स्त्रियों की एक समग्र पत्रिका का नया सफर

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— पारुल हर्ष बंसल —

हिंदी की दुनिया में आज जितनी साहित्यिक पत्रिकाएं   निकलती हैं वे सब पुरुष संपादकों द्वारा निकलती हैं, चाहे ‘हंस’ हो या ‘तद्भव’ हो, ‘नया ज्ञानोदय’ या ‘लमही’, वागर्थ’ या ‘कथादेश’ या ‘पाखी’; शायद ही कोई पत्रिका अब ऐसी हो जो स्त्रियों द्वारा संपादित की जा रही हो। लेकिन अब करीब 93 वर्ष के बाद एक ऐसी पत्रिका सामने आई है जो पूरी तरह स्त्रियों की टीम द्वारा संपादित की जा रही है। यह अलग बात है इस पत्रिका के पार्श्व में एक पुरुष  शलेखक का सहयोग है।

इस पत्रिका का नाम स्त्री दर्पण है। यह पहली पत्रिका है जिसे अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त गीतांजलि श्री पर  केंद्रित किया गया है। यूॅं तो ‘वर्तमान साहित्य’ का जुलाई अंक भी गीतांजलि जी पर आनेवाला है और ‘पाखी’ पत्रिका ने अपना आवरण गीतांजलि जी पर केंद्रित  किया है, लेकिन 1 जुलाई की शाम लोकार्पित स्त्री दर्पण के अंक में काफी पठनीय सामग्री है। इसमें प्रख्यात कवि, आलोचक एवं संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी का एक इंटरव्यू भी है जिसमें उन्होंने बताया है कि किस तरह गीतांजलि ने ‘रेत समाधि’ में हिंदी उपन्यास के ढांचे को तोड़ा है और हिंदी को वैश्विक पहचान दिलाई है।

इसके अलावा चर्चित कथाकार प्रत्यक्षा, उपन्यासकार कहानीकार सपना सिंह, आलोचक हर्ष बाला शर्मा और युवा कवयित्री विपिन चौधरी के महत्त्वपूर्ण लेख ‘रेत समाधि’ पर हैं, जिसमें इस उपन्यास को भारत पाक विभाजन की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कथा, एक स्त्री की जीवन कथा की फंतासी के रूप में पेश किया गया है। इस पत्रिका में चरम सुख को लेकर सोशल मीडिया में उठे विवाद पर भी तीन लेख प्रकाशित हैं। जिनमें  पहला लेख वरिष्ठ पत्रकार, कवयित्री प्रगति सक्सेना का शामिल है तो दूसरा आलेख हिंदी के वरिष्ठ कवि फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज और तीसरी टिप्पणी युवा कथाकार अणुशक्ति सिंह की है। इसमें चरम सुख की समस्या पर गंभीर विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा रंगकर्म में स्त्रियों पर प्रसिद्ध नाटककार राजेश कुमार का महत्त्वपूर्ण और विस्तृत आलेख शामिल है। साथ ही महान गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर  शास्त्रीय गायिका मीनाक्षी प्रसाद ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है।

कविता स्तम्भ में वरिष्ठ कवयित्री तेजी ग्रोवर की कुछ बहुत ही सुंदर कविताएं दी गयी हैं तथा नई प्रतिभाओं में नेहा अपराजिता की कविता बरबस ध्यान खींचती है। मृदुला गर्ग के लेखन पर शोधार्थी तुल्या कुमारी ने एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा है तो स्त्रियों की आत्मकथा पर संगीता मौर्य का एक लंबा लेख है। पुस्तक समीक्षा में सविता सिंह के कविता संग्रह पर सुजाता और मधु कांकरिया के उपन्यास पर उर्मिला शिरीष की समीक्षा है।

कुल मिलाकर यह पत्रिका स्त्रियों के सामाजिक और साहित्यिक सरोकार को केंद्र में रखती है और बताती है कि सृजन की दुनिया में स्त्रियां किस तरह सक्रिय हैं और नया क्या कुछ कर रही हैं। लेकिन मुख्यधारा की साहित्यिक पत्रकारिता में स्त्रियों को इतनी जगह नहीं दी जा रही है जिसके कारण स्त्रियों ने अपना एक अलग मंच विकसित किया है। अपनी वेबसाइट भी बनाई है और अब एक पत्रिका भी निकाली है। इस पत्रिका का एक ऐतिहासिक महत्त्व है क्योंकि 1909 में इसकी शुरुआत हुई थी और इसकी संपादक रामेश्वरी नेहरू जैसी तेजस्वी महिला थीं, जो मोतीलाल नेहरू के चचेरे भाई ब्रजलाल नेहरू की बहू थीं और उन्होंने 20 साल तक इस पत्रिका को निकाला। वह भी स्त्रियों द्वारा ही निकाली गई थी।

इस दृष्टि से देखा जाए तो शुक्रिया की शाम हुआ लोकार्पण उसी परंपरा का निर्वहन करता है और बताता है कि इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियां हिंदी सत्ता को चुनौती दे रही हैं। यूँ तो  मुख्यधारा में अब काफी स्त्रियाॅं सामने आ रही हैं और उच्च पदों पर आसीन हैं लेकिन वे भी पितृसत्ता की डोर से बॅंधी हैं।अभी सत्ता संरचना टूटेगी और औरों को अपनी बात कहने की पूरी आजादी मिलेगी क्योंकि जब स्त्रियां अपनी यौनिकता की बात करती हैं तो समाज में हंगामा खड़ा हो जाता है। स्त्रियां गर्भपात, बलात्कार, यौन शोषण और ‘मी टू’ पर जब मुॅंह  खोलती हैं तो पुरुषों को इस पर गहरी आपत्ति होती है और मुख्यधारा का मीडिया स्त्रियों के इस पक्ष को संवेदनशीलता के साथ नहीं रखता है बल्कि वह स्त्रियों के मसले को  सनसनीखेज ढंग से  पेश करता है और उसे बेचने की कोशिश करता है।

लेकिन स्त्री दर्पण का प्रयास ऐसे मुद्दों को गंभीरता से उठाने का रहेगा और आनेवाले दिनों में स्त्रियों से जुड़े तमाम पहलुओं पर यहां गंभीर विचार-विमर्श होगा। इस अंक में कुछ कमियां दिखाई देती हैं। कई जगह गलतियां हैं और नुक्ते का इस्तेमाल नहीं किया गया है। लगता है पत्रिका थोड़ी हड़बड़ी में निकाली गई है लेकिन उम्मीद है कि पत्रिका आनेवाले दिनों में अपने तेवर और धार को और अधिक तेज करेगी क्योंकि इसके लोकार्पण समारोह में सुधा अरोड़ा तथा सुधा सिंह ने  इस पत्रिका की धार और दिशा को सही करने की सलाह दी थी और उम्मीद जताई कि ये पत्रिका भटकेगी नहीं और सभी की कसौटी पर भविष्य में खरी उतरेगी।

1 जुलाई 2022 का दिन हिंदी पत्रकारिता के लिए विशेषकर स्त्री पत्रकारिता के लिए एक बड़ा ऐतिहासिक दिन था क्योंकि 93 साल बाद नई “स्त्री दर्पण” पत्रिका को शुरू किया गया।1909 से लेकर 1929 तक 20 सालों तक यह इलाहाबाद से  निर्बाध रूप से निकली थी। जिस तरह आजादी की लड़ाई में गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’, महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’ और महादेव प्रसाद सेठ के ‘मतवाला’ तथा प्रेमचंद की ‘हंस’ पत्रिका ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई, कुछ वैसी ही भूमिका ‘स्त्री दर्पण’ ने भी निभाई थी लेकिन इतिहासकारों ने उसके महत योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया।

लोकार्पण समारोह में मृदुला गर्ग ने भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति और पितृसत्ता का हवाला देते हुए सत्तर के दशक में अपने चर्चित उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ लिखे जाने पर अश्लीलता के आरोप में गिरफ्तारी का भी जिक्र किया और कहा कि आज भी भारतीय समाज में स्थिति बदली नहीं है। उन्होंने कहा कि जब स्त्री अपनी यौनिकता और स्वतंत्रता की बात करती है तो पुरुषों में खलबली मच जाती हैं और वे विरोध करने लगते हैं।दरअसल वे स्त्रियों को नियंत्रित करना चाहते हैं उनपर अधिकार जमाना चाहते हैं।

75 वर्षीय लेखिका सुधा अरोड़ा ने कहा कि स्त्रियों ने हमेशा सत्ता का विरोध किया है और आज भी हमें प्रतिरोध करने की जरूरत है और साहित्य में सत्ता के चाटुकार लोगों की जगह नहीं होनी चाहिए। उन्होंने राजेन्द्र यादव की पत्रिका हंस का जिक्र करते हुए कहा कि वह पत्रिका बीच में भटक गई थी और हंस की जगह ‘हंसिनी’ हो गयी थी। उम्मीद है कि ‘स्त्री दर्पण’ नहीं भटकेगा और विरोध का तेवर बनाये रखेगा।

प्रोफेसर सुधा सिंह ने भी कहा कि इतिहास में स्त्रियों को उचित स्थान नहीं मिला और पितृसत्ता ने उनके नाम दर्ज नहीं किये जिससे वे ओझल हो गईं। उन्होंने स्त्री विमर्श में भाषा के सही इस्तेमाल पर जोर दिया और कहा कि कई बार स्त्री विमर्श करनेवाली स्त्रियों की भाषा और मानसिकता भी पुरुषवादी  होती है। इसलिए हमें सचेत रहने की जरूरत है और स्त्रियों की सोच का समर्थन करनेवाले पुरुषों को भी साथ लेकर चलने की जरूरत है।

संपादक सविता सिंह ने कहा कि स्त्री दर्पण पत्रिका के यथोचित योगदान का मूल्यांकन नहीं हुआ जबकि इस पत्रिका ने वैसी ही भूमिका निभाई जैसी भूमिका महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’,  गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’, प्रेमचन्द के ‘हंस’ और महादेव प्रसाद सेठ के ‘मतवाला’ ने निभाई। उन्होंने कहा कि पहले भी स्त्रियों ने इसे निकाला और आज भी स्त्रियां ही इसे निकाल रही हैं, यह बड़ी बात है।

उन्होंने बताया कि करीब दो वर्ष पूर्व महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर फेसबुक ग्रुप का गठन हुआ था और देखते -देखते डेढ़ वर्षों में इसके सदस्यों की संख्या 10,000 से अधिक हो गई और अब दुनिया के 54 देशों और भारत के सौ शहरों में ‘स्त्री दर्पण’ को देखा और पढ़ा जा रहा है। इसकी सफलता को देखते हुए हम लोगों ने इस नाम से वेबसाइट निर्माण किया। आप इंग्लिश में स्त्री दर्पण टाइप करें, आपको वेबसाइट दिख जाएगी। अब तक उस पर 1,000 से अधिक प्रविष्टियां दर्ज की गई हैं और करीब सवा सौ लेखिकाओं के पेज बन गए हैं तथा 80 वीडियो भी पोस्ट किए गए हैं और यूट्यूब निर्माण किया गया है। अब तीसरे चरण में हमने एक पत्रिका निकाली है। हमने यह  पत्रिका बहुत कम समय में निकाली है। 26 मई को गीतांजलि श्री को अंतरराष्ट्रीय बुकर अवार्ड मिलने की घोषणा हुई और इसके एक माह के भीतर ही हमने इस पत्रिका का पहला अंक आपके सामने पेश कर दिया है।

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