विश्व नागरिकता की उम्मीदें झुठलाती शरणार्थी समस्या

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

म्यांमार से लेकर यूक्रेन तक शरणार्थियों की दयनीय दशा को देखकर लगता है कि विश्व ग्राम की कल्पना महज साइबर दुनिया तक ही सीमित रहनेवाली है। हालांकि रोहिंग्या शरणार्थियों और यूक्रेन शरणार्थियों की दशा में बहुत अंतर है और दोनों समस्याओं की उत्पत्ति भी अलग है, पर कई समानताएं भी हैं। शरणार्थी समस्या वास्तव में युद्ध, दमनकारी सत्ता के अत्याचार, आर्थिक तबाही, प्राकृतिक आपदा, जातीय, धार्मिक और राष्ट्रवादी विचारों के उग्र स्वरूप से पैदा होती है। उन्हें हल करने के लिए विश्व नागरिकता, उदारता, बहुलता और मनुष्य मात्र की एकता की धारणा में विश्वास जरूरी है। यानी अगर राष्ट्रवादी सरकारों का मन बड़ा हो और बहुसंख्यक समुदाय का हृदय विशाल हो तो शरणार्थी समस्या कांटों की बजाय फूल जैसी लगेगी।

यही वजह है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद ने हाल की भारत यात्रा में संकेतों में कहा कि भारत एक विशाल देश है इसलिए रोहिंग्या समस्या के समाधान के लिए उनके देश की बड़ी मदद कर सकता है। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना था कि भारत रोहिंग्या को म्यांनमार भेजने के हर सुरक्षित और त्वरित उपाय का समर्थन करता है। यहां एक बात ध्यान देने की है कि 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और 1967 के प्रोट्रोकाल का न तो भारत हस्ताक्षरी है और न ही बांग्लादेश। इसलिए शरणार्थियों की समस्या के समाधान के लिए उनपर कोई अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही नहीं है। इसके बावजूद दोनों देश शरणार्थियों की समस्या से लंबे समय से जूझ रहे हैं। विशेष तौर पर हाल में म्यांमार में सैनिक सत्ता के भेदभाव वाले व्यवहार और उसके परिणामस्वरूप हुए अत्याचार के कारण बांग्लादेश में दस लाख और भारत में तकरीबन 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। उनके कारण दोनों देशों को कानून व्यवस्था और रोजगार जैसी आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ रहा है। कानून व्यवस्था की समस्या में ड्रग्स के व्यापार के साथ ही कट्टरपंथी समूहों की सक्रियता भी पेरशान करती है।

शरणार्थियों की समस्या से निपटने के लिए एक ओर 1951 का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और 1967 का प्रोट्रोकाल है जिसमें शरणार्थी को परिभाषित किया गया है और उनके प्रति धर्म, जाति, राष्ट्रीयता और राजनीतिक विचार के आधार पर भेदभाव न करने के लिए राष्ट्रों को हिदायत दी गई है। पर हस्ताक्षर करनेवाले दुनिया के 149 देश भी शरणार्थियों को लेकर दुविधा और खींचतान में उलझे रहते हैं। उस उलझन में अमरीका और यूरोप के शक्तिशाली और संपन्न देश भी रहते हैं। जो देश इन संधियों के हस्ताक्षरी नहीं हैं, वे अपने पारंपरिक और राष्ट्रीय आदर्शों और घरेलू कानूनों के आधार पर शरणार्थियों को प्रवेश देने या निष्कासन का काम करते हैं।

शरणार्थियों की समस्या के बारे में रामचरित मानस में भगवान राम का यह कथन भारतीय संस्कृति के आदर्श का काम कर सकता है जिसमें वे विभीषण को अपने शिविर में स्वीकार करने की दुविधा का निवारण करते हुए कहते हैं– ‘सरणागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि, ते नर पाथर पापमय तिन्हहि विलोकत हानि।’ मनुष्य अगर नस्लवादी न होता, धार्मिक रूप से कट्टर न होता और राजनीतिक मत मतांतर को स्वीकार करने में सहज होता तो शरणार्थी समस्या का न तो उदय होता और न ही राष्ट्र की दीवारें इतनी कठोर और कंटीली होतीं। पर मनुष्य ऐसा है और इसीलिए वह प्रकृति के अन्य प्राणियों से अलग, ज्यादा समझदार और उनके मुकाबले ज्यादा संकीर्ण भी है।

यह सही है कि शरणार्थी समस्या के बारे में एक वैश्विक दृष्टिकोण होना आवश्यक है पर वह दृष्टिकोण पाखंडी है जो पूंजी को तो पूरे संसार में निर्बाध विचरण की अनुमति देता है लेकिन मनुष्य के आवागमन पर कठोर बंदिशें लगाता है। इसलिए शरणार्थियों की समस्या का समाधान महज अंतरराष्ट्रीय आदर्शों से होनेवाला नहीं है। नवउदारवाद और उसको संबल देनेवाली सूचना प्रौद्योगिकी ने विश्व नागरिकता की जो उम्मीदें जगाई थीं वे उन्हीं के जाल में फंस कर रह गई है।

अगर वह रास्ता एकदम सही होता तो अब तक संयुक्त राष्ट्र की संधियों पर दुनिया के सारे देश हस्ताक्षर कर चुके होते और शरणार्थी समस्या इतनी कष्टकारी न होती।

इसलिए शरणार्थी समस्या का समाधान वैश्विक आदर्शों के अनुरूप लेकिन क्षेत्रीय ढांचे के तहत ही हो सकता है। हम उसे स्थानीयता भी कह सकते हैं। उसे विकेंद्रीयता भी कह सकते हैं। मनुष्य वैश्वीकरण का चाहे जितना दावा करे पर वह है तो क्षेत्रीय प्राणी ही। या यों कहें कि उसकी जड़ें किसी इलाके में ही होती हैं। अगर हम स्थानीयता को ही वैश्विकता का लघु रूप बना सकें तो इस समस्या से भी निपट सकते हैं। इस स्थानीयता में विविधता का सम्मान और हर व्यक्ति व समुदाय के साथ न्याय का संकल्प शामिल करना होगा। ऐसा न किया गया तो स्थानीयता और वैश्विकता में खींचतान जारी रहेगी। अब दुनिया का शायद ही कोई देश ऐसा बन पाए जहां विदेशी लोग न हों। मनुष्य के जन्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र में हजारों किलोमीटर की दूरी हो सकती है। पर यह दूरी और विविधता खुशी से होनी चाहिए न कि मजबूरी से।

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