द्वारका मथुरा से सीधे फासले पर करीब 700 मील है। वर्तमान सड़कों की यदि दूरी नापी जाए तो करीब 1050 मील होती है। बिचली दूरी इस तरह करीब 850 मील होती है। कृष्ण अपने शत्रु से बड़ी दूर तो निकल ही गया, साथ-साथ ही साथ देश की पूर्व-पश्चिम एकता हासिल करने के लिए उसने पश्चिम के आखिरी नाके को बाँध लिया। बाद में, पाँचों पाण्डवों के बनवासयुग में अर्जुन की चित्रांगदा और भीम की हिडिम्बा के जरिए उसने पूर्व के आखिरी नाके को भी बाँधा। इन फासलों को नापने के लिए मथुरा से अयोध्या, अयोध्या से राजमहल और राजमहल से इम्फाल की दूरी जानना जरूरी है। यही रहे होंगे उस समय के महान् राजमार्ग। मथुरा से अयोध्या की बिचली दूरी करीब 300 मील है। अयोध्या से राजमहल करीब 470 मील है। राजमहल से इम्फाल की बिचली दूरी करीब सवा पाँच सौ मील है, यों वर्तमान सड़कों से फासला करीब 850 मील और सीधा फासला करीब 380 मील है। इस तरह मथुरा से इम्फाल का फासला उस समय के राजमार्ग द्वारा करीब 1600 मील रहा होगा। कुरु-धुरी के केंद्र पर कब्जा करने और उसे सशक्त बनाने के पहले कृष्ण केंद्र से 800 मील दूर भागा और अपने सहचरों और चेलों को उसने 1600 मील दूर तक घुमाया। पूर्व-पश्चिम की पूरी भारत यात्रा हो गयी। उस समय की भारतीय राजनीति को समझने की पूरी भारत यात्रा हो गयी। उस समय की भारतीय राजनीति को समझने के लिए कुछ दूरियाँ और जानना जरूरी है। मथुरा से बनारस का फासला करीब 370 मील और मथुरा से पटना करीब 500 मील है। दिल्ली से, जो तब इन्द्रप्रस्थ थी, मथुरा का फासला करीब 90 मील है। पटने से कलकत्ते का फासला करीब सवा तीन सौ मील है। कलकत्ते के फासले का कोई विशेष तात्पर्य नहीं, सिर्फ इतना ही कि कलकत्ता भी कुछ समय तक हिन्दुस्तान की राजधानी रही है, चाहे गुलाम हिन्दुस्तान की। मगध-धुरी का पुनर्जन्म एक अर्थ में कलकत्ते में हुआ। जिस तरह कृष्ण-कालीन मगध-धुरी के लिए राजगिरि केंद्र है, उसी तरह ऐतिहासिक मगध-धुरी के लिए पटना या पाटलिपुत्र केंद्र है, और इन दोनों का फासला करीब 40 मील है। पटना राजगिरि केंद्र का पुनर्जन्म कलकत्ते में होता है, इसका इतिहास के विद्यार्धी अध्ययन करें, चाहे अध्ययन करते समय संतापपूर्ण विवेचन करें कि यह काम विदेशी तत्वावधान में क्यों हुआ।
कृष्ण ने मगध-धुरी का नाश करके कुरु-धुरी की क्यों प्रतिष्ठा करनी चाही?इसका एक उत्तर तो साफ है, भारतीय जागरण का बाहुल्य उस समय उत्तर और पश्चिम में था जो राजगिरि और पटना से बहुत दूर पड़ जाता था। उसके अलावा मगध-धुरी कुछ पुरानी बन चुकी थी, शक्तिशाली थी, किंतु उसका फैलाव संकुचित था। कुरु-धुरी नयी थी और कृष्ण इसकी शक्ति और इसके फैलाव दोनों का ही सर्वशक्तिसंपन्न निर्माता था, मगध-धुरी को जिस तरह चाहता शायद न मोड़ सकता, कुरु-धुरी को अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ और फैला सकता था। सारे देश को बाँधना जो था उसे। कृष्ण त्रिकालदर्शी था। उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों, पठानों, मुगलों आदि के आक्रमण होंगे इसलिए भारतीय एकता की धुरी का केंद्र कहीं वहीं रचना चाहिए, जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके। लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध-धुरी बदला चुकाएगी और सैकड़ों वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण की भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी, किंतु अशक्त अवस्था में। त्रिकालदर्शी ने देखा शायद यह सब कुछ हो, लेकिन कुछ न कर सका हो। वह हमेशा के लिए अपने देशवासियों को कैसे ज्ञानी और साधु दोनों बनाता। वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था। रास्ते में भी शायद त्रुटि थी। त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नहीं, अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे। राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नहीं बिगड़ता, चाहे बनना भी कम होता हो। अनाड़ी ने कुरु-पांचाल संधि का क्या किया?
कुरु-धुरी की आधार-शिला थी कुरु-पांचाल संधि। आसपास के इन दोनों इलाकों का वज्र समान एका कायम करना था सो कृष्ण ने उन लीलाओं के द्वारा किया, जिनसे पांचाली का विवाह पाँचों पाण्डवों से हो गया। यह पांचाली भी अद्भुत नारी थी। द्रौपदी से बढ़कर, भारत की कोई प्रखर-मुखी और ज्ञानी नारी नहीं। कैसे कुरु सभी को उत्तर देने के लिए ललकारती है कि जो आदमी अपने को हार चुका है क्या दूसरे को दाँव पर रखने की उसमें स्वतंत्र सत्ता है?
पाँचों पाण्डव और अर्जुन भी उसके सामने फीके थे। यह कृष्णा तो कृष्ण के ही लायक थी। महाभारत का नायक कृष्ण, नायिका कृष्णा। कृष्णा और कृष्ण का संबंध भी विश्व-साहित्य में बेमिसाल है। दोनों सखा-सखी ही क्यों रहे। कभी कुछ और दोनों में से किसी ने होना चाहा? क्या सखा-सखी का संबंध पूर्व रूप से मन की देन थी या उसमें कुरु-धुरी के निर्माण और फैलाव का अंश था? जो हो, कृष्णा और कृष्ण का यह संबंध राधा और कृष्ण के संबंध से कम नहीं, लेकिन साहित्यिकों और भक्तों की नजर इस ओर कम पड़ी है। हो सकता है कि भारत की पूर्व-पश्चिम एकता के इस निर्माण को अपनी ही सीख के अनुसार केवल कर्म, न कि कर्मफल का अधिकारी होना पड़ा, शायद इसलिए कि यदि वह वस्य कर्मफल-हेतु बन जाता, तो इतना अनहोना निर्माता हो ही नहीं सकता था। उसने कभी लालच न की कि अपनी मथुरा को ही धुरी-केंद्र बनाए, उसके लिए दूसरों का इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर ही अच्छा रहा। उसी तरह कृष्णा को भी सखी रूप में रखा, जिसे संसार अपनी कहता है, वैसी न बनाया। कौन जाने कृष्ण के लिए यह सहज था या इसमें भी उसका दिल दूखा था।