— चंद्रशेखर —
मेरे लिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि पहली बार मैं बसावन बाबू से कब मिला। मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता, पर मैं जब इंटरमीडिएट में पढ़ता था, उसी वक्त उनसे मिला। बिहार के वरिष्ठ नेताओं में बसावन बाबू का जिक्र होता था। 1946-47 में जयप्रकाश नारायण बलिया में थे। जगन्नाथ शास्त्री के घर जे.पी. जाया करते थे। मैं भी वहाँ जाया करता था। वहाँ पर वे सब बसावन सिंह का नाम बड़े आदर से लिया करते थे। आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया सभी बसावन सिंह का बहुत आदर करते थे। बसावन सिंह भी अपने विचार उनके समक्ष रखते थे। उनको अपनी बात कहने में कभी हिचकिचाहट नहीं होती थी।
बाद में मैं बसावन बाबू के बहुत करीब आ गया। उनके साथ मेरे घरेलू संबंध जैसे हो गए। मुझसे वह काफी गंभीरता से बात करते थे। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि जो भी उनके संपर्क में आता था, वह उनसे बहुत प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। मेरे साथ तो उनका संबंध बहुत स्नेहपूर्ण था ही।
उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे जिस माहौल में होते थे, उसी तरह की बात करते थे। किसी साधारण व्यक्ति से मिलने पर उसी तरह हँसी-मजाक करते थे। बसावन बाबू बहुत ही विनोदप्रिय थे। पर युवाओं से मिलने पर उन्हें कर्तव्य का ध्यान दिलाना बसावन बाबू की खूबी थी। बुद्धिजीवियों के साथ उसी स्तर पर बात किया करते थे। कोई सत्तू की बात करे तो उस पर भी वे बात कर सकते थे। जो जैसी बात करता था, उसका वे वैसा ही उत्तर देते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बसावन बाबू एक वैरागी पुरुष हो गए थे। किसी बात की परवाह नहीं करते थे। 1953-54 में इलाहाबाद में सोशलिस्ट पार्टी की मीटिंग हुई थी। वहाँ पर एक होटल में बसावन बाबू और अशोक मेहता ठहरे हुए थे, मैं जब उनसे मिलने वहाँ गया तो बसावन बाबू चारमीनार सिगरेट पी रहे थे। अशोक बोले, ‘बसावन चारमीनार मत पिया करो, मर जाओगे।’ इसपर बसावन बाबू बोले, ‘अब जिंदगी में क्या रखा है। देश की लड़ाई लड़ ली।’ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की हालत आशाजनक नहीं थी। इससे वे काफी परेशान थे। अशोक जी बसावन बाबू से बोले, ‘हताश न हो। देश की सेवा के लिए ही निकले थे। तुम देश की सेवा के लिए जिये हो और क्या चारमीनार के लिए मरोगे?’
हर विषय पर बसावन बाबू का दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय स्तर का था। उनका दृष्टिकोण किसी एक पहलू पर केंद्रित नहीं होता था। साधारण विषय को भी वे पूर्ण गंभीरता से लेते थे। उनके अंदर आत्मगौरव, मानव मर्यादा, जीवन संकल्प और नेतृत्व की भावना कूट-कूट कर भरी थी। आजकल विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में टकराहट की वजह यह है कि लोगों में व्यक्तिगत रूप से ओछापन आ गया है। जिन व्यक्तियों में आत्मविश्वास नहीं होता वे छोटी-छोटी बातों में उलझ जाते हैं। बसावन बाबू की जिंदगी में अटूट विश्वास था। उन्होंने बहुत कुर्बानी और त्याग किया। उस समय कोई भी ऐसा नहीं था जो यह कह सके कि उसने उनसे बड़ी कुर्बानी दी है।
आजकल लोग दूसरों की निंदा करने में अपना गौरव समझते हैं। हर कोई दूसरे की बुराई करता है पर अपने अंदर नहीं झाँकता।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा न कोय।।
आज राजनीति में लोग केवल भ्रष्टाचार की बात करते हैं। जब भी हम बसावन बाबू से बात करते थे, वे हमेशा उत्साह से भरपूर रहते थे। जब हम हार गए थे तब भी उनका यही कहना था कि घबराने की बात नहीं है, हम दुबारा से उठेंगे। मैंने जब कभी उन्हें देखा, चाहे वे किसी घरेलू परेशानी या अन्य किसी दुविधा में हों, वे सदा मुस्कुराते हुए नजर आते थे। इसका एक कारण यह था कि वे कभी सच कहने में संकोच नहीं करते थे। कोई व्यक्ति उनके विचारों से सहमत हो या न हो, वे अपनी विचारधारा सामने जरूर रखते थे। किसी भी बात पर कुढ़ना उनको नहीं आता था। इसलिए सभी लोग उनकी बात पर ध्यान देते थे और ध्यान से सुनते थे।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।
बसावन सिंह की जिंदगी और विचारधारा को याद करने पर यही शेर मन में आता है।