जब हिंदुओं में आधुनिक विद्या का प्रसार होने लगा और प्रशासनिक सेवाओं में उनको अधिक स्थान मिलने लगे तो प्रतिक्रियास्वरूप मुसलमानों में दो तरह के विचार प्रवाह पैदा हुए। एक विचार यह था कि भद्र हिंदुओं की तरह हमें भी अरबी, फारसी की पढ़ाई छोड़कर अंग्रेजी माध्यम में नयी शिक्षा, विज्ञान और गणित को ग्रहण करना चाहिए। दूसरी विचारधारा के लोग धर्मान्ध थे, उनके दिमाग पुराने थे। ये जीर्ण मत वाले लोग पश्चिम की विद्या और विज्ञान से नफरत करते थे। वे कहते थे कि एक दफा यह जहर यदि मुसलमान समाज में फैल गया तो धीरे-धीरे मुसलमानों का धर्म, सभ्यता तथा समाज ही खतरे में पड़ जाएगा। उनका अपना अलग अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस विचारधारा के लोग अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करते थे। उन्होंने कहा कि बिना सरकारी सहायता की अपेक्षा रखे पुरानी अरबी, फारसी की विद्या को जीवित रखा जाए।
आधुनिकतावादियों के नेता पर सैयद अहमद खां थे। विद्रोह के पश्चात अंग्रेजों ने मुसलमानों का जो दमन किया था, उसका उनके मन पर गहरा असर हुआ था। वे कहते थे कि मुसलमानों को अंग्रेजी प्रशासन के विरोध के रूप में काम नहीं करना चाहिए। अंग्रेजी शासन से टकराने से मुसलमान समाज का बड़ा नुकसान हुआ है तथा भविष्य में और भी ज्यादा नुकसान हो सकता है। अतः बदली हुई परिस्थिति के अनुसार मुसलमानों को निःसंकोच अब पश्चिम की विद्या सीख लेनी चाहिए। ऐसा न करने से उनकी प्रगति रुक जाएगी। सर सैयद अहमद खां इस्लाम के प्रेमी थे, कुरान और शरीयत को आधुनिक प्रगति के खिलाफ नहीं मानते थे। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि कुरान की कोई भी बात विज्ञान से नहीं टकराती है। उन्हीं की प्रेरणा से अलीगढ़ में एंग्लो मोहम्मडन कालेज की स्थापना हुई थी, जिसका आगे चलकर विस्तार हुआ। आज यही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात है।
इसके विपरीत जो परंपरावादी लोग थे, उन्होंने देवबंद में दारूल उलूम नाम की संस्था की स्थापना की। दारूल उलूम का मकसद था कि परंपरागत पढ़ाई को बरकरार रखा जाए, मुस्लिम धर्म और सभ्यता की रक्षा की जाए, सारे मुसलमानों में धार्मिक भावना का प्रसार किया जाए।
जहाँ सर सैयद अहमद खाँ ने आधुनिकीकरण और आधुनिक विज्ञान की ओर मुस्लिम समाज के मन को मोड़ा वहीं राजनीतिक क्षेत्र में उन्होंने मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्य धारा से अलग रखना चाहा। आगे चलकर जो पृथकतावादी प्रवृत्ति मुस्लिम समाज में पनपी, उसके जन्मदाता एक माने में सर सैयद अहमद खां ही थे।
भाषा अभिव्यक्ति का साधन है। उसका प्रयोग विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए किया जाना चाहिए। शब्दों का सही इस्तेमाल न करने से कभी-कभी विचारों में सफाई नहीं आ पाती, अस्पष्टता और भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। अंग्रेजी में जो ‘नेशन’ शब्द है, उसका सही और सटीक शब्द उर्दू में न होने के कारण कई गलत धारणाएं बनीं। यही स्थिति लगभग अन्य भारतीय भाषाओं की भी रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक हमारी भाषाओं में ‘नेशन’ के लिए कोई समान पर्यायवाची शब्द नहीं है। न तमिल में है, न संस्कृत में और न ही संस्कृत से उद्भूत अन्य भाषाओं में। फारसी और अरबी से उर्दू ने अपना शब्द भण्डार लिया है। मगर ‘नेशन’ के लिए उसमें भी कोई शब्द नहीं है। नतीजा यह हुआ कि हमारे यहाँ राष्ट्रीयता और भारतीय एकता की जो ‘नयी कल्पना’ आयी उसमें गलत और संदिग्ध शब्द-प्रयोगों के कारण भ्रम पैदा हुआ। इससे राष्ट्रीयता की इस भावना को आघात पहुँचा। पूर्व की भाषाओं (बांग्ला और ओड़िया) में ‘नेशन’ तथा ‘नेशनल’ का समानार्थी शब्द क्या है? हिंदी में हम ‘राष्ट्र’ तथा ‘राष्ट्रीय’ शब्द प्रयोग करते हैं ‘नेशन’और ‘नेशनल’ के लिए। लेकिन पूर्वी भाषाओं में इसके लिए प्रचलित शब्द है ‘जातीय’। सिर्फ हिंदी और मराठी में इसके लिए ‘राष्ट्र’ तथा ‘राष्ट्रीय’ शब्द प्रचलित है। इन भाषाओं में ‘जातीय’ शब्द का अर्थ अलग है। उत्तर भारत में हिंदी-भाषी क्षेत्र में ‘जातीय’ से मतलब है ‘कास्टिस्ट’, जो जाति और जातीयता से जुड़ा हुआ है। मराठी में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘जातीय’ शब्द का प्रयोग ‘सांप्रदायिक’ अर्थ में किया जाता था। परंतु इधर कुछ वर्षों से मराठी लेखक भी ‘सांप्रदायिक’ शब्द का प्रयोग ‘कम्युनल’ अर्थ में करने लगे हैं।
आन्ध्रप्रदेश की बात लीजिए। तेलुगु भाषा में ‘राष्ट्र’ का अर्थ हिंदी अथवा मराठी से अलग है, यानी ‘प्रदेश’ या ‘प्रान्त’। इन विभिन्न अर्थों से ‘नेशन’ या ‘नेशनल’ शब्द के प्रयोग में हमारे यहाँ बड़ी भ्रांति उत्पन्न हुई है। मेरी राय में इस मुल्क में राष्ट्रीय भावना पनपने में जो अनेक बाधाएँ आयीं, उनमें कश्मीर से कन्याकुमारी और बलूचिस्तान से मणिपुर तक कोई समानार्थी शब्द ‘नेशन’के लिए सभी भारतीय भाषाओं में न होना एक महत्त्वपूर्ण बाधा थी। अच्छा होता कि हमारे पुरखे सभी भाषाओं में ‘टेलीफोन’ की तरह ‘नेशन’ शब्द को भी भारतीय बना लेते।
महाराष्ट्र राज्य की बात लें। इस शब्द में ‘राष्ट्र’ भी है और सो भी ‘महा’। यानी आज जो एक राज्य है, प्रांत है, प्रदेश है, उसका नाम है ‘महाराष्ट्र’ जो दूसरों को कुछ अटपटा-सा लगता है। महाराष्ट्र के अति प्राचीन इतिहास में शायद यह नाम प्रचलित नहीं था। यह तनिक आधुनिक नाम है। शायद 17वीं शताब्दी में यह प्रचलित था। प्राचीन काल में महाराष्ट्री एक प्राकृत का नाम था। पहले लोग महाराष्ट्र और मराठीभाषियों के लिए प्रायः ‘मराठा’ शब्द का ही प्रयोग करते थे। अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव में इसको परिष्कृत करके पुनः महाराष्ट्री लोग सभी मराठीभाषियों को ‘मराठा’ कहते थे, जबकि महाराष्ट्र में ‘मराठा’ नाम की एक विशेष और प्रमुख जाति भी है। इसीलिए शायद सफेदपोश जातियाँ अपने आपको मराठा कहलाने में शर्मिन्दगी महसूस करती होंगी और उन्होंने महाराष्ट्रीयन शब्द की रचना की होगी। परंतु तिलक जी ने अपनी अंग्रेजी पत्रिका का नाम ‘मराठा’ ही रखा।
आज महाराष्ट्र में एक-राष्ट्रीयता की भावना इतनी जोर पकड़ चुकी है कि कोई भी महाराष्ट्र निवासी महाराष्ट्र को ‘महाराष्ट्र’ के रूप में नहीं लेता है, भारत के एक अविभाज्य प्रान्त, प्रदेश के रूप में ही लेता है।