स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 30वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्य में गर्मी लाने का श्रेय एक माने में अंग्रेजी साम्राज्य के सबसे बड़े समर्थक और प्रतिभाशाली वायसराय लार्ड कर्जन को दिया जा सकता है जो हिंदुस्तान में सात साल वायसराय रहा। लार्ड कर्जन कठोर साम्राज्यवादी था। अपनी जवानी में उसने पूर्व के देशों का दौरा किया था और अपनी मेहनत तथा अध्ययन से उसने अपने आपको हिंदुस्तान की समस्याओं का विशेषज्ञ बना लिया था। खास करके अंग्रेजी भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा के बारे में उसने गहरा चिंतन किया था। इसलिए अपने जमाने में पश्चिमोत्तर, उत्तर और पूर्व में भारत की सीमाओं को मजबूत बनाने के लिए उसने कई कदम उठाए थे। 1898 में जब यह वायसराय बनकर आया तो उसने निम्न शब्दों में भारत का वर्णन किया था- भारत हमारे साम्राज्य की आधारशिला है। अगर अंग्रेजी साम्राज्य से कोई दूसरा इलाका अलग हो जाए तो भी हमारा साम्राज्य जीवित रहेगा, लेकिन जिस दिन हिंदुस्तान हमारे साम्राज्य से हट जाएगा उस दिन से हमारे साम्राज्य का संध्याकाल शुरू हो जाएगा, उसका सूरज डूब जाएगा।

कर्जन का यह कहना ठीक था। लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी का भी विश्वास था कि यदि हिंदुस्तान आजाद हो जाए तो विदेशी साम्राज्यवाद के अंत की बेला आ जाएगी, उसकी मृत्यु की घंटी बजने लगेगी।

लेकिन आश्चर्य की बात है कि जिस लार्ड कर्जन ने भारत के हर प्रशासकीय क्षेत्र में नई जान डालने का प्रयास किया, नौकरशाही को झकझोरा, प्रशासन को नई गति दी, वह दो-तीन काम कुछ ऐसे कर गया जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप नवोदित राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत शिक्षित लोगों की भावनाओं को भयंकर ठेस लगी और एक जबरदस्त आंदोलन छेड़ने के लिए वे बाध्य हो गए।

कर्जन की एक बड़ी गलती तो यह रही कि कलकत्ता विश्वविद्यालय के पदवीदान समारोह के अपने भाषण में शिक्षित भारतीयों के बारे में बहुत ही अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जिसका मतलब यह था कि भारतीयों को सत्य के प्रति कोई आस्था नहीं है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के पुनर्गठन की इस योजना के पीछे बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावना को दबाने की उनकी मंशा थी। कर्जन को राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं थी। उसने तो अपने पत्रों में कहा है कि राष्ट्रीय कांग्रेस सर्वनाश की कगार पर है और मेरी यह आंतरिक इच्छा है कि मैं उसको हमेशा के लिए दफनाने के कार्य में कम-अधिक हाथ बटाऊं। विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन उसी मंशा का एक हथकंडा था।

दूसरा गलत काम जो उसने किया, वह था बंगाल का बँटवारा। उन दिनों बंगाल प्रेसीडेंसी अत्यंत विशाल थी। असम, उड़ीसा, बिहार आदि इलाके भी उसमें शामिल थे। इस फैली हुई इकाई को बनाए रखना प्रशासनिक दृष्टि से उचित नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय भावना को बिना ठेस पहुंचाए अगर बंगाल प्रेसीडेंसी का पुनर्गठन किया जाता, धीरे-धीरे उससे हिंदीभाषी बिहार, उड़ियाभाषी उत्कल प्रांत और असमीभाषी असम अलग किया जाता तो उसकी कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं होती। लेकिन इस तरह प्रशासन की सुविधा को मद्देनजर रखते हुए या भाषा की समानता और सुविधा को आधार बनाते हुए बंगाल का बंटवारा नहीं किया गया था। अंग्रेजी प्रशासकों के दिमाग में यह बात थी कि बंगाल का शिक्षित मध्यम वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन का या राजद्रोह का एक गढ़ बन गया है, अतः इस गढ़ को ध्वस्त कर बंगालियों को दो हिस्सों में बांट देने से राष्ट्रीय आंदोलन का प्रेरणास्रोत सूख जाएगा और धीरे-धीरे यह आंदोलन निष्प्राण हो जाएगा।

कर्जन के दिमाग में ये सारी बातें थीं या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन बाद में पूर्वी बंगाल का जो लेफ्टिनेंट गवर्नर (फुलर) बना, उसके दिमाग में ये बातें न सिर्फ मौजूद थीं बल्कि और एक दुष्ट मंशा भी इस बंटवारे की नीति के पीछे थी। वह मंशा यह थी कि पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक मुस्लिम बहुसंख्यक सूबा बना दया जाए और बंगाल में राष्ट्रीय भावना को छिन्न-भिन्न करने के लिए उसको हिंदू मुसलमानों के संघर्ष में परिणत कर दिया जाए।

बंगाल के बंटवारे की शिक्षित वर्ग में अत्यंत तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटिश माल का बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा के त्रिसूत्र के जरिये राष्ट्रीय आंदोलन को इतना प्रखर बना दिया गया कि गोपालकृष्ण गोखले जैसे सर्वथा उदार मतवादी और दादाभाई नौरोजी जैसे ऋषितुल्य नेताओं को भी इसका समर्थन करना पड़ा। इसी आंदोलन के दौरान लोकमान्य तिलक के अलावा विपिनचंद्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे उग्रवादी नेता भी देश भर में ख्यातनाम हो गए।

इस किस्म के राष्ट्रवादी नेता साम्राज्य के प्रति निष्ठा, सम्राट के प्रति भक्ति आदि सबको पाखण्ड मानते थे और सोचते थे कि स्वराज्य का अपना अधिकार पाने के लिए हमें सतत आंदोलन करते रहना चाहिए। अंग्रेजों द्वारा जो संवैधानिक सुधार भारत में किए जाएं उनको भारतीय लोग जरूर स्वीकारें, उनका सफलतापूर्वक इस्तेमाल भी करें, लेकिन मुख्य उद्देश्य यानी स्वराज्य की प्राप्ति को नजरअंदाज न होने दें, यह उनकी मान्यता थी। जिस तरह लोकमान्य तिलक को तीन बार जेल जाना पड़ा, उसी तरह लाला लाजपतराय को भी देश से निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने कई साल अमरीका में बिताए और वहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का खूंटा गाड़ा। लाजपतराय जी ने न सिर्फ वहां के भारतीयों का समर्थन प्राप्त किया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कई विदेशी दोस्त भी तैयार किए।


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