— आनंद कुमार —
यह सर्वमान्य तथ्य है कि विदेशी शासन के दौरान लोकमान्य तिलक का एक उद्घोष भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का महामंत्र सिद्ध हुआ- ‘आजादी हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे हासिल करके रहेंगे!’ इसी सूत्र को नेताजी सुभाष बोस ने अपने आह्वान से एक नए कर्मयोग में बदल दिया- ‘तुम हमें खून दो, हम तुम्हें आज़ादी देंगे!’ इसके आगे का पथ-प्रदर्शन 1942 के‘भारत छोडो आन्दोलन’ में गांधीजी के ‘करेंगे या मरेंगे!’ ने किया। यह तीनों सिखावन स्वाधीन भारत की आत्मचेतना के बुनियादी तत्त्व हैं।
हमारे संविधान में विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता को आजादी के पांच आयामों के रूप में स्थापित किया गया है।लेकिन पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी को बाकी सभी स्वतंत्रताओं की आधारशिला के रूप में महत्त्व दिया जाता है। हम अपने अनुभवों और विचारों की अभिव्यक्ति से ही समाज से सम्बन्ध और संवाद स्थापित करते हैं। बिना अभिव्यक्ति के अधिकार के समाज में सिर्फ प्रभुत्वशाली लोगों की बातें गूँजती हैं। बाकी सब ‘चुप्पी’ में जीते हैं। सत्ताधीशों का निरंकुश वर्चस्व चलता है। इसीलिए अभिव्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य पर रोक तानाशाही के लिए जरूरी और लोकतंत्र के लिए ‘जहर’ है। अभिव्यक्ति के अधिकार पर खतरा बाकी सभी नागरिक अधिकारों के लिए खतरे की घंटी होता है। दूसरे शब्दों में, अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा किसी भी स्वतंत्र देश की पहली जरूरत और नागरिक समाज की जिम्मेदारी है।
हीरक जयंती वर्ष का कर्तव्य
हरेक भारतीय के लिए यह गौरव की बात है कि हमारा देश अपनी आजादी की हीरक जयंती मना रहा है। इस मौके पर हमें इस उत्सव का हकदार बनाने के लिए चले लम्बे और कठिन स्वतंत्रता संघर्ष में अपना सब कुछ दाँव पर लगानेवाली पीढ़ियों के प्रति श्रद्धा से सर झुकाना स्वाभाविक है। यह कौन भुला सकता है कि हमारी अनेकों पीढ़ियों के हजारों स्त्री-पुरुषों ने अंग्रेजी राज के सामने निडरता से लोहा लिया। देश के हर हिस्से में देशभक्त किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, मध्यम वर्ग और विद्यार्थियों-युवजनों ने अथक संघर्ष किया। इसके बदले में देश की आजादी का सपना सच हुआ।
हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं ने एक लोकतान्त्रिक संविधान के रूप में यह संकल्प किया कि सफल स्वराज-यात्रा से पैदा अवसर का सदुपयोग समावेशी राष्ट्रनिर्माण के लिए किया जाएगा। जिससे हर भारतीय स्त्री-पुरुष को 1. न्याय– सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक; 2. स्वतंत्रता– विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की; 3. समता– प्रतिष्ठा और अवसर की हासिल हो। न्याय, स्वतंत्रता और समता की त्रिवेणी के संगम से (क) व्यक्ति की गरिमा, (ख) राष्ट्र की एकता और अखंडता और (ग) परस्पर बंधुत्व सुनिश्चित किया जाएगा। यह घोषणा संविधान की उद्देशिका में दो-टूक तरीके से अंकित है। इसलिए हीरक जयंती वर्ष में यह स्वाभाविक है कि हम राष्ट्रनिर्माण की यात्रा में आजादी, न्याय और समता से जुड़े तथ्यों की जाँच करें।
अभिव्यक्ति की आजादी की बदलती तस्वीर
इस प्रसंग में अभिव्यक्ति की आजादी की बदलती तस्वीर की चर्चा सबसे जरूरी है। क्योंकि इस अधिकार के लिए सबसे अधिक संघर्ष करना पडा था। तिलक, एनी बेसेंट, गांधी से लेकर सरोजिनी नायडू, विनोबा भावे, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश और लोहिया जैसे हजारों भारतीय नायक-नायिकाओं पर अनगिनत मुकदमे चले। सजाएँ हुईं। भारत की संविधान सभा में भी इसके बारे में तीन दिन विचार-विमर्श हुआ और सर्वसम्मति से अभिव्यक्ति के अधिकार को धारा 19 के जरिये प्रतिष्ठित किया गया। विचार और अभिव्यक्ति की आजादी के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। इसमें 1. प्रेस की आजादी, 2. विज्ञापन का अधिकार, 3. प्रसारण का अधिकार, 4. सूचना का अधिकार, 5. आलोचना का अधिकार, और 6. न बोलने का अधिकार उल्लेखनीय हैं।
हमारे संविधान में, बाकी लोकतान्त्रिक देशों की तरह, इस स्वतंत्रता को मर्यादित भी किया गया है जिससे राज्य की सुरक्षा, अन्य देशों से मैत्री-सम्बन्ध, कानून-व्यवस्था सुसंचालन, न्यायालय का सम्मान, किसी भी व्यक्ति की मानहानि, अपराधों के लिए उकसावा, देश की एकता और संप्रभुता से संबंधित प्रसंगों में इस अधिकार का दुरुपयोग न किया जाए। इसके लिए अंग्रेजी राज से चले आ रहे राजद्रोह कानून (दफा 124-ए ) और आजादी के बाद 1980 में पारित राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एन.एस.ए.) और गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून (1967), (2008) (यू.ए.पी.ए.) के अंतर्गत कठोर कार्रवाई का प्रावधान रखा गया है।
इस समय यह आम जिज्ञासा का विषय है कि क्या आजादी के 25 साल बाद के ‘इमरजेंसी राज’ (1975-77) और आज के हालात में कई चिंताज़नक समानताएं नहीं हैं ? क्या आपातकाल में अभिव्यक्ति के अधिकार पर जो भय और खतरा छाया था उसकी तुलना में आज स्वतंत्रता की हीरक जयंती के समय भय और खतरे कम हैं? तब अखबारों पर सेंसरशिप की आचार-संहिता थी और आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सरकार का नियंत्रण था। आज तो लोभ और भय से समूचा सरकारी और गैर-सरकारी मीडिया सरकार की लगाम में ‘गोदी मीडिया’ हो गया है और सोशल मीडिया पर ‘ट्रोल-आर्मी’ की दबंगई है।
तब ‘देश में अराकता फैलाने की आशंका’ का आरोप था और आज सीधे देशद्रोह का आरोप है। तब सिर्फ सरकारी मशीनरी का निरंकुश इस्तेमाल था जबकि आज एक पूरी सांप्रदायिक जमात प्रशासन का दुरुपयोग करके असहमत लोगों के विरुद्ध ‘देश’ और ‘धर्म’ के नाम पर निडरता के साथ हिंसक हरकतों पर आमादा है। तब एक न्यायाधीश को वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की आलोचना हुई थी आज तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही संसद सदस्य बना दिया गया। तब सेना के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई थी लेकिन आज समूचे सैन्यबल को‘मोदी जी की सेना’ कहा जाने लगा है और सैनिक साजो-सामान की खरीद में सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय का नियंत्रण है। तब केन्द्रीय मंत्रियों ने प्रधानमंत्री और उनके पुत्र की चापलूसी ही की जबकि आज के मंत्री खुलेआम भड़काऊ नारे लगवा रहे हैं- ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो … को!’
सत्ता-प्रतिष्ठान का दृष्टिकोण
इन सवालों पर सत्ता-प्रतिष्ठान समर्थक याद दिलाते हैं कि तब संविधान की धारा 352 के तहत राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की निजी सिफारिश पर आपातकाल की घोषणा की थी। धारा 19 के अंतर्गत संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आज़ादी समेत सभी नागरिक अधिकारों पर रोक लगा दी गयी थी। इससे संविधान की धारा 14, 21 और 22 भी प्रभावहीन हो गयी थीं। लेकिन आज तो सरकार की तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है। तब सैकड़ों गरीब बस्तियाँ प्रधानमंत्री के बेटे के शौक के लिए सुन्दरीकरण के नाम पर उजाड़ी गयीं जबकि आज तो असामाजिक तत्त्वों की अवैध इमारतों पर बुल्डोजर के बहाने संपत्ति को वापस सरकार के नियंत्रण में लाया गया है।
तब प्रेस पर सेंसरशिप लागू करके अखबारों-पत्रिकाओं को सीधे सरकारी बाबुओं के नियंत्रण में धकेल दिया गया था। आज सेंसरशिप कहाँ है? तब भी न्यायाधीशों का तबादला हुआ करता था और आज भी होता है। तब पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं समेत सरकार के हजारों आलोचकों को ‘मीसा’ और ‘भारत रक्षा अधिनियम’ के अंतर्गत बिना आरोपपत्र और मुकदमे के जेलों में कैद कर दिया गया था। इससे सर्वोच्च न्यायालय समेत पूरा न्यायतंत्र नागरिकों के साथ होनेवाले निरंकुश व्यवहार में हस्तक्षेप करने में अक्षम हो गया था। आज ऐसा नहीं है।
तब लोकसभा के ही चुनाव दो बार टाल दिए गए। आज की सरकार सभी चुनावों को समय अनुसार करा रही है। तब केंद्र से लेकर प्रदेशों तक, गुजरात और तमिलनाडु को छोड़कर, इंदिरा कांग्रेस सत्तारूढ़ थी। आज केंद्र में एक गठबंधन सरकार है और उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर 12 प्रमुख प्रदेश– केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और दिल्ली- गैर-भाजपा दलों की सरकारों के अंतर्गत हैं।
सवालों के जवाब कहाँ हैं?
लेकिन तमाम स्पष्टीकरण के बावजूद सवाल बढ़ते जा रहे हैं- सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना को क्यों ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताया जाता है? प्रशासनिक स्तर पर किये गए निर्णयों के विरोध को ‘विदेशी ताकतों द्वारा प्रेरित’ का आरोप फैलाने का क्या आधार है? मानव अधिकार उल्लंघन की घटनाओं के विरोधियों को ‘अर्बन नक्सल’ बताकर अनिश्चित काल के लिए गिरफ्तार रखना ही कैसे सरकारी समाधान बन गया है? क्यों सरकार से असहमत नागरिक संगठनो को विभिन्न सरकारी जाँच संस्थाओं के आतंक का सामना करना पड़ता है? उनको आर्थिक मदद देनेवालों को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। इसमें नागरिक रजिस्टर बनाने के फैसले, नागरिकता (संशोधन) की प्रस्तुति और किसानों की समस्याओं से जुड़े तीन कानूनों को लगभग जबरदस्ती पारित कराने से पैदा जन-असंतोष और सरकार-विरोधी आन्दोलनों के दौरान कई आपत्तिजनक कार्रवाइयों के उदाहरण देश-दुनिया में चिंता का कारण सिद्ध हुए हैं।
शासन के सर्वोच्च स्तरों पर आसीन लोगों ने अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल करनेवालों को ‘आन्दोलनजीवी’, ‘देश-विरोधी’, और विदेशी ताकतों के षड्यंत्रों में मददगार बताकर समाज के सरोकारी लोगों को उकसाने की कोशिश की है। इस तरह की कार्रवाई में मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और जनरल विपिन रावत के बयानों ने आग में घी का काम किया है। लोकतंत्र-यात्रा के आगे बढ़ने में अवरोध आ गए हैं। भारत दुनिया के देशों में ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ के साथ ही ‘तेजी से बिगड़ रहे लोकतंत्र’ का सबसे बड़ा उदाहरण हो गया है।
(जारी)