यह चिंतनीय है कि मनुष्य के विचार पर राष्ट्रहित, वर्गहित, विभागीय तथा पारिवारिक हित का कितना गहरा असर पड़ता है। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में शीर्षस्थ हिंदुस्तानी नेता और अर्थशास्त्री जहाँ खुले, निर्बंध अंतरराष्ट्रीय व्यापार, अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा, तथा वैश्विक श्रम विभाजन पर आधारित अर्थनीति का तीव्र विरोध करते थे, वहाँ आंतरिक आर्थिक व्यवहार के बारे में उनका रुख बहुत ही संदिग्ध था। जमीन का क्रय-विक्रय, पीढ़ी-दर-पीढ़ी से काश्त में लगे किसानों से जमीनों का छीना जाना, कर्जे की वसूलियों के लिए जमीनों का जब्त करना आदि पर सख्त प्रतिबंध लगाने की माँग खुद अंग्रेज पदाधिकारी करते थे। स्पष्ट ही इसके पीछे उनका उद्देश्य रैयत को राहत पहुँचाना था। 1979 में बंबई-महाराष्ट्र की रैयत के लिए इसी तरह का एक कानून बना दिया था। इस संबंध में हिंदुस्तान सरकार द्वारा अपनाए गए मध्यम मार्ग की सराहना करते हुए रानाडे ने लिखा था :
“मुल्क इस समय संधिकाल से गुजर रहा है। लड़ाई, उपद्रव और अस्थिरता को पीछे छोड़कर अमन-चैन के युग में प्रवेश कर चुका है। अर्धसामंती और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से व्यापारिक व्यवस्था- वस्तु-विनिमय से मुद्राविनिमय- की दिशा में हम बढ़ रहे हैं। परंपरागत रस्म-रिवाजों की जगह पर स्पर्धा प्रतिष्ठित हो रही है, सरल सामाजिक संबंधों से हम जटिल सामाजिक संबंधों की ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी आर्थिक विधि (कानून) प्रवाह से विपरीत जाकर सफल नहीं होगी, इस तेज लहर को रोक नहीं पाएगी। हरेक देश में जायदाद, चाहे जमीन के रूप में या अन्य रूप में, उन्हीं वर्गों के हाथ में चली जाती है जिनके पास बुद्धि, दूरदृष्टि और मितव्ययिता है। जो अज्ञानी, फिजूलखर्ची करनेवाला है, उसके पास संपत्ति या जायदाद नहीं रह सकती है। राजनैतिक संकल्पना और भावावेग की खातिर इस बात को भुला देना व्यावहारिक राजनीतिज्ञ के लिए बुद्धिमानी का काम नहीं होगा। जब तक विभिन्न श्रेणियों की आदतें, शिक्षा का स्तर और बचत की प्रवृत्ति भिन्न रहेगी, जब तक बहुसंख्यक काश्तकार और लड़ाकू वर्गों के लोग अतिव्यय करते रहेंगे, तब तक संपत्ति इन वर्गों के हाथ से बनिया और ब्राह्मण श्रेणियों के हाथ जाती रहेगी। प्रतिबंधक कानून मात्र से कुछ नहीं होगा। अधिक-से-अधिक सरकार संपत्ति के हस्तांतरण को नियमित कर सकती है जिससे तात्कालिक तकलीफों को दूर किया जा सके।” (भारतीय अर्थशास्त्र पर निबंध, पृ.314)
क्या यह विचारधारा स्पष्टतः स्पर्धा पर आधारित पूँजीवादी विचारधारा नहीं है? अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में उन्हें स्पर्धा पसंद नहीं थी, मगर आंतरिक वर्ग जातियों के बीच संबंधों में स्पर्धा को वे अटल नियति समझते थे।
जन प्रतिनिधियों के वेतन का सरल प्रश्न भी वर्गीय दृष्टिकोण से प्रभावित होता था, यहाँ भी और इंग्लैण्ड में भी।
इंग्लैण्ड के चार्टिस्ट आंदोलन में बालिग मताधिकार के साथ-साथ इस माँग पर भी जोर दिया गया था कि पार्लियामेंट में चुने हुए जन प्रतिनिधियों को वेतन मिलना चाहिए। इसके पीछे चार्टिस्ट जन आंदोलन के प्रवर्तकों की यह मंशा थी कि जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, जो मजदूरी आदि पर निर्वाह करते हैं, ऐसे लोग भी जनता के प्रतिनिधि के रूप में पार्लियामेंट में जाकर कार्य कर सकें। अगर उनके लिए वेतन की व्यवस्था नहीं होगी तो ऐसे लोगों का जन-प्रतिनिधि बनना असंभव हो जाएगा, बल्कि सिर्फ धनवान अथवा खाते-पीते लोग ही पार्लियामेंट (हिंदुस्तान में कौंसिलों) में जा सकेंगे।
यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रातिनिधिक संस्थाओं के विस्तार की माँग की थी, उसके साथ-ही-साथ इस बात पर भी जोर दिया था कि सदस्यों को कोई वेतन आदि न दिया जाए। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता नहीं चाहते थे कि गरीब और आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोग इन कौंसिलों में देश का प्रतिनिधित्व करें। कांग्रेस और उसके संस्थापकों का वर्गचरित्र उपरोक्त बातों से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है।
सन् 1890 में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, उसमें भारत की सुधरी हुई वित्तीय स्थिति का उल्लेख करते हुए यह माँग की गयी कि नमक पर जो टैक्स बढ़ाया गया है, उस वृद्धि को अब समाप्त किया जाए। साथ-ही-साथ स्थायी लगान प्रबंध का विस्तार करने की माँग को भी इस अधिवेशन में दोहराया गया। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि नमक कर वृद्धि का कांग्रेस द्वारा बार-बार विरोध किया गया और यही विरोध आगे जाकर गांधीजी की दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह के आधार के रूप में सामने आया।
1891 में नागपुर में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, वह एक माने में उल्लेखनीय है। इस अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में हिंदुस्तान की हर साल बढ़ रही जनसंख्या (जो उस समय लगभग 25 करोड़ थी) का उल्लेख करते हुए जनता के भुखमरी का शिकार होने की तरफ ध्यान दिया गया था। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि प्रतिवर्ष लाखों-लाख भूख की बलिवेदी पर चढ़ रहे हैं। इस स्थिति का कारण यह बतलाया गया कि भारत में लोगों की प्रशासन में उचित हिस्सेदारी नहीं है जिसके कारण सरकारी नीतियों तथा योजनाओं पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। इस प्रस्ताव में इस बात की ओर इंगित किया गया था कि भारत में अंग्रेज सरकार का सैनिक और गैर-सैनिक प्रशासन अत्यंत खर्चीला है, फौजी प्रशासन तो विशेष रूप से। प्रस्ताव का कहना था कि मुल्क में जो लगान व्यवस्था है उसके चलते कृषि सुधार की संभावनाएं (जिस पर देश के 9/10 लोग निर्भर हैं) समाप्त हो रही हैं। इतना ही नहीं, कृषि की हालत भी दिन-प्रतिदिन बिगड़ती चली जा रही है। प्रस्ताव में आगे कहा गया था कि सरकार द्वारा सीमा सुरक्षा के नाम पर अनेक वर्षों से व्यर्थ का खर्च किया जा रहा है तथा विभिन्न सैन्य विभागों में किसी तरह की मितव्ययिता नहीं बरती जा रही है। प्रस्ताव में कहा गया था कि कृषि विकास में पूंजी और श्रम के संयोग के लिए जरूरी है कि हर दस-बारह वर्ष के बाद लगान बढ़ाने की प्रणाली को समाप्त कर लगान को स्थायी बना दिया जाए और साथ-ही-साथ काश्तकारों की मदद के लिए कृषि बैंकों का निर्माण किया जाए।
नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन को एक अंग्रेज अधिकारी जनरल बूथ ने अपना एक संदेश भेजा था। इस संदेश से जो ध्वनि निकली है, वह गौर करने लायक है। अपने संदेश में जनरल बूथ ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि आज हिंदुस्तान में बड़ी संख्या में जो बिल्कुल कंगाल लोग हैं, उनको संगठन और मैत्री के आधार पर एकत्र किया जाए और मुल्क में जो बंजर जमीनें हैं, उन पर इनको बसाया जाए, इस तरह ये लोग अपनी जीविका के पालन का जरिया पा सकेंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जनरल बूथ के उपरोक्त सुझाव पर जो निर्णय लिया गया, उसमें यह कहा गया कि मुल्क में जो पांच-छह करोड़ अधभूखे हैं उनकी जीविका की समस्या बंजर जमीनों पर उन्हें बसाने से हल नहीं की जा सकती, बल्कि इसका इलाज यही है कि देश में जो विषम आर्थिक स्थितियाँ हैं, उनको बदला जाए, उनमें परिवर्तन किया जाए।
यह बात सही है कि जनरल बूथ का प्रस्ताव मान लेने मात्र से भारत की गरीबी का निराकरण नहीं हो सकता था लेकिन उन दिनों बंजर जमीन का क्षेत्र कृषियोग्य जमीन की बनिस्बत कम नहीं था और यदि जनरल बूथ के प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाया जाता तो कृषि उत्पादन में निश्चित रूप से इजाफा हो सकता था, परंतु उस समय के भद्र नेतृत्व को क्या कहा जाए, जो इस तरह के ‘अभद्र’ काम कर भूखों को मदद पहुंचाने के लिए मानसिक दृष्टि से तैयार नहीं था। गरीबों के प्रति कुछ हमदर्दी भरा रवैया यदि प्रारंभिक अधिवेशन में कहीं दर्शाया जाता था तो उसका श्रेय दादाभाई नौरोजी को ही दिया जा सकता है। उन दिनों ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’(गरीबी और भारत में अंग्रेजों के अपने सिद्धांतों के विपरीत राज) नामक उनकी किताब काफी ख्याति पा चुकी थी जिसमें उन्होंने यह सिद्ध किया था कि भारत में अंग्रेज अपने ही द्वारा निरूपित सिद्धांतों के विपरीत आचरण करते हुए शासन कर रहे हैं।