गले तक कर्ज में डूबा देश

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— डॉ. एस जतिन कुमार —

देश पर जो कर्ज है उसमें हर साल 10 लाख करोड़ रु. का इजाफा हो रहा है। 1947 से 1914 तक जहाँ लगभग 56 लाख करोड़ रु. का कर्ज लिया गया, वहीं 2014 से 2021 के बीच 80 लाख करोड़ का। अगर यह भारी-भरकम राशि देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और उत्पादन बढ़ाने तथा विकास के कामों में इस्तेमाल की जाती, तो समझा जा सकता था। लेकिन नए कर्जों का उपयोग पुराने कर्जों तथा उनका ब्याज चुकाने में इस्तेमाल किया जा रहा है। 2021 में हमने अपने कुल राष्ट्रीय उत्पादन (जीडीपी) के 60.5 फीसद के बराबर कर्ज लिया। 2014-15 में गैस (जी), डीजल (डी) और पेट्रोल (पी) पर हमारे टैक्स थे 74,158 करोड़ रु., और ये टैक्स बढ़कर 2020-21 में 3 लाख करोड़ रु. हो गये। वे कहते हैं कि जीडीपी बढ़ी है, पर देखिए कौन-सी जीडीपी बढ़ी है!

पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा, सरकार की अर्थव्यवस्था डाँवाँडोल है, क्योंकि कल्याणकारी योजनाओं पर भारी खर्च के चलते राजकोषीय घाटा काफी बढ़ गया है। उन्होंने कहा, “एक तरफ गरीबों के लिए चलायी जा रही योजनाएँ हैं और दूसरी तरफ चुनिंदा कारपोरेट घरानों को खूब लाभ पहुँचाने के लिए लागू की गयी नीतियाँ।” समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में सिन्हा ने कहा, “हैरानी की बात यह है कि कोई भी सरकार की वित्तीय हालत के बारे में चिंतित नहीं है, जो लोग सरकार चला रहे हैं वे भी फिक्रमंद नहीं दिखते।” फिर सिन्हा ने यह आरोप लगाया कि “आज की आर्थिक नीति के पीछे केवल एक मकसद काम करता है कि इससे सरकार या सत्तारूढ़ दल को चुनाव में फायदा होगा या नहीं।” आर्थिक संकट और सत्ताधारी पार्टियों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये को लेकर उनकी चिंता सही है, लेकिन यह धारणा स्वीकार्य नहीं है कि गरीबों के लिए चलायी जानेवाली कल्याणकारी योजनाएँ संकट का कारण हैं। दरअसल, संकट की वजह है बड़े कारपोरेट घरानों को फायदा पहुँचानेवाली नीतियाँ और फैसले।

अगर हम यह देखें कि बैंकों को किस तरह मैनेज किया जा रहा है, तो यह साफ दिखेगा कि अर्थव्यवस्था किनके हितों के इर्दगिर्द घूम रही है। बैंकों ने वित्तवर्ष 2021 में 2.02 लाख करोड़ रु. के खराब कर्ज या एनपीए रफा-दफा कर दिए। सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने पिछले सात साल में 10.7 लाख करोड़ रु. के कर्ज बट्टे खाते में डाल दिए। बट्टे खाते में डालने का काम सिर्फ किसी एक साल में हुआ हो, ऐसा नहीं। यह क्रम साल दर साल और जोर से चला है। रिजर्व बैंक के मुताबिक 2016-17 में 1,08,373 करोड़ रु., 2017-18 में 1,61,328 करोड़ रु. 2018-19 में 2,36,265 करोड़ रु., 2019-20 में 2,34,170 करोड़ रु. के कर्ज बट्टे खाते के हवाले किये गये। पिछले दस सालों में बैंकों ने 11,68,095 करोड़ रु. का एनपीए बट्टे खाते में डाल दिया। इन बैंकों ने दिए गए कर्जों का केवल 14 फीसद (64,228 करोड़ रु.) वसूल किया। उन्होंने उतना कर्ज दो बार माफ किया जितना पाँच साल में इकट्ठा किया था।

इसके अलावा बैंक यह घोषित करके लोगों में भ्रम पैदा करते हैं कि यह तो हिसाब-किताब को दुरुस्त करना भर है, और कर्ज पहले की तरह वसूल किया जाएगा। आरटीआई के तहत दी गयी जानकारी के मुताबिक 2014 से 2019 के बीच भारत में अधिसूचित बैंकों ने 6.35 लाख करोड़ रु. मूल्य के खराब कर्जों को बट्टे खाते में डाल दिया और बट्टे खाते में डाले गये कर्जों में से सिर्फ 62,220 करोड़ वसूल किये। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इस तरह के कर्जों में से बाद में सिर्फ 10 फीसद ही वसूल हो पाते हैं। व्यवहार में इसका मतलब है कि बड़े कर्जदारों को कर्ज डकार जाने की छूट देना।

इस तरह के अनेक बड़े-बड़े कर्जदारों के कर्ज बट्टे खाते में डाले गए हैं, जैसे कि गीतांजलि जेम्स मोहिल चोकसी (8018 करोड़), आर, ई. आई. एग्रो (4314 करोड़), विनसम डायमंड्स (4076) करोड़, विजय माल्या (1943 करोड़), डेक्कन क्रानिकल (1915 करोड़), वगैरा। इनमें से 75 फीसद कर्ज सरकारी बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले गये हैं, लेकिन इन्हीं बैंकों के लिए यह कभी संभव नहीं होता कि छोटे किसानों के कर्ज माफ कर दें जिनका कर्ज बस दो-तीन लाख का होता है। केंद्रीय वित्तमंत्री ने हाल में कहा कि “ऐसा करना आर्थिक समझदारी का कदम नहीं होगा और न ही इससे किसानों के जीवन में कोई फर्क पड़ेगा।”

इस रवैये को देखते हुए यह हैरत की बात नहीं कि किसानों से कर्जों की वसूली उनके अनाज और बीज नीलाम करके की जाती है। हमने हाल में एक समाचार पढ़ा कि गुजरात में एसबीआई ने एक किसान को आवश्यक प्रमाणपत्र देने में काफी परेशान किया, यह कहकर कि उसने 31 पैसे का कर्ज नहीं चुकाया है। क्या इससे भी ज्यादा साफ कोई उदाहरण हो सकता है यह बताने के लिए सरकारी एजेंसियाँ किसके लिए काम करती हैं?

भारत में सबसे धनी परिवारों की दौलत 2021 में रिकार्ड ऊँचाई पर पहुँच गयी। नीचे की पचास फीसद आबादी के पास देश का संपत्ति का सिर्फ 13 फीसद है, जबकि भारत के सबसे अमीर 10 व्यक्ति देश की 57 फीसद संपत्ति के मालिक हैं। सबसे धनी सिर्फ 98 भारतीयों के पास उतनी संपत्ति है जितनी नीचे के 55.2 करोड़ लोगों के पास। कोविड के कारण 84 फीसद भारतीय परिवारों की आय घटी है। लेकिन उसी 2021 की अवधि में भारत में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गयी। सौ प्रभुत्वशाली परिवारों के पास 57.3 लाख करोड़ की संपत्ति आँकी गयी (आक्सफैम रिपोर्ट, 18 जनवरी 2022)। रिपोर्ट में यह टिप्पणी की गयी है कि यह विषमता देश की व्यवस्था को खाए जा रही है। क्या यह किसी भी तरह से कहा जा सकता है कि सरकारें ‘जनता के कल्याण’ के लिए काम कर रही हैं।

आज के शासक वर्गों का यह चरित्र हो गया है कि योजनाएँ जनकल्याण के नाम पर घोषित की जाती हैं, उनके लिए निहायत नाकाफी फंड आवंटित किया जाता है, वे नाम भर के लिए चलायी जाती हैं लेकिन काफी लोकलुभावन अंदाज में उनका खूब प्रचार किया जाता है यह भ्रम खड़ा किया जाता है कि गरीबों को गरीबी के शिकंजे से बाहर निकाला जा रहा है। वास्तव में वे सरकारी मशीनरी को बड़े सामंतों तथा बड़े पूँजीपितयों को फायदा पहुँचाने के लिए चला रहे हैं। इसलिए जनता के नाम पर कितनी भी शानदार य़ोजनाएँ घोषित कर दी जाएँ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। घोषित लक्ष्य कभी हासिल नहीं होंगे। जनता की दुर्दशा में कोई कमी नहीं आएगी, अगर ये योजनाएँ इसी तरह लागू होती रहीं, जैसी आज ये लागू की जा रही हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि बहुत-से कल्याणकारी कदम और योजनाएँ काफी लंबी लड़ाई का नतीजा होते हैं। अपने हक हासिल करने के लिए लोगों के पास संघर्ष करने के सिवा और कोई चारा नहीं है। कल्याणकारी योजनाएँ बड़ी चालाकी से लोगों को भ्रमित रखने और सत्ता में बैठे लोगों के लिए उनका समर्थन हासिल करने के इरादे से बनायी जाती हैं।

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

(डॉ. एस. जतिन कुमार पेशे से आर्थोपीडिक सर्जन हैं। वह ‘आर्गेनाइजेशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स’ के मौजूदा उपाध्यक्ष हैं।)


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