छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने कहा – 2009 के गोम्पाड नरसंहार के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा है

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17 जुलाई। छत्तीसगढ़ के जनसंगठनों के साझा मंच छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने एक बयान जारी कर 2009 के गोम्पाड नरसंहार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर घोर चिंता जताई है और इसे मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा बताया है। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन का पूरा बयान इस प्रकार है –

14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (तत्कालीन दंतेवाड़ा) के गांवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी। इस हादसे को गोम्पाड नरसंहार के रूप में जाना जाता है जिसमें सितंबर और अक्टूबर 2009 में हुई हिंसा की दो प्रमुख घटनाएं शामिल हैं, जो गोम्पाड और गच्चनपल्ली के गांवों में हुई थीं, जिनके साथ आसपास के गाँवों की दो-तीन छोटी घटनाएं भी शामिल हैं जिसमें कम से कम 17 आदिवासी मारे गए थे।

सुप्रीम कोर्ट ने इस रिट याचिका को खारिज करते हुए हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। साथ ही फैसले में सुझाव दिया है कि छत्तीसगढ़ राज्य / सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई की जा सकती है जिसमें अन्य धाराएं भी शामिल की जा सकती हैं। हमारे जैसे नागरिक समाज संगठन और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इस बात से चिंतित हैं कि इस फैसले ने न्यायिक अदालत में न्याय की खोज को ही एक आपराधिक कृत्य बना दिया है। यह निर्णय छत्तीसगढ़, विशेष रूप से बस्तर में पुलिस और सुरक्षा बलों से जवाबदेही की व्यवस्था के अस्तित्व और मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा है।

हिमांशु कुमार जो कि इस मामले के याचिकाकर्ता नं. 1 हैं, एक गांधीवादी हैं जो बस्तर में तीन दशकों से अधिक समय से काम कर रहे हैं और बस्तर के आदिवासियों के मानवाधिकारों के हनन की घटनाओं पर देश का ध्यान खींचने में उन्होंने लगातार मदद की है। इस मामले में अन्य बारह याचिकाकर्ता गोम्पाड नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवारों के सदस्य हैं। फैसले ने हिमांशु कुमार को निशाना बनाते हुए कहा है कि याचिकाकर्ता नं. 1, जो एक एनजीओ चलाते हैं, इन्होंने यह पूरी याचिका लगाई है जबकि गोम्पड में हुई हत्याओं की और जांच की जरूरत नहीं थी, एक स्वतंत्र एजेंसी की नियुक्ति की तो बात ही छोड़ दीजिए।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 17 सितंबर और 1 अक्टूबर 2009 की दो घटनाओं में गच्चनपल्ली, गोम्पाड, नुलकाटोंग और सिंगनमडगु के जंगल और आसपास के अन्य गांवों के कम से कम 17 आदिवासी लोग मारे गए और कई अन्य लोगों पर इन हमलों के दौरान प्रताड़ना और बर्बरता हुई। कई मीडिया रिपोर्टों के साथ नागरिक समाज समूहों की तथ्यखोजी रिपोर्टें उस क्षेत्र के ‘विशेष पुलिस अधिकारियों’ (एसपीओ) और कोबरा (सीआरपीएफ) सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा की इन घटनाओं को अंजाम देने की पुष्टि करती हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ यह मामला जैसे ही सुप्रीम कोर्ट में आगे बढ़ा, इन हमलों के चश्मदीदों को डराने और प्रताड़ित करने की मीडिया रिपोर्टें सामने आयी थीं।

स्वतंत्र जांच की याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत उलट कर रख देता है। यह याद किया जाना चाहिए कि लोगों की मांग का ही परिणाम था जब 2011 में सलवा जुडूम के दौरान ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुरम में हुई हिंसक घटनाओं की सीबीआई जांच हुई, और 2015-2016 में बीजापुर और सुकमा जिलों में सामूहिक यौनहिंसा के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जांच की गई। इन दोनों जांचों ने सुरक्षा बलों द्वारा की गयी सामूहिक हिंसा के ग्रामीणों के आरोपों की पुष्टि की। इसलिए, गोम्पाड हत्याकांड की एक स्वतंत्र जांच की याचिका को खारिज करते हुए, और मुख्य याचिकाकर्ता को कठोर दंड देते हुए, यह निर्णय निष्पक्ष जांच की मांग करने के अधिकार को दरकिनार करता है, और राज्य-हिंसा की वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करता है।

तीन दशकों से अधिक समय से, बस्तर नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे युद्ध की भूमि बना हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र के आदिवासी लोगों के लिए एक दुर्गम मानवाधिकार संकट पैदा हो गया है। अदालतों तक पहुंचने में अड़चनें, संसाधनों की कमी, भाषा की बाधा के साथ-साथ सरकार की संस्थागत इच्छाशक्ति की कमी जैसी संरचनात्मक बाधाओं के कारण बस्तर के आदिवासी लोगों का न्याय तक पहुंच पाना असंभव हो गया है।

2005 के बाद से बस्तर में संकट बढ़ता जा रहा है, जहां हिंसा की किसी भी घटना को रिपोर्ट करना, जांच करना और सत्यापित करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम बन गया है। यहां तक ​​​​कि घटनास्थलों का दौरा करना भी मुश्किल है क्योंकि दक्षिण बस्तर के अधिकांश गांवों में मोटरसाइकिल से जानेयोग्य सड़कें भी नहीं हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा बनाया गया भय का वातावरण स्वतंत्र पत्रकारों, शोधकर्ताओं और कार्यकर्ताओं को प्रभावित गांवों में जाने से रोकता है। अक्सर पुलिस का संरक्षण ही एकमात्र संरक्षण उपलब्ध होता है, जिससे किसी अन्य स्वतंत्र आवाज को किसी घटना की सच्चाई को स्थापित करने की अनुमति ही नहीं मिलती है। इन परिस्थितियों के कारण बस्तर में हुई हिंसा के बहुत कम मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाते हैं।

इस प्रकार बस्तर में न्याय और शांति के लिए आदिवासी लोगों के संघर्ष में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण है। हिमांशु कुमार एक ऐसी आवाज हैं जिन्होंने आदिवासी समुदाय को पुलिस-प्रशासन की जवाबदेही और न्याय दिलाने में मदद की है। न्याय तक पहुँचने में लोगों को जिन असंख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और राज्य की संस्थाएं जिन माध्यमों से हिंसा झेलनेवालों और उनके चश्मदीदों को परेशान करती हैं, और दिल्ली तक पहुँचने वाले एकाध दुर्लभ मामलों में लोगों को कैसे धमकाया जाता है, इन सब को स्वीकार करने और संज्ञान में लेने के बजाय, सुप्रीम कोर्ट ने न्याय के लिए लोगों की खोज में की गई सहायता को ही गुनहगार ठहरा दिया है।

हिमांशु कुमार और अन्य के मामले में निर्णय में कहा गया है कि चूंकि याचिकाकर्ता पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में असमर्थ थे, इसलिए पूरी याचिका में दुर्भावनापूर्ण इरादा है, और यहां तक कि एक आपराधिक साजिश भी हो सकती है। यह तर्क अपने आप में गलत है। यह सर्वविदित है कि साल दर साल अकेले दंतेवाड़ा जिले में नक्सली मामलों में दर्ज आदिवासी व्यक्तियों के बरी होने की दर 95 फीसद से अधिक है। 2015 में बस्तर सत्र न्यायालय में दर्ज यूएपीए के 101 मामलों के एक अध्ययन से पता चला है कि 92 मामलों में लोग बरी हो गए, शेष 9 को अन्य अदालतों में स्थानांतरित कर दिया गया, और एक भी मामले में दोष सिद्ध नहीं हुआ। क्या इसका मतलब यह है कि आपराधिक साजिश के आरोप में बस्तर की पूरी पुलिस को जेल में डाल देना चाहिए?

हम यह जानकर व्यथित हैं कि बस्तर में राज्य पुलिस द्वारा आदिवासी व्यक्तियों पर नक्सली होने का आरोप और उन पर दमन और बर्बरता, साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक कहकर सताने का दुश्चक्र आज भी बदस्तूर जारी है। शांति, न्याय और सत्य के आदर्शों के लिए प्रतिबद्ध, हम निम्नलिखित मांग करते हैं :

1. कांग्रेस सरकार ने बस्तर में शांति और न्याय को अपने चुनाव अभियान में केंद्रीय मुद्दा बनाया था, इसके तहत गोम्पाड नरसंहार की जांच फिर से शुरू करनी चाहिए। जांच को निष्पक्षता के साथ सुनिश्चित कर, इसका परिणाम सामने रख लोगों को न्याय मिलना चाहिए।

2. हिमांशु कुमार या किसी अन्य याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि इस तरह के गंभीर मामलों में संवैधानिक न्यायालय से निवारण की मांग करना नागरिक अधिकार के दायरे में ही आता है।

3. हम माननीय सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि राज्य के ऐसे अधिकारी जो सदाशयता से काम नहीं करते हैं, उनके संबंध में जवाबदेही न्यायशास्त्र (अकाउनटेबिलिटी जुरिस्प्रूडन्स) और कानून के तहत समान व्यवहार के सिद्धांत का विस्तार करें।

भवदीय
संयोजक मंडल सदस्य
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन

सुदेश टेकाम मनीष कुंजाम बेला भाटिया
नंदकुमार कश्यप विजय भाई शालिनी गेरा
रमाकांत बंजारे। आलोक शुक्ला

जिला किसान संघ राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्त्ता समिति), आखिल भारतीय आदिवासी महासभा, जन स्वास्थ कर्मचारी यूनियन, भारत जन आन्दोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (कोरबा, सरगुजा), माटी (कांकेर), अखिल भारतीय किसान सभा (छत्तीसगढ़ राज्य समिति) छत्तीसगढ़ किसान सभा, किसान संघर्ष समिति (कुरूद) दलित आदिवासी मंच (सोनाखान), गाँव गणराज्य अभियान (सरगुजा) आदिवासी जन वन अधिकार मंच (कांकेर) सफाई कामगार यूनियन, मेहनतकश आवास अधिकार संघ (रायपुर) जशपुर जिला संघर्ष समिति, राष्ट्रीय आदिवासी विकास परिषद् (छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर) जशपुर विकास समिति, रिछारिया केम्पेन, भूमि बचाओ संघर्ष समिति (धरमजयगढ़)

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