गांधीजी के निर्मल जीवन और साधुत्व का कई यूरोपियनों पर भी जबरदस्त प्रभाव हुआ था। उन्हीं में एक जनरल स्मट्स भी थे। दक्षिण अफ्रीका के अपने कार्यकाल में गांधीजी एक राजनिष्ठ ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक के नाते काम करते थे। सम्राट और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति गोखले आदि उदारपंथी राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की तरह उनके मन में भी असीम श्रद्धा थी। ब्रिटिश न्याय प्रणाली पर उनका विश्वास था। उन्होंने एक जगह लिखा है कि मुझे एक गोरे अधिवक्ता ने बताया था कि जहां-जहां अन्याय है उसके निराकरण के लिए कोई न कोई व्यवस्था अंग्रेजी कानून में अवश्य हैं। इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य पर दक्षिण अफ्रीका में जब भी संकट आया, चाहे बोअर युद्ध का संकट हो अथवा जुलुओं के साथ युद्ध का, अपने सारे मतभेदों और संघर्षों को ताक पर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता तन-मन-धन से गांधीजी ने की।
1914 में जब पहला महायुद्ध छिड़ गया तो गांधीजी ने अंग्रेजों का पक्ष लिया और इस लड़ाई में भी उन्हें पूरी मदद पहुंचाई। यहाँ तक कि बाद में भारत में भी उन्होंने ब्रिटिश सेना में लोगों को भरती करने के लिए अथक प्रयास किए थे। उनकी यह निष्ठा 1919 तक अडिग रही। 1917-18 में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन मांटेग्यू भारत आया था। उसने गांधीजी के बारे में अपनी ‘इंडियन डायरी’ में जो लिखा है, उससे तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासकों की गांधीजी के प्रति भावना का अनुमान हम लगा सकते हैं। मांटेग्यू लिखता है : ‘तत्पश्चात हम ख्यातनाम गांधी से मिले। वे एक सामाजिक सुधारक हैं। वे समस्याओं को ढूँढ़ते रहते हैं। उनको दूर करने का प्रयास करते हैं। यह सब वे आत्मप्रसिद्धि के लिए नहीं, बल्कि जनसाधारण की स्थिति को सुधारने के लिए करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों की समस्याओं को सुलझाने के आंदोलन में सही माने में हीरो हैं। उसके लिए उन्होंने जेल भी काटा है। फिलहाल वे नील के बगीचों में काम करनेवाले बिहारी श्रमिकों की शिकायतों का हल ढूँढ़ने में सरकार की मदद कर रहे हैं। उनका लिबास एक मामूली कुली जैसा है। व्यक्तिगत पदलिप्सा से वे मुक्त हैं। लगभग हवा पर ही जीवित रहते हैं। और कल्पनाओं में डूबे रहते हैं। योजनाओं की उन्हें तफसील में जानकारी नहीं रहती। वे इस बात के लिए उत्सुक हैं कि हिंदुस्तान हमारी तरफ झुके। इस संकट काल में ब्रिटिश सिंहासन की मदद के लिए लाखों-लाख हिंदुस्तानी दौड़े, यह उनके मन की चाह है। (मैं नहीं कह सकता कि) वे क्रांतिकारी हैं या नहीं, इंडियन सिविल सर्विस के बारे में उनके मन में घृणा की भावना है या नहीं, लेकिन मैं जितने हिंदुस्तानियों से मिला हूँ, उनमें से कोई भी ब्रिटिश सिंहासन के साथ बने रिश्ते को समाप्त नहीं करना चाहता। (पृ.58)’
गांधीजी जब भारत लौटे तो प्रारंभ में अंग्रेज प्रशासकों के साथ संबंध मधुर थे। अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि जब मैं बंबई पहुंचा तो गोखले साहब ने मुझे संदेश भेजा कि बंबई के गवर्नर मुझसे मिलना चाहते हैं। मैं गवर्नर विलिंगडन से मिला। विलिंगडन ने मुझे कहा कि जब भी सरकार के मुतल्लिक आप कोई कदम उठाना चाहें तो आप मुझसे मिलकर मुझे बता दिया करें। गांधीजी लिखते हैं कि मैंने उन्हें बता दिया कि सत्याग्रही के नाते मेरा तो यह कर्तव्य बनता ही है, जिसको मैं दक्षिण अफ्रीका में भी निभाता रहा हूँ और यहाँ भी निभाऊँगा। विलिंगडन ने जवाब दिया कि आप जब चाहें यहाँ आइए, आप देखेंगे कि सरकार जान-बूझकर कोई अन्याय नहीं कर रही है। इस पर गांधीजी ने जवाब दिया कि यह मेरा भी विश्वास है और इसी विश्वास से आगे बढ़ रहा हूँ।
उपरोक्त संवाद से गांधीजी की उस समय की मानसिक स्थिति का अच्छा परिचय मिलता है। जब हार्डिंग की जगह चेम्सफोर्ड वायसराय बने तो उनके साथ भी गांधीजी के संबंध अच्छे थे, जो कि असहयोग आंदोलन के प्रारंभ तक बने रहे। जब प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थिति पर विचार करने के लिए दिल्ली में सम्मेलन बुलाया गया तो उसमें गांधीजी को आमंत्रित किया गया था। परंतु वे उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहते थे। उन्होंने अपनी मजबूरी वायसराय को बताई। उन्होंने कहा कि जिस सम्मेलन में तिलक और एनी बेसेंट को न बुलाया गया हो, और जब अली बंधु जेल में सड़ रहे हों, उस अवस्था में मैं इस सम्मेलन की कार्यवाही में कैसे शरीक हो सकता हूँ? तब वायसराय ने गांधीजी को समझाया और उसके फलस्वरूप अंत में गांधीजी मान गए थे।
1919 में अमृतसर कांग्रेस में सेक्रेटरी मांटेग्यू के प्रति संवैधानिक सुधारों को लेकर आभार प्रदर्शन का प्रस्ताव पास करने का आग्रह करनेवाले गांधीजी आगे चलकर अंग्रेजी हुकूमत को शैतानी राज की संज्ञा देने और हर प्रकार से उस शासन से असहयोग करने की बात सोचने लगे थे। इस आश्चर्यजनक परिवर्तन की कहानी ही आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम की कहानी है। लेकिन अपने सत्याग्रह के इस महान प्रयोग का आरंभ करने से पहले चंपारण (बिहार) और खेड़ा (गुजरात) जिलों में उन्होंने सत्याग्रह साधना सफलता के साथ की। चंपारण में हुई एक असाधारण घटना का उल्लेख यहाँ करना अनुचित नहीं होगा। इससे उग्रवादियों और गांधीजी के तौर-तरीकों के बीच के फर्क के बारे में पाठक जान सकेंगे।
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