जंगल-डायरी
एक
वह जैसे कोई वन
ख़ूब घना और अपना-सा
विविधताओं को आश्रय देता
पालता-पोसता और दुलारता सबको
करता हरेक के लिए
कुछ-न-कुछ
उतरता हरेक में थोड़ा-थोड़ा
उसी वन-वन विचरे
भुलाए न भूले
मेरा मन उसे
भीड़ भरी आबादी में
न आने को
जंगल में बस जाने को
जंगल ही हो जाने को
मचले यह मन
कौन सुन सका है
अपने मन की
कहाँ सुन पाऊँगा मैं
इस मन की!
दो
जब कोई न दे साथ
सूख न रहे हों पुराने घाव
पहुँचता मैं उसके पास
नहीं मारता वह ताने
गुरु-गंभीर किसी मुद्रा में
नहीं आता समझाने
तकिया पत्तों का
रख जाता सिरहाने
भरकर प्राणवायु
पीकर हरीतिमा
सुनकर संगीत
पहनकर लताओं की माला
होकर हरा-भरा
लौटता हूँ हरा-भरा
लोगों के बीच
खाने नए ज़ख़्म ।
……
तीन
जंगल
स्वयं हो ज्यों कोई औषध
बीच आकर इसके
बह जाती हैं
कड़वी यादें कई
अतीत की
लाँघ पाता हूँ
अपने भीतर की संकीर्णताओं को
शिकायतें
कम होने लगती हैं
दुनिया से
कटुता कम हो जाती है कुछ
जो गहराती गई भीतर-ही-भीतर
उतार फेंकता हूँ
लिप्साओं के सारे आवरण
लौटता हूँ
आदिम पुरखों के कुनबों में
खींचती हैं अपनी ओर
धूल-धूसरित पगडंडियाँ
आप कहें जंगली मुझे
जी-भर
मैं होकर
यूँ हल्का और तरोताजा
प्रसन्न हूँ
आपके इस विशेषण से।
…….
चार
मेरी तरलता
पहुँच जाए
वृक्षों की जड़ों तक
फूलों के खिलने और
फलों के पकने में
अगर हो पाए
अंशमात्र भी मेरी भागीदारी
इससे बड़ा हासिल
कहाँ कुछ होगा
मेरी उर्वरता के लिए
अगर वह है शेष
ज़रा-सी भी!
ज़मीन
फसलों से ढँकी ज़मीन
सुख पहुँचाती है
तसल्ली भी
इन दिनों
धान की जड़ों में पसरे
पानी की दुनिया में
विचरते हैं केकड़े
अपनी पीठ पर
आकाश को लादे
वे निश्चिंत और बेपरवाह से
दिखते हैं
इधर-उधर
हरे धानों के बीच
अपनी टोह में
मेड़ पर तो कभी पानी में
टहलते बगुलों की सफेदी
भली लगती है
और हरे के बीच
सफेद रंग
कितना अलहदा और
मनभावन होता है!
सफेद बगुलों की विष्टा
सफेद होती है
बचपन
ऐसे विषयों पर चर्चा कर
आह्लादित होता था
आह्लाद की वह हँसी
मीठी होती थी
साफ़-सुथरी और कुछ शरारती भी
संभवतः बगुलों की ही जैसी
आज
छत्तीसगढ़ में रहते हुए
जब-तब जाता हूँ
खेत, नहर किनारे
मन लौटता है
अपने गाँव की ओर
वे सघन स्मृतियाँ
कितना कुछ
जोड़ जाती हैं
मगध का यूँ
गोंडवाना से मिलना
मुझे पुलकित कर जाता है
यहाँ के ग्राम्रीण बच्चों से
बतियाता हूँ
वे मुझसे हिलमिल जाते हैं
मैं उनमें से एक हो जाता हूँ
सोचता हूँ
आज हमारे घरों के
कई बच्चों की दृष्टि से
ओझल हैं
गाँव और फ़सलों की
ऐसी लकदक दुनिया
शहर देता है बहुत कुछ
और बदले में
कितना खोखला और इकहरा
कर जाता है
मनुष्य की प्रारंभिक पाठशाला को
कितनी कमज़ोर पड़ रही है
शिक्षा और सामंजस्य की नींव
पूछता हूँ यह सवाल
स्वयं से
और हो निरुत्तर
बगलें
झाँकने लगता है
भीतर का अपना ही कोई
सुविधाभोगी मन!
…….
जो न बीते वही बचपन
मैदानी इलाक़े में रहा
बचपन, कैशोर्य बीता
हरियाली में
खेतों की
मटर-गेहूँ के पौधों के बीच चला
स्कूल जाते
और वहाँ से लौटते हुए
साथ में
कभी निकल आता
सरसराता कोई साँप
तो कहीं किसी झाड़ी में
कोई नेवला दिखता चौकन्ना
साँप-नेवले की वे कहानियाँ
आज कितने रूपक रचती हैं
बचपन लौटता है
नए संदर्भों में
बार-बार
बचपन कहाँ बीतता है!
लोभ
लोभी बनूँ
कि एक एक क्षण
उपयोग में लाऊँ
कि ख़ूब देखूँ
दुनिया को
कोण-कोण से
कि बतकही करूँ
अनंत लोगों से
अनंत तक
इन सबके आगे
धन-लोभ अपना
संकुचित हो जाए
स्वयं ही
जीता हूँ
इस अभिलाषा के साथ
यह अभिलाषा
बेमानी न हो कहीं
तौलता हूँ स्वयं को
और सशंकित भी होता हूँ
यह संशय
क्या हमारे समय का
एक अमिट पक्ष है!
……
स्वयं से सवाल
श्रमिकों से
अटी पड़ी है दुनिया
गाँव हो या कि शहर
पैदल चल रहे हों या
हों साइकिल पर
या हों सवार झुंड के झुंड
किसी पिक-अप में
बैठे हों लस्त-पस्त
उनके होने से बचा है
दुनिया का सजना-सँवरना
खुरदुरे हाथ
जब बनाते हैं
बर्तन, कपड़े या कि घर
सुंदर दिखते हाथों से
ज़्यादा सुंदर होते हैं
ताड़ के पत्तों से चटाई बनाता
और उनमें रंग भरता
विरेंद्र पासी का चेहरा
क्या कभी भूल पाऊँगा
स्कूल में
जमा करने के लिए
ताड़ के पत्तों से बने
उन सामानों को
अपने इस सहपाठी की मैं
कितनी चिरौरियाँ
किया करता था!
मैं भी एक श्रमिक ही हूँ
लिखता रहता हूँ
अपने इन बंधुओं की कथा
जिन्हें जानने में
कम लोगों की रुचि हो शायद
मगर क्या इस कारण से
बताना छोड़ दूँ मैं!
नहीं होते सुगंधित
सभी फूल
तो इस एक कमी से क्या
हम उन्हें निहारना छोड़ दें!
जो सुंदर हैं
वे खुशबू भी लुटाएँ
जरूरी तो नहीं
जो हैं मुझे प्रिय
सबकी उनमें रुचि हो
जरूरी तो नहीं
जब तक
सही-सलामत हैं ये लोग
सलामत हैं हम
और हमारी दुनिया
मगर ये चले जाते हैं
हाशिए पर
और हम निरुत्तर और निरुपाय
दर्शक बने होते हैं
मैं किस अधिकार से मानूँ
मैं कोई श्रमिक हूँ!