिन राजीव गांधी अपने स्वाभाविक संवेग से जो करना चाहते थे, वह नरसिंह राव और उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने एक सुचिंतित नीति के तौर पर किया।

यह नीति बाहर से हम पर लादी गयी है या हमने इसे स्वेच्छापूर्वक अपनाया है – इस बहस में कुछ नहीं रखा है। तथ्य यह है कि भारत एक बार फिर उपनिवेश बनता जा रहा है तथा समता और न्याय के सभी विचारों को तिलांजलि दे चुका है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बाजारवाद का जो आक्रामक स्वरूप दिखाई दे रहा है, वह अश्लील और उबकाई पैदा करनेवाला है। ऐसा लगता है कि देश में एक ही मंत्रालय काम कर रहा है और वह है वित्तीय मामलों का मंत्रालय। बाकी मंत्रालय सिर्फ रस्म-अदायगी के लिए बने हुए हैं।

इस स्थिति से असंतोष स्वाभाविक है – खासकर बौद्धिक और विचारशील वर्ग में। इस वर्ग का एक बड़ा और मुखर हिस्सा बाजार व्यवस्था का विरोध कर रहा है, इससे पता चलता है कि हमारी बौद्धिक चेतना पूरी तरह निस्पंद नहीं हुई है। 

क्या विरोध की इस धारा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके तत्वावधान में चल रहे स्वदेशी जागरण मंच को भी शामिल किया जा सकता है? सिर्फ आंशिक रूप से, क्योंकि स्वदेशी जागरण मंच बाजार व्यवस्था का विरोधी नहीं है – वह सिर्फ विदेशी पूँजी का विरोध करता है।

विदेशी पूँजी से इस भय का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ही ब्रितानी सत्ता भारत में आयी थी। संघ के लोगों को लगता है कि विदेशी पूँजी के जाल में फँसने के बाद भारत की स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। आर्थिक गुलामी और राजनीतिक गुलामी के बीच ज्यादा फासला नहीं रह जाता। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी जागरण मंच को देशी पूँजी से कोई एतराज नहीं है। सच तो यह है कि भारत में स्वतंत्र पार्टी के बाद जनसंघ ही एकमात्र राजनीतिक दल था, जो समाजवाद का विरोध और निजी पूँजी का समर्थन करता था। स्मरणीय है कि जब राव सरकार ने उदारीकरण के रास्ते पर चलना शुरू किया, तो शुरू में भाजपा की प्रतिक्रिया यही थी कि कांग्रेस ने उनका एजेंडा चुरा लिया है। इसलिए यदि स्वदेशी जागरण मंच की बात राजग सरकार द्वारा मान ली जाती है, तब भी यही बाजार व्यवस्था चलेगी, जो कुछ लोगों को संपन्न बनाती है और बहुसंख्यक लोगों को विपन्न।

आधुनिक युग में बाजार व्यवस्था इतनी नृशंस हो चुकी है कि उसका विरोध करने के लिए बहुत ज्यादा बुद्धिमान या संवेदनशील होने की जरूरत नहीं है। इसकी बुराइयों को कोई भी सहज ही देख सकता है। इसलिए जब हमारे लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी बाजारवाद का विरोध करते हैं, तो वे सहज ही विश्वसनीय जान पड़ते हैं। 

उनकी बातों में दम दिखाई देता है और आलोचना में धार। एक दशक से हम यह आलोचना पढ़ और सुन रहे हैं। पहले सिर्फ कम्युनिस्ट और समाजवादी नारा लगाया करते थे कि टाटा-बिड़ला की यह सरकार – नहीं चलेगी, नहीं चलेगी, लेकिन अब और लोग भी यह दुहराने लगे हैं – यह और बात है कि बाजारवाद की इस आँधी में टाटा और बिड़ला काफी पीछे छूट गये हैं तथा नयी आर्थिक शक्तियाँ ज्यादा ताकत और सफलता के साथ बाजार में मौजूद हैं तथा आम जनता को भी करोड़पति और मालामाल होने का ख्वाब दिखाया जा रहा है।

एक दशक के बाजारवाद और उसके इतने ही लंबे विरोध के बाद क्या अब यह उचित समय नहीं है कि हम विरोध की अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करें? 

एक बात बहुत साफ है। किसी चीज का सिर्फ विरोध करना काफी नहीं है। बाजार व्यवस्था बुरी है, इसमें सिर्फ पैसेवालों के लिए जगह है, इसके माध्यम से देश के करोड़ों लोगों की गरीबी दूर नहीं हो सकती – यह जानकर जनता क्या करेगी? वह अपने दैनंदिन अनुभव से इसे देख सकती है और देख रही है। हम किसी मरीज की तकलीफों का वर्णन करते रहें और उसके लिए कोई दवा तजवीज न करें, इससे उसकी तकलीफ और बढ़ती ही है। लेकिन पिछले दस साल से यही हो रहा है।

हमने मर्ज को पहचान लिया है, उसके लक्षणों का हम विस्तार से वर्णन करते हैं, जो लोग मर्ज को बढ़ा रहे हैं, उनकी आलोचना होती है, लेकिन अभी तक हमने यह बताने का कष्ट नहीं किया है कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण का विकल्प क्या है। इससे जनता की हताशा और बढ़ती है तथा उसकी ऊर्जा का उपयोग किसी विकल्प के निर्माण में नहीं हो पाता।

भारत की केंद्रीय सत्ता और कुछ राज्य सत्ताएँ भी यह साबित करने पर तुली हुई हैं कि बाजार व्यवस्था और निजीकरण में ही भारत की आर्थिक मुक्ति की कुंजी छिपी हुई है। लेकिन जो लोग इस धारणा का विरोध कर रहे हैं, वे यह नहीं बताते कि यदि यह रास्ता सर्वनाश की ओर जाता है, तो नवनिर्माण का रास्ता क्या है?

यह दावा नहीं किया जा सकता कि इसके पहले जो अर्थव्यवस्था चल रही थी, वही ठीक थी। बेशक वह मौजूदा व्यवस्था से कम बुरी थी, लेकिन उसमें भी देश के करोड़ों गरीब लोगों के लिए कोई भविष्य नहीं था। नाम मिश्रित व्यवस्था का था, किन्तु बढ़ पूँजीवाद रहा था तथा आय एवं संपत्ति का प्रचंड केंद्रीयकरण कर रहा था। इसके साथ ही, वह व्यवस्था बड़े पैमाने पर कामचोरी और अकर्मण्यता को प्रश्रय देती थी। वस्तुतः उस व्यवस्था की विफलता के कारण ही मौजूदा व्यवस्था की कुशलता का हुआँ-हुआँ संभव हो पा रहा है। इसलिए बाजारवाद का विरोध करते हुए हम पुरानी लीक पर लौटने की वकालत नहीं कर सकते। लोगों को हमारे तर्क में दम नजर नहीं आयेगा। यह कुएँ से निकल कर गड्ढे में गिरने जैसी स्थिति होगी।

स्पष्टतः विकल्प दो ही हैं – गांधीवाद और समाजवाद। गांधीवाद में सादगी है, सरलता पर जोर है और यह कम पूँजी की जीवन व्यवस्था है। समाजवाद में आधुनिकता है, टेक्नोलॉजी का उचित उपयोग है और उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण है। कोई चाहे तो दोनों को थोड़ा-थोड़ा मिला सकता है। हम जो भी रास्ता चुनें, यदि बाजार पर सामाजिक अंकुश कायम करना है, तो वह एक तरह का समाजवाद ही होगा। 

ऐसी ही व्यवस्था में सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है, सभी को रोजगार दिया जा सकता है और विषमता को न्यूनतम किया जा सकता है। यह दिवास्वप्न नहीं है, क्योंकि सोवियत संघ में इसका एक सफल प्रयोग हो चुका है – भले ही इसके साथ दूसरी बुराइयाँ जुड़ी रही हों।

अतः जब तक हम अपने सपनों की अर्थव्यवस्था का चित्र जनता के सामने नहीं रखेंगे, बाजारवाद का हमारा विरोध अधूरा रहेगा तथा वह किसी प्रकार के कर्म की प्रेरणा नहीं बन सकेगा। लोग बाजार को आग लगाने के लिए तैयार हो जाएंगे, बशर्ते उन्हें भरोसा हो कि उसकी राख से कुछ बेहतर उगेगा। लेकिन बाजारवाद के ज्यादातर विरोधी किसी विकल्प का आह्वान नहीं कर रहे हैं। क्या नहीं चाहिए – यह वे बताते हैं। लेकिन क्या चाहिए – यह वे नहीं बताते। आजादी को बचाना जरूरी है, लेकिन उस बची हुई आजादी का उपयोग किस रूप में किया जाएगा, यह कार्यक्रम आना बाकी है। क्या ऐसे किसी कार्यक्रम के बगैर बाजारवाद के विरोध में लोगों का साथ लिया जा सकता है?

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