हे राम से जय श्रीराम तक

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— विमल कुमार —

भारतीय लोकतंत्र की यात्रा क्या ‘हे राम से जय श्रीराम’ तक की यात्रा है?

आजादी के 75 साल बाद अगर भारतीय इतिहास का सही आकलन किया जाए तो शायद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय लोकतंत्र की यात्रा दरअसल ‘हे राम से जय श्रीराम’ तक की यात्रा है। ‘हे राम’ और ‘जय श्रीराम’ दो ऐसे पद हैं जिनसे आजादी के बाद भारत के इतिहास का सही विश्लेषण किया जा सकता है। आखिर ‘हे राम’ की पदावली कैसे कालांतर में समाज में ‘जय श्रीराम’ की पदावली बन गयी?

30 जनवरी 1948 को जब आरएसएस से जुड़े नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सीने में तीन गोलियां दागी थीं तो उस घटना के बाद से लेकर आज 21वीं सदी के दो दशक बीतने तक भारतीय समाज और राजनीति में जो बदलाव आया उसे उपर्युक्त पदावली के माध्यम से समझा जा सकता है। यह दो पद भारतीय समाज और राजनीति के दो प्रस्थान बिंदु हैं जहां से भारत में पिछले सात दशकों में हुए बदलाव को रेखांकित भी किया जा सकता है।

प्रसिद्ध पत्रकार एवं ‘इंडिया रिपब्लिक’ के संपादक आनंद वर्धन सिंह की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक हे राम टु जय श्रीराम इस बदलाव को दर्ज करती है। दरअसल इस पुस्तक में आनंद वर्धन सिंह ने 75 सालों की ऐसी बीस घटनाओं को रेखांकित किया है जिसके माध्यम से भारतीय लोकतंत्र के विकास और इतिहास की पड़ताल की गयी है और उसे समझने का प्रयास किया गया है। आखिर वे कौन सी घटनाएं हैं जो देश के इतिहास में आज भी मायने रखती हैं और उनके बिना आजादी के बाद का भारत का इतिहास अधूरा है?

आनंद वर्धन सिंह

इस पुस्तक की एक संक्षिप्त भूमिका पूर्व केंद्रीय मंत्री और अंग्रेजी के लेखक शशि थरूर ने लिखी है तो उससे अपेक्षाकृत लंबी भूमिका सतीश झा ने लिखी है जो कभी दिनमान और जनसत्ता के संपादक रह चुके हैं। इस पुस्तक के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार और पत्रकार राजमोहन गांधी, प्रसिद्ध समाज विज्ञानी आनंद कुमार तथा प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय ने सम्मतियाँ व्यक्त की हैं।

394 पेज की इस किताब में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शहादत की घटना, संविधान सभा का गठन और संविधान के क्रियान्वन, भारत चीन युद्ध और देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के देहावसान, जय जवान जय किसान यानी 1965 के भारत-पाक युद्ध और लालबहादुर शास्त्री का निधन, 1971 का बांग्लादेश युद्ध , आपातकाल का काला अध्याय, संपूर्ण क्रांति का दौर और जनता पार्टी का विघटन, 1982 में वर्ल्ड कप क्रिकेट में भारत की जीत, ऑपरेशन ब्लू स्टार और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे, मंडल आयोग और विश्वनाथ प्रताप सिंह का उत्थान तथा पतन, नरसिंह राव का उदय और स्टॉक मार्केट के घोटाले, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, पोखरण-द्वितीय, गोधरा कांड-गुजरात के दंगे, मनरेगा, यूपीए की सरकार और अन्ना हजारे का आंदोलन तथा आम आदमी पार्टी का उदय, 2014 में मोदी का केंद्र की सत्ता में आगमन, 2016 में नोटबंदी की घटना और 2019 में मोदी- शाह की वापसी, 2020 में राम मंदिर का निर्माण, ऐसी प्रमुख घटनाएं हैं जिनके इर्दगिर्द भारतीय राजनीति घूमती रही और इन घटनाओं के बिना देश का इतिहास बनता नहीं।

लेखक ने इस पुस्तक में इन घटनाओं को एक संकलनकर्ता के रूप में ही दर्ज किया है लेकिन कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं को छोड़ भी दिया है या उस पर उतना बल नहीं दिया है जितना उन्हें बल देना चाहिए था। आखिर इन 75 सालों में तेलंगाना किसान विद्रोह और महेंद्र सिंह टिकैत का किसान आंदोलन तथा नक्सलबाड़ी आंदोलन जैसी महत्त्वपूर्ण घटनाएं भी हुईं जिन्हें अनदेखा किया गया है।

पुस्तक में सबसे गैरवाजिब इंदराज क्रिकेट वर्ल्ड कप जीतने की है जिसे एक प्रमुख घटना के रूप में पेश किया गया है जबकि उस जीत का केवल तात्कालिक असर हुआ था। उसके बाद खेल की दुनिया में कई ऐसी घटनाएं घटीं जिसे देखते हुए वर्ल्ड कप की वह जीत अब महत्त्वपूर्ण नहीं रही। अगर वह महत्त्वपूर्ण घटना थी तब 1975 में हॉकी वर्ल्ड कप में भारत की जीत क्यों महत्त्वपूर्ण नहीं?

इस पुस्तक में अगर पोखरण-2 को एक महत्त्वपूर्ण अध्याय माना गया है तो पोखरण-1 क्यों नहीं, क्योंकि उसके बिना तो पोखरण-2 संभव नहीं था।

पोखरण की घटना ने देश के रक्षा इतिहास में भले ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हो लेकिन जनजीवन पर उसका कोई असर नहीं हुआ। आनंद वर्धन सिंह ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के उदय और बोफोर्स कांड की चर्चा तो की है लेकिन मंडल कमीशन पर अधिक रोशनी नहीं डाली है जबकि मंडल कमीशन आज की राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है ।

इसी तरह कांशीराम और मायावती का उदय भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है जिसका जिक्र लेखक ने एक महत्त्वपूर्ण घटना या अध्याय के रूप में नहीं किया है। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के मद्देनजर राजीव गांधी का जिक्र करते हुए शाहबानो के मामले पर लेखक ने ध्यान केंद्रित नहीं किया जबकि उस घटना ने छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया और वह घटना मंदिर-मस्जिद विवाद की एक पूर्व पीठिका के तौर पर भी काम करती रही।

इस पुस्तक में आदिवासियों, दलितों, समाज के अन्य वंचित वर्गों और अल्पसंख्यक समाज के भीतर हुए बदलाव की पर्याप्त चर्चा नहीं है पर यह किताब 75 साल के इतिहास की एक रूपरेखा और एक विहंगम दृष्टि जरूर पेश करती है। अलबत्ता एक समाज विज्ञानी के रूप में इन घटनाओं के कारकों का भी विश्लेषण किये जाने की जरूरत है। दरअसल यह किताब एक पत्रकार की दृष्टि से लिखी गयी है पर देश की आत्मा को पहचानने का प्रयास किया गया है। किस तरह साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी ताकतों ने संविधान की भावना और मूल्यों पर कुठाराघात किया है इसकी पड़ताल करते हुए लेखक को भारत में फासिज्म के उदय की भी चर्चा एक अध्याय के रूप में करनी चाहिए थी। पर युवा वर्ग को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए क्योंकि उन्हें 75 साल के इतिहास का एक जायजा मिल जाएगा और यह समझने में मदद मिलेगी कि हमने कहां से सफर शुरू किया था और हम आज कहाँ पहुंचे हैं।

“हे राम” से “जय श्रीराम” की यात्रा इस किताब में बहुत कुछ कह देती है।

किताब : Hey Ram to Jai Shri Ram
लेखक : आनंद वर्धन सिंह
प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
4697/3, 21 ए, अंजरी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली
मूल्य : 495 रु.

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