— अर्जुन प्रसाद सिंह —
भारत की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का दौर 1991-92 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में शुरू हुआ। उन्होंने नयी आर्थिक नीति लागू कर अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू की। इसके बाद मनमोहन सिंह के शासनकाल (2004 से 2014 तक) में इस प्रक्रिया में थोड़ी तेजी आयी। इस काल में अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोला गया और कई सार्वजनिक उद्यमों के शेयरों का विनिवेशीकरण (निजीकरण) किया गया। मनमोहन सरकार ने नव उदारीकरण की नीतियों को लागू करते हुए विश्व बैंक, आई.एम.एफ. एवं अन्य विदेशी निर्देश में कारपोरेट हित में श्रम सुधार भी किए। लेकिन उनकी सरकार के कार्यकाल में नव उदारीकरण की प्रक्रिया उतनी तेज नहीं थी, जितना साम्राज्यवादी ताकतें और घरेलू कारपोरेट घराने चाहते थे।
केंद्र की सत्ता पर बैठने के बाद नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार ने तेजी के साथ अर्थव्यवस्था का नव उदारीकरण शुरू किया, जिसका संक्षिप्त बिंदुवार विवरण इस प्रकार है-
1. विनिवेशीकरण एवं निजीकरण को बढ़ावा देना
मोदी सरकार ने सत्ता में बैठते ही विनिवेशीकरण एवं निजीकरण की प्रक्रिया तेज की। कभी मोदी ने ट्वीट किया था- “सौगंध मुझे इस देश की मिट्टी का, मैं देश नहीं बिकने दूंगा”। लेकिन विडंबना है कि उनकी सरकार धड़ल्ले से देश के सार्वजनिक उद्यमों एवं संपत्तियों को निजी हाथों में बेच रही है। इस सरकार ने 2018-19 से लेकर 2022-23 तक सार्वजनिक उद्यमों के कुल 6 लाख 80 हजार करोड़ रु. के शेयरों को बेचने का लक्ष्य निर्धारित किया। इसने एयर इंडिया को इसके पुराने मालिक टाटा ग्रुप को 2.4 अरब डॉलर में बेच दिया है। अभी मोदी सरकार 100 प्रतिशत सरकारी स्वामित्व वाली एलआईसी के 5 से 10 प्रतिशत शेयरों को बेचकर 1 लाख करोड़ रु. तक जुटाने की योजना पर काम कर रही है। इसने 2021-22 के बजट में 100 सार्वजनिक कंपनियों के शेयरों को बेचकर 1.75 लाख करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसे 2022-23 के बजट में घटाकर 65,000 करोड़ रुपए कर दिया है। अगस्त 2021 में इस सरकार की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने एक ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन’ की घोषणा की, जिसके तहत 2022 से 2025 के बीच 4 सालों में सरकारी परिसंपत्तियों को बेचकर कुल 6 लाख करोड़ रु. जुटाने का लक्ष्य तय किया गया है।
2. कर्जों का बोझ बढ़ना
1947 से लेकर 2014 तक देश पर कुल कर्जा (घरेलू एवं विदेशी) करीब 53 लाख करोड़ रु. का था, जो मार्च 2022 में बढ़कर करीब 153 लाख करोड़ रु. हो गया है। मतलब साफ है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने 8 साल के शासनकाल में करीब 100 लाख करोड़ रु. का कर्जा लिया है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में विदेशी कर्ज भी लगातार बढ़ रहा है।
3. विदेशी मुद्रा भंडार में कमी
पिछले कुछ समय से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भी लगातार कमी आ रही है। इन आँकड़ों पर गौर करें।
समय / साल भारत का विदेशी मुद्रा भंडार (अरब डॉलर में)
सितंबर 2021 635.36 अरब डॉलर
मार्च 2022 607.31 अरब डॉलर
1 अप्रैल 2022 606.31 अरब डॉलर
8 अप्रैल 2022 604.004 अरब डॉलर
15 अप्रैल 2022 603.694 अरब डॉलर
22 अप्रैल 2022 600.423 अरब डॉलर
29 अप्रैल 2022 597.93 अरब डॉलर
6 मई 2022 595.954 अरब डॉलर
इस तरह मात्र 7 माह के दौरान भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में करीब 40 अरब डॉलर की गिरावट हुई है। वैश्विक स्तर पर ब्याज दरों में हुई वृद्धि, कच्चे तेल की ऊँची कीमतों एवं देश में बढ़ती महंगाई के चलते मई 2022 के पहले सप्ताह में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से 25,200 करोड़ रु. की निकासी की है। आँकड़े बताते हैं कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) ने पिछले 7 माह में भारतीय शेयर बाजारों से कुल 1.65 लाख करोड़ रु. की निकासी की है जो भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते संकट को दर्शाता है।
4. बढ़ती महँगाई
नरेंद्र मोदी के शासनकाल में महंगाई दर में लगातार वृद्धि हुई है। फरवरी 2022 में थोक महंगाई दर 13.11 प्रतिशत थी और खुदरा महंगाई दर 6.09 प्रतिशत थी, जो मार्च 2022 में बढ़कर क्रमशः 14.55 प्रतिशत एवं 6.95 प्रतिशत हो गई। खुदरा महंगाई दर अप्रैल 2022 में बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गई जो पिछले 8 माह का उच्चतम स्तर है और थोक महंगाई दर 15.08 प्रतिशत हो गई। पेट्रोल 125 रु. प्रति लीटर एवं डीजल 100 रु. प्रति लीटर तक बिक रहा है। रसोई गैस के दाम भी काफी बढ़े हैं। 2014 में रसोई गैस प्रति सिलिंडर 410 रु. का था जो आज बढ़कर 1000 रु. से अधिक हो गया है। 19 किलोग्राम के वाणिज्यिक सिलिंडर के दाम भी बढ़े हैं और आज दाम प्रति सिलिंडर 2356.50 रु. हो गया है। जबकि बांग्लादेश, नेपाल एवं पाकिस्तान में पेट्रोल क्रमशः 78.23 रु. 33.75 रु. एवं 62.13 रु. प्रति लीटर मिल जाता है। एक आंकड़े के अनुसार पिछले दो साल (2020-21 एवं 2021-22) में भारत सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर कर बढ़ाकर 8,16,126 करोड़ की अतिरिक्त कमाई की है। इसी दरम्यान तेल कंपनियों को भी 72,532 करोड़ रु. का अतिरिक्त लाभ हुआ है।
5. बेरोजगारी में वृद्धि
नरेंद्र मोदी जब 2014 में अपना चुनावी भाषण कर रहे थे तो उन्होंने कहा था कि अगर वह सत्ता में आएंगे तो उनकी सरकार हर साल दो करोड़ नये रोजगार देगी। लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में लगातार रोजगार घटते जा रहे हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार देश में आज करीब 90 करोड़ लोग कार्य सक्षम हैं, लेकिन इनमें से केवल 40 प्रतिशत लोगों (यानी केवल 36 करोड़) को काम मिला हुआ है। हाल में सीएमआईई ने श्रमबल भागीदारी अनुपात (एलएफपीआर) के बारे में एक आंकड़ा जारी किया है जिसके अनुसार जनवरी-अप्रैल 2016 में एलएफपीआर 47 प्रतिशत था, जो जनवरी-अप्रैल 2021 में घटकर 40.4 प्रतिशत हो गया। फिर मई-अगस्त 2021 में यह और घटकर 37.4 प्रतिशत हो गया। सीएमआईई ने यह भी दिखाया है कि पिछले 10 सालों में एलएफपीआर में लगातार गिरावट हो रही है। खासकर कार्यसक्षम महिलाओं की भागीदारी का अनुपात गिर गया है।
6. अर्थव्यवस्था में संकुचन एवं गिरती विकास दर
नरेंद्र मोदी जब मई 2014 में सत्ता में आए तो उस समय जीडीपी दर 7 से 8 प्रतिशत के बीच थी। लेकिन आगे यह कम होना शुरू हुई और 2019-20 में यह 4 प्रतिशत तक गिर गई। 2020-21 में तो अर्थव्यवस्था की विकास दर में 7.97 प्रतिशत की सिकुड़न आई। 1920-21 की पहली तिमाही में तो अर्थव्यवस्था के आकार में 24.4 प्रतिशत की सिकुड़न हुई थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2020-21 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था का आकार 58.8 लाख करोड़ रु. का था, जो 2021-22 की पहली तिमाही में सिकुड़कर 51.2 लाख करोड़ रु. का हो गया। सरकार ने 2021-22 एवं 2022-23 के बजटों में आर्थिक विकास दर क्रमशः 9.2 प्रतिशत एवं 8 से 8.5 प्रतिशत तक रहने का अनुमान किया है। वैश्विक सेवा फर्म मोर्गेन स्टेनली ने 2022-23 की विकास दर 7.6 प्रतिशत रहने का अनुमान किया है। अगर हम वार्षिक महंगाई दर को समायोजित करें तो वास्तव में भारत की विकास दर 1 प्रतिशत से भी कम हो जाएगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था के संकुचन एवं विकास दर में भारी गिरावट को देखते हुए विश्वबैंक ने भारत का विकासशील देश का दर्जा घटा दिया है और उसे लोअर मिडिल इनकम श्रेणी में डाल दिया है। आईएमएफ ने अनुमान किया है कि 2025 तक भारत, बांग्लादेश से भी गरीब देश बन जाएगा।
7. गरीबी-अमीरी की खाई बढ़ी
कोरोना काल में भारत में आर्थिक विषमता काफी बढ़ी है और बड़े पैमाने पर पूंजी का सकेंद्रण भी हुआ है।
2021 के एक आंकड़े के अनुसार देश की कुल आर्थिक समृद्धि का 57 प्रतिशत हिस्सा दस प्रतिशत लोगों के पास चला गया. जबकि 84 प्रतिशत घरों की औसत आय में गिरावट दर्ज हुई। एक प्रतिशत सबसे धनी लोगों के पास देश के 76 प्रतिशत लोगों की संपत्ति से चार गुना अधिक संपत्ति है। 2020 में देश में कुल 102 अरबपति थे, जिनकी संख्या 2021 में बढ़कर 142 हो गई है। इन अमीरों की कुल संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रु. की थी जो बढ़कर 55.16 लाख करोड़ रु. की हो गई है। हाल में हुरून द्वारा जारी सूची के अनुसार पिछले 10 सालों में भारतीय अरबपतियों ने कुल 70 हजार करोड़ डॉलर की संपत्ति बढ़ाई है। 2022 में भारत के अरबपतियों की संख्या बढ़कर 215 हो गई है जो कि अमेरीका एवं चीन के बाद विश्व में तीसरा स्थान है। 70 हजार करोड़ डॉलर स्विट्जरलैंड की जीडीपी के बराबर और संयुक्त अरब रिपब्लिक की जीडीपी से दोगुना होता है। इस तरह भारत में अरबपति बनने की रफ्तार दुनिया में सबसे तेज है। इसी क्रम में अडानी विश्व के पांचवें सबसे अमीर व्यक्ति बन गये हैं, जबकि देश में गरीबी बढ़ी है और करीब 85 प्रतिशत परिवारों की वास्तविक आय में गिरावट आई है।
वैश्विक भुखमरी सूचकांक (2021) के मुताबिक 116 देशों में भारत का स्थान 101वां है, जबकि 2020 में उसका स्थान 94वां था। इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान से भी पिछड़ गया है। इसी तरह वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स (विश्व खुशहाली सूचकांक), 2022 में भारत का स्थान 134वां है, जबकि नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार एवं श्रीलंका का स्थान क्रमशः 84वां, 94वां, 121वां एवं 127वां है। यह नरेंद्र मोदी की ‘आर्थिक महाशक्ति’ का असली चेहरा है और उनके ‘सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास’ के नारे की हकीकत है। अगर इसी तरह देश के आर्थिक विकास की दर लुढ़कती रही, सार्वजनिक संपत्तियां निजी हाथों में बिकती रहीं, देश पर कर्जों का बोझ बढ़ता रहा, विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता रहा और महंगाई, बेरोजगारी एवं आर्थिक विषमता बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब श्रीलंका की तरह भारत का भी आर्थिक–राजनीतिक संकट बेकाबू हो जाएगा।