जब अंग्रेजी हुकूमत में यह हालत थी तो उसके पूर्व क्या होता होगा?पेशवाओं का राज विशुद्ध ब्राह्मणी राज बन गया था। समानता नाम की चीज लेशमात्र भी वहाँ नहीं थी। प्रशासन और सेना में बड़े पद ब्राह्मणों को मिलते थे। उनके लिए टैक्स की छूट थी। देश के कोने-कोने से हजारों ब्राह्मण आते थे तो उन्हें सरकारी खर्च से भोजन दिया जाता था, ऊपर से दक्षिणा भी। दूसरे तबकों पर, दबी हुई जातियों पर असह्य जुल्म ढाये जाते थे।
पेशवाओं के राज की ही एक बानगी देखिए। प्रशासकों ने ‘अछूतों’ को सख्त आदेश दे रखे थे कि वे रास्ते में थूकें नहीं, क्योंकि उधर से भद्रजन गुजरते हैं। यदि उन्हें थूकना ही है तो वे गले में एक मटका लटकाकर चलें और आवश्यकता होने पर उसी में थूकें। उनकी छाया से भी सवर्णों को छूत लगती थी, इसलिए उनको यह भी आज्ञा दी गयी थी कि वे अपनी पीठ के पीछे एक झाडू बाँध कर चलें ताकि जिस जगह भी उनकी अपवित्र परछाईं गिरे, वह झाडू से साफ हो जाए। यदि दूर से भी कोई सवर्ण उनको आते दिखता तो इन ‘अछूतों’ को दुबक कर एक तरफ ओट में हो जाना पड़ता था। सुबह और शाम के समय जब परछाइयाँ लंबी हो जाती हैं, उस समय इन अछूतों को बहुत ही सँभलकर राह-रास्तों पर चलना पड़ता था।
ब्रिटेन में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास सदियों से हो रहा था। 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में जॉन राजा गद्दी पर था। उसके स्वच्छंद आचरण के खिलाफ सरदारों और बड़े जमीदारों ने विद्रोह कर दिया था। उन्होंने जॉन राजा से जबरदस्ती एक चार्टर मंजूर करवा लिया। यह चार्टर मैग्राकार्टा है, ऐसी ब्रिटेन के इतिहासकारों की मान्यता है। आधुनिक अर्थ में यह लोकतंत्र का चार्टर नहीं था। इसका मूल सिद्धांत सिर्फ “कानून का राज’’ था। राज्य किसी व्यक्ति का नहीं होता, राज्य राजा का नहीं, बल्कि कायदे-कानून का होना चाहिए। स्वयं राजा भी परंपरागत कानून से नियमित होता है, वह न मनमाने ढंग से किसी की जायदाद जब्त कर सकता है, न किसी को कत्ल करवा सकता है, ऐसा उसका आशय था। हिंदुस्तान में भी महाभारत और शास्त्रों में राजधर्म की चर्चा है। परंतु वास्तव में राजा का आचरण स्वच्छंद नियम से परे होता था- हिंदू राजाओं के जमाने में और मुगल काल में भी।
ब्रिटेन की संसद, हाउस ऑफ कामन्स, प्रारंभ से व्यापक मतदान द्वारा नहीं चुनी जाती थी। मतदान का अधिकार बहुत सीमित था। कई सीटें बड़े लोगों की जेब में रहती थीं। भ्रष्ट आचरण और बेईमानी की काफी गुंजाइश थी। धार्मिक समानता का नाम नहीं था। रोमन कैथलिक अधिकारिक पदों से वंचित रखे जाते थे। यहूदियों को भी कोई बड़ा ओहदा नहीं मिलता था। धार्मिक अल्पसंख्यकों को ये सब अधिकार ब्रिटेन में यथावकाश ही प्राप्त हुए। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगल्भ विचारधारा के कारण हमें इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए लंबी विकास प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा। मगर इंग्लैण्ड में ऐसा नहीं हुआ। वहाँ हरेक वर्ग को एक-एक अधिकार के लिए लड़ना पड़ा था। महिलाओं को भी प्रदीर्घ संघर्ष करना पड़ा था। संघर्ष के परिणामस्वरूप उन्हें ये अधिकार मिले, इसलिए वे लोग इन अधिकारों के महत्त्व को अच्छी तरह जानते हैं। अंग्रेजी हुकूमत ने विरासत में हमारे लिए ‘कानून का राज’ की एक अच्छी संकल्पना छोड़ी। इसी संकल्पना के गर्भ से हैबियस कार्पस जैसी महान रिट (आदेश) की प्रक्रिया ने जन्म लिया है।
हम चाहे कितना भी बढ़िया संविधान बनाएं, सब तरह के मौलिक अधिकार नागरिकों को प्रदान कर दें, मगर उनके कार्यान्वयन की यदि कोई प्रक्रिया या मशीनरी नहीं है तो इनका कोई मूल्य नहीं। सोवियत यूनियन का नया संविधान बहुत अच्छा है। उन्होंने सामाजिक-आर्थिक-मौलिक अधिकार भी नागरिकों को प्रदान किये हैं। मगर उनके यहाँ ‘हैबियस कार्पस’ जैसी कोई प्रक्रिया या पद्धति नहीं है। स्टालिन का संविधान भी ‘अच्छा’ था। उसमें भी नागरिक अधिकार थे परंतु उनके कार्यान्वयन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। इस कारण इसके कितने भयंकर नतीजे निकले, यह सबको विदित है। सोवियत यूनियन में आज भी यह प्रक्रिया अस्तित्व में नहीं है।
अंग्रेजी राज में हैबियस कार्पस के अधिकार कलकत्ता, मद्रास, बंबई के उच्च न्यायालयों द्वारा प्रयुक्त होने लगे। दंड-प्रक्रिया संहिता में भी इस अधिकार का समावेश किया गया था। शायद बड़े राजनीतिक मामलों में उच्च न्यायालय न्याय नहीं करता था। परंतु उच्च राज्य स्तरीय मामलों के अलावा अन्य मामलों में इस प्रक्रिया से भारतीय नागरिक लाभान्वित होते थे। हैबियस कार्पस के माने सशरीर व्यक्ति को अदालत में प्रस्तुत करना होता है। इसके तहत अदालत यह पूछती है कि फलां व्यक्ति को क्यों गिरफ्तार किया गया है? इसका कानूनी आधार क्या है? यदि मनमाने ढंग से गिरफ्तारी हुई तो अदालत यह रिट जारी करके उसे रिहा कर देती है। इस प्रक्रिया का स्वयं मैंने कई दफा सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। हमारे संविधान की बदौलत हमारी स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध 32वीं धारा में सीधे सर्वोच्च न्यायालय के सामने जाने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्राप्त हुआ है। ऐसा अधिकार शायद ही किसी दूसरे देश में होगा।
कानून के सामने समानता, इंसान-इंसान के बीच बराबरी की अंग्रेजी राज की मान्यता ने भारत की परंपरागत सोच तथा न्यायप्रणाली में बड़ा परिवर्तन किया। इससे एक वैचारिक क्रांति का भी सूत्रपात हुआ।