नरेन्द्र कुमार मौर्य की चार ग़ज़लें

1
पेंटिंग : सीमा पाण्डेय


1.

मीडिया जिसको बहुत कमज़ोर कहता है,
इक वही है चोर को जो चोर कहता है।

है सवालों से उसे नाराज़गी इतनी,
वो हमारे हौसलों को शोर कहता है।

जानवर कब यार मुर्दाबाद करते हैं,
आदमी है, आदमी कुछ और कहता है।

नाम बदले को बहुत बेचैन रहते हम,
वो मगर लाहौर को लाहौर कहता है।

आंख का अंधा मिला है राहबर ऐसा,
जो अंधेरी रात को भी भोर कहता है।

शेर कह कर आप उसको मान देते हैं,
और ख़ुद को शेर आदमख़ोर कहता है।

सामने सच के भले चुप मार जाता है,
झूठ वो लेकिन मियां घनघोर कहता है।

2.

मिरा वो दिल दुखाना चाहते हैं,
मगर हम मुस्कुराना चाहते हैं।

पहन कर वो ॲंधेरों के मुखौटे,
हमें जालिम डराना चाहते हैं।

बनाने में जिसे बरसों लगे हैं,
उसे पल में मिटाना चाहते हैं।

तिरी तस्वीर जिस दीवार पर है,
उसी को वो ढहाना चाहते हैं।

गिरे हैं जिस जगह ऑंसू तुम्हारे,
वहीं बिजली गिराना चाहते हैं।

हमें जो आजमाते ही रहे हैं,
उन्हें हम आजमाना चाहते हैं।

ख़ुदा को देख कठपुतली बनाकर,
मदारी हैं, नचाना चाहते हैं।

नहीं काफ़ी मुहब्बत से भरा दिल,
नज़र भी आशिक़ाना चाहते हैं।

मुहब्बत ने हमें जीना सिखाया,
उसी के गीत गाना चाहते हैं।

पेंटिंग : विजेन्द्र

3.

चर्चा थी रहबर आगे है,
देख मगर डालर आगे है।

रुपए की हालत है खस्ता,
गिर जाने का डर आगे है।

सोच नहीं सकते वो होगा,
आंखों से मंज़र आगे है।

हो सकता है छलनी सीना,
नफ़रत का ख़ंजर आगे है।

ठोकर को तैयार रहो सब,
रस्ते में पत्थर आगे है।

सच को जो करता बेपर्दा,
उसकी ख़ोज ख़बर आगे है।

मालिक बैठा मुस्काता है,
उसका तो नौकर आगे है।

इतने सारे किरदारों में,
क्यों आख़िर जोकर आगे है।

पीछे है वो सबसे लेकिन,
करता है जाहिर, आगे है।

कब तक आख़िर चलते जाना,
क्या मौला का दर आगे है।

4.

मांगे न्याय, बहाना कर दो,
मुंसिफ जी जुर्माना कर दो।

चुप्पी को मानो कानूनी,
जुर्म बड़ा चिल्लाना कर दो।

जो देखे हैं सपने उसका,
जंगल बीच ठिकाना कर दो।

साये से भी डर जाएं हम,
ऐसा तानाबाना कर दो।

फिर कुछ और नहीं सूझेगा,
यूं मुश्किल में दाना कर दो।

सुख को मत सुख से रहने दो,
दुख का आना-जाना कर दो।

आग लगाने को अब आका,
जल्दी आग बुझाना कर दो।

ख़ुद तो तुम पंडित बन बैठो,
मौला को मौलाना कर दो।

कोरट और कचहरी छोड़ो,
ताक़तवर को थाना कर दो।

ख़ूब सियासत फिर से अपने,
आशिक़ को दीवाना कर दो।


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1 COMMENT

  1. प्रशंसनीय ग़ज़लें हैं। मुक्कमल ! और मुक्कमल तौर पर सियासत और इंसानी व्यवहार पर क़रारा चोट करतीं। ग़ज़लकार और सम्पादक को बधाई!

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