— डॉ. हेमंत जोशी —
हिंदी भाषा और विशेषकर पत्रकारिता की भाषा के संदर्भ में आज हो रही बहस कोई नई नहीं है, तर्क वितर्क कुतर्क भी नए नही हैं, बस नए हैं तो वे लोग जो इन बहसों में हिस्सेदारी निभा रहे हैं। नई हैं वे परिस्थितियाँ जिनमें यह बहस हो रही है, जिनकी वजह से हिंदी और पत्रकारिता दोनों ही लगभग संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। कुछ लोग पत्रकारिता की सत्ता का आनंद लेते हुए अपनी भाषा की कमजोरियों को छिपाने में लगे हैं, कुछ लोग विश्वविद्यालयों की शैक्षिक सत्ता तो कुछ लोग राजनीतिक सत्ता के संरक्षण के लिए भाषा के लचीलेपन की, उसके बहते नीर होने के गाने गा रहे हैं। कुछ लोग सत्ता प्रतिष्ठानों में भाषा की टकसाल चलाने के लिए मानक भाषा का रोना रो रहे हैं, तो कुछ लोग अपने दकियानूसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से शुद्धतावादी विचारों का प्रचार करने में लगे हैं। कुछ हिंदीदां अंग्रेज हैं तो कुछ अंग्रेजीदां हिंदी वाले, कुछ हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान वाले हैं तो नुक्तामयी हिंदी के प्रवक्ता। ऐसे माहौल को अराजकता न कहें तो क्या कहें।
आजादी के बाद से हिंदी की विकास यात्रा के कई पड़ाव हैं। पत्रकारिता में भी मिशन से प्रोफेशन की बातें बहुत हो चुकी हैं। हिंदी क्या है– यह स्वाधीनता संग्राम में लोगों को जोड़नेवाली संपर्क भाषा रही है या स्वाधीन भारत की राष्ट्रभाषा है या भारत सरकार के कामकाज की राजभाषा है यह भी लोग एक स्वर से तय नहीं कर पाए हैं। इसी अनिश्चितता से भाषा के बारे में कई दृष्टियाँ जन्म लेती हैं। पत्रकारिता लोक कल्याणकारी है, राजसत्ता की पिछलग्गू है या बाजार के अधीन एक स्वायत्त पेशा है इस पर भी विचार करने के बाद हम भाषा और पत्रकारिता के रिश्तों को सही-सही जान पाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में कुछ ऐसी बातें भी हुई हैं जो हमें हिंदी के बारे में फिर से सोचने को मजबूर करती हैं। जब हिंदी की शक्तिरूपी भोजपुरी भी आठवीं अनुसूची में जाने की माँग करे, जब राजस्थानी अपना अलग हक माँगे और कल अगर ब्रज और अवधी भी हिंदी के साम्राज्य से पतली गली से निकल जाएं तो फिर किस हिंदी को विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाएगा और किस हिंदी के लिए संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जाएंगे।
कुछ लोग आजकल बड़े जोर-शोर से इस प्रचार में लगे हैं कि देखिए हिंदी की ताकत कि आज अंग्रेजी के अखबारों में भी हिंदी के शीर्षक लगाए जा रहे हैं। देखिए अंग्रेजी के उत्कृष्ट शब्दकोशों में लगातार हिंदी के शब्दों को शामिल किया जा रहा है। कुछ लोग हिंदी को विज्ञान और विमर्श की भाषा बनाने के लिए तो कुछ लोग भाषा पर बाजार के अकाट्य प्रभाव की बातें कहकर हिंदी में अंग्रेजी का राग अलाप रहे हैं और हिंदी की शुद्धता से अधिक जोर हिंदी की अधिकता पर दे रहे हैं। इन लोगों से पूछना चाहिए कि अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और इंगलिस्तान के समाचारपत्रों की कितनी हेडलाइन हिंदी में निकल रही है? या यह पूछिए कि विशुद्ध अंग्रेजीभाषी के लेखन में कितनी मिलावट दूसरी भाषाओं की हो रही है? वही बाजार जो हिंदी को आमूलचूल ढंग से बदलने पर आमादा है वह अंग्रेजीभाषी देशों में अंग्रेजी को कितना बदल रहा है?
वापस हिंदी की दुनिया में लौटे तो पाएंगे कि इसी क्रम में एक नई शुरुआत भी हुई है। हिंदी पत्रकारिता के पिछले दशक में तेज विकास ने अखबार से लेकर टेलीविजन और कंप्यूटरों के विश्वव्यापी संजाल में कुछ नए तत्त्व और विचारों के साथ पत्रकारिता के नए-नए व्यवहार भी प्रस्तुत किए हैं। इन्हीं सब नई बातों में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पत्रकारिता का भेद लगभग समाप्त होना, क्योंकि क्षेत्रीय कहलाने वाले कई अखबारों के अब विभिन्न राज्यों से कई संस्करण निकलने आरंभ हो गए हैं। जिस तरह किसी अच्छे उत्पाद की विभिन्न क्षेत्रों में बिक्री करने के लिए उत्पादक को उस क्षेत्र विशेष की आवश्यकतानुसार अपने उत्पाद को ढालने की जरूरत होती है वैसे ही समाचारपत्र स्थानीयकरण की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
जैसा देश वैसा भेष की तर्ज पर पूरे भारत में एक ही अखबार के संस्करणों से अलग-अलग प्रकार की हिंदी परोसी जा रही है। बाहरी हमले की बात न भी करें तो आज हिंदी को सबसे अधिक खतरा इसी स्थानीयता को अपनाने से है। जिस हिंदी के हम अंतरराष्ट्रीय होने पर इठलाना चाहते हैं उसका एक अखिल भारतीय स्वरूप है और विभिन्न प्रकार की आंचलिकताएं भाषा की संप्रेषणीयता पर असर डालती हैं। केवल साहित्य एवं बोलचाल में नितांत क्षेत्रीय शब्दों के प्रयोग संभव हैं जहाँ थोड़े से अतिरिक्त प्रयास से आंचलिकता के विशिष्ट शब्दों के अर्थों का संप्रेषण पाठक या श्रोता को करा दिया जाता है। गांधी ने जब विभिन्न भारतीय भाषाओं से शब्द लेने की वकालत की थी तब वह हिंदी के अखिल भारतीय स्वरूप के बारे में ही सोच रहे थे।
‘हिंदुस्तान’ के लिए शैली पुस्तिका बनाते समय मुझे रांची से ऐसे अनेक शब्द प्राप्त हुए जो स्थानीयता का बोध कराते थे। इनमें से कुछ के उदाहरण मैं यहां देना चाहूंगा। यह शब्द हैं सेंदरा, उलगुलान, दिकु, गोमके, अचुआ राज, सहिगा, पहान, मगजमारी, डीसी आदि। अब झारखंड को छोड़ कर देश के किसी भी कोने में सेंदरा, गोमके और सहिगा जैसे शब्दों का कोई अर्थ निकालना लोगों के लिए आसान नहीं है।
इसी प्रकार दैनिक भास्कर के लिए शब्दावली तय करने की परियोजना के दौरान कुछ और स्थानीय प्रयोगों की ओर ध्यान गया। एक शब्द है लोग, जिसका प्रयोग हम कई हिंदी प्रदेशों में करते हैं, लेकिन कुछ जगहों पर ‘लोग’ की जगह जनों का भी प्रयोग होता है। इसके अलावा राजभाषा की भी कई समस्याएं पत्रकारों को कई बार परेशान करती हैं जिनका संबंध स्थानीयता से है। कई प्रदेशों में सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस को जिला अधीक्षक कहते हैं तो कहीं जिला कप्तान तो कहीं एसपी। इसी तरह डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को कहीं जिलाधीश कहीं कलेक्टर, कहीं डीसी तो कहीं प्रमुख प्रशासक कहा जाता है।
यहीं आकर भाषा के मानकीकरण और मीडिया की भूमिका का सवाल सामने आता है। यह कहना उचित नहीं कि लोगों पर कोई भाषा, जिसका अखिल भारतीय स्वरूप हो, थोपी जानी चाहिए। इस पर भी गौर करना चाहिए कि अभिव्यक्ति की अराजक स्वतंत्रता पाकर क्या मीडिया एक ऐसी भाषा लोगों पर नहीं थोप रहा है जो उसकी नहीं है और जो मीडिया तंत्र में उसकी तरह गढ़ी जा रही है जिस तरह के गढ़े जाने के कारण किसी सरकारी प्रयोग का अक्सर विरोध होता है। जनता पर भाषा थोपने और उन्हें एक प्रकार की स्पष्ट एवं संप्रेषणीय हिंदी से अवगत कराने की बात तो बहुत बाद में आएगी, हाल फिलहाल तो हमारे समाज के विशिष्ट वर्ग के विभिन्न तबकों में विमर्श के माध्यम से एक सर्वमान्य मानक भाषा स्वीकृत करा पाने का काम भी नहीं हो पाया है। किसी भी भाषा को स्वतंत्रता या लोकतंत्र के नाम पर फैलनेवाली इस अराजकता से बचाने के लिए ऐसा करना नितांत अनिवार्य है।
(सामयिक वार्ता, अगस्त-सितंबर 2007)