(बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती पर विचार धरोहर स्तंभ के लिए हमने उनके चिंतन का जो अंश चुना है वह उनके एक व्याख्यान का हिस्सा है, जिसे जात-पात तोड़क मंडल, लाहौर के वार्षिक अधिवेशन, 1936 के अध्यक्ष पद से पढ़ने के लिए उन्होंने तैयार किया था। लेकिन कुछ हिस्सों पर आयोजकों के एतराज के कारण वह व्याख्यान पढ़ा नहीं जा सका। यही व्याख्यान बाद में एनिहिलेशन आफ कास्ट नाम से सामने आया और यह न केवल उनकी एक बहुत प्रसिद्ध कृति है, जातिप्रथा के खिलाफ लड़ने वालों के लिए एक प्रेरक पुस्तक भी है। इस किताब के असंतोषजनक अनुवाद बहुत मिलेंगे, लेकिन हमने जिस अनुवाद से उपर्युक्त अंश चुना है वह राजकिशोर जी का किया हुआ उत्कृष्ट अनुवाद है। यह जाति का विनाश नाम से द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, इग्नू रोड, नई दिल्ली से प्रकाशित है। पुस्तक में डॉ. सिद्धार्थ की तैयार की हुई संदर्भ-टिप्पणियां भी हैं, जिससे पुस्तक आम पाठकों के लिए और भी पठनीय हो गई है। यहां संदर्भ-टिप्पणियों को कोष्ठक में दिया गया है। कुछ ही दिनों में इस किताब के बारे में हम एक आलेख भी देंगे। )
हिंदुओं की नैतिकता पर जाति का प्रभाव साफ-साफ खेदपूर्ण है। जाति ने सार्वजनिक भावना को नष्ट कर दिया है। जाति ने सार्वजनिक दानशीलता की हत्या कर दी है। जाति ने जनमत को असंभव बना दिया है। एक हिंदू के लिए उसकी जाति ही उसका समाज है। उसकी जिम्मेदारी सिर्फ उसकी जाति के प्रति है। उसकी वफादारी उसकी जाति तक सीमित है। सद्गुण जाति से बँधे हुए हैं और नैतिकता जाति से घिरी हुई है। सुपात्रों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। योग्य व्यक्तियों के लिए कोई प्रशंसा भाव नहीं है। जरूरतमंद के लिए कोई दानशीलता नहीं है। पीड़ा कोई अनुक्रिया पैदा नहीं करती। दानशीलता है भी, तो जाति से ही उसकी शुरुआत और जाति से ही उसका अंत होता है। सहानुभूति है भी, तो वह अन्य जातियों के व्यक्तियों के लिए नहीं है।
क्या हिंदू किसी महान और अच्छे व्यक्ति के नेतृत्व को स्वीकृति देगा और उसका अनुसरण करेगा? किसी महात्मा को छोड़ दिया जाए, तो उत्तर यह होगा कि वह किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह उसकी जाति का होगा। ब्राह्मण किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह ब्राह्मण हो। कायस्थ किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह कायस्थ हो और दूसरी जातियां भी ऐसा ही करेंगी। जाति को अलग रखकर किसी व्यक्ति के गुणों की सराहना करने की क्षमता हिंदू में नहीं होती है। सद्गुण की सराहना है, लेकिन तभी, जब वह व्यक्ति अपनी ही जाति का हो। सारी नैतिकता कबायली मनोवृत्ति जितनी खराब है। मेरी जाति का आदमी- वह चाहे सही हो या गलत; मेरी जाति का आदमी- वह चाहे अच्छा हो या खराब। यह सद्गुण का साथ देने अथवा दुर्गुण का साथ न देने का मामला नहीं है। यह जाति के साथ खड़े होने अथवा जाति के साथ नहीं खड़े होने का मामला है। क्या हिंदुओं ने अपनी जाति व्यवस्था का हित साधकर अपने देश के साथ गद्दारी नहीं की है?
मुझे आश्चर्य नहीं होगा, यदि आप में से कुछ लोग जाति द्वारा उत्पन्न विषादपूर्ण स्थितियों की इस थकाऊ कथा को सुनते-सुनते ऊब गए होंगे। इस कथा में नया कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं अब समस्या के रचनात्मक पक्ष की ओर मुड़ूंगा। अगर आप जाति को नहीं चाहते, तो आपका आदर्श समाज क्या है- यह प्रश्न आपके द्वारा पूछा जाना अवश्यंभावी है। अगर आप मुझसे पूछते हैं, तो मैं कहूंगा, मेरा आदर्श एक ऐसा समाज होगा, जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित हो। और क्यों न हो?
भ्रातृत्व पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? एक आदर्श समाज को गतिशील होना चाहिए, वह ऐसे माध्यमों से भरा हुआ होना चाहिए, जो एक हिस्से में होनेवाले परिवर्तन को दूसरे हिस्सों में ले जाने में सक्षम हो। एक आदर्श समाज में बहुत सारे हित होने चाहिए, जिनका सचेत रूप से संप्रेषण होगा और जिन्हें सभी के द्वारा साझा किया जाएगा। साहचर्य की अन्य विधियों के साथ संपर्क के विभिन्न प्रकार के और स्वतंत्र बिंदु होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, सामाजिक अंतराभिसरण अनिवार्य है। भ्रातृत्व यही है, जिसका दूसरा नाम लोकतंत्र है। लोकतंत्र सिर्फ शासन संचालित करने की एक शैली नहीं है। बुनियादी रूप से यह सम्मिलित जीवन जीने की, संयुक्त रूप से संप्रेषित अनुभव की एक विधि है। सारतः यह कि अपने साथ रहनेवालों के प्रति सम्मान और श्रद्धा की भावना है।
स्वतंत्रता को लेकर कोई आपत्ति? अपनी इच्छानुसार आने-जाने की स्वतंत्रता के अर्थ में जीवित रहने और अंगहीन किए गए बगैर जीवित रहने के अधिकार के अर्थ में स्वतंत्रता के प्रति शायद ही किसी को आपत्ति हो। संपत्ति, औजार और कच्चा माल रखने, जो जीविका कमाने, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है, के अधिकार के अर्थ में स्वतंत्रता पर किसी को आपत्ति नहीं है। तब आप किसी व्यक्ति को उसकी अपनी शक्तियों का प्रभावशाली और सक्षम उपयोग कर उससे लाभान्वित होने की स्वतंत्रता को क्यों नहीं देना चाहते? जाति के समर्थक, जो जीवित रहने, अंगहीन न किए जाने और संपत्ति रखने के अधिकार के अर्थ में स्वतंत्रता की अनुमति देंगे। इस अर्थ में स्वतंत्रता की, जहां तक इसका संबंध अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता है, अनुमति देने के लिए तुरंत तैयार नहीं होंगे।
लेकिन इस तरह की स्वतंत्रता पर आपत्ति करना दासता को जारी रखना है। दासता सिर्फ पराधीनता का विधि-सम्मत बनाया हुआ रूप नहीं है। यह समाज का एक ऐसा चरण है, जिसमें कुछ लोग दूसरों से वह दिशा स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं, जो उनके आचरण को नियंत्रित करती है। यह स्थिति वहां भी पायी जाती है जहां कानूनी अर्थ में दासता नाम की कोई चीज नहीं है। यह वहां भी पायी जाती है जहां, जैसे उदाहरण के लिए जाति व्यवस्था में, कुछ लोगों को वैसे व्यवसायों में बने रहना पड़ता है, जो उन्होंने खुद नहीं चुने हैं।
समानता पर कोई आपत्ति? फ्रांसीसी क्रांति (1789 की फ्रांसीसी क्रांति विश्व इतिहास की एक ऐसी महत्त्वपूर्ण क्रांति थी, जिसने विश्व इतिहास की दिशा बदल दी। इस क्रांति के प्रेरक शब्द थे- स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया और समता के सिद्धांत को विश्वव्यापी परिघटना बना दिया। आंबेडकर अपने आदर्श समाज की नींव स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व मानते थे। उनका कहना था कि आदर्श समाज का जीवन इन्हीं तीन तत्त्वों से संचालित होगा। यह अलग बात है कि वे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सिद्धांत को बुद्ध की परंपरा से जोड़ते थे।) के नारे का यह सर्वाधिक विवादास्पद हिस्सा है। समानता पर आपत्तियां तार्किक हो सकती हैं, और यह तो स्वीकार करना ही होगा कि सब मनुष्य समान नहीं होते। लेकिन इससे क्या? समानता एक काल्पनिक वस्तु हो सकती है, लेकिन फिर भी नियंत्रक सिद्धांत तो इसे ही बनाना होगा। किसी आदमी की शक्ति इन चीजों पर निर्भर है- (1) शारीरिक आनुवंशिकता, (2) सामाजिक विरासत या निधि, जैसे माता-पिता द्वारा देखभाल, शिक्षा, वैज्ञानिक ज्ञान का संचय यानी वह हर चीज, जो उसे औसत से ज्यादा दक्ष बनाती है और अंतिम, (3) उसका अपना प्रयत्न। इन तीनों मामलों में मनुष्यों की स्थिति असंदिग्ध रूप से समान नहीं है। लेकिन प्रश्न यह है : चूंकि वे असमान हैं, इसलिए क्या हम उनके साथ असमान व्यवहार करेंगे? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर समानता के विरोधियों को देना होगा।
एक व्यक्तिवादी के नजरिये से, जहां तक मनुष्य असमान हैं, उनके साथ असमान व्यवहार करना उचित हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अंदर निहित शक्तियों के पूर्ण विकास के लिए जितना संभव है उतना प्रोत्साहन देना वांछित हो सकता है। लेकिन तब क्या होगा, जब पहली दो श्रेणियों के असमान व्यक्तियों के साथ असमान व्यवहार किया जाएगा? यह स्वतः स्पष्ट है कि इन व्यक्तियों में से वे ही दौड़ की प्रतिद्वंद्विता में विजय हासिल कर सकेंगे जो जन्म, शिक्षा, परिवार का नाम, व्यावसायिक संपर्क और विरासत में मिली दौलत से लाभान्वित हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में होनेवाला चयन योग्यता के आधार पर किया गया चयन नहीं होगा। यह चयन विशेषाधिकार के आधार पर किया गया चयन होगा। जिस कारण से यह आवश्यक है कि तीसरी श्रेणी में (जिसका जिक्र ऊपर के पैराग्राफ में किया गया है) हमें मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार करना चाहिए, उसी कारण से यह भी आवश्यक है कि प्रथम और दूसरी श्रेणी में हमें मनुष्यों के साथ जितना ज्यादा संभव हो, उतनी समानता के साथ व्यवहार करना चाहिए।
(उपरोक्त दो पैराग्राफ में आंबेडकर मनुष्यों के बीच समानता के सिद्धांत की व्याख्या कर रहे हैं और प्रथमतः इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, लेकिन समाज की सच्चाई को भी सामने रख रहे हैं कि समाज का एक हिस्सा विशेषाधिकार संपन्न स्थितियों में होता है, जबकि एक हिस्सा इन विशेषाधिकारों से वंचित होता है। किसी व्यक्ति के साथ विशेषाधिकार का पहला आधार शारीरिक आनुवंशिकता हो सकती है। हो सकता है कोई व्यक्ति आनुवंशिक तौर पर सशक्त हो और कोई कमजोर हो। इसी तरह से किसी व्यक्ति को विरासत के रूप में बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है, जो उसे उन लोगों की तुलना में विशेषाधिकार स्थिति में डाल देता है, जिन्हें विरासत में बहुत कम या कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
जब आनुवंशिक तौर पर और विरासत के आधार पर विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों की प्रतियोगिता इससे वंचित व्यक्तियों से होती है, तो यह बेमेल मुकाबला होता है। यह स्वाभाविक है कि विशेषाधिकार संपन्न व्यक्ति प्रतियोगिता में विजयी होगा। इसलिए आंबेडकर विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों और वंचितों के बीच सकारात्मक भेदभाव की वकालत करते हैं। इसी सकारात्मक भेदभाव का एक रूप आरक्षण है। हम सभी जानते हैं कि भारत में सवर्ण जातियों को विरासत में कमोबेश सब कुछ प्राप्त होता रहा है, जो एक व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक जरूरतें हैं। जबकि शूद्रों-अतिशूद्रों (ओबीसी-दलित-आदिवासी) को उन सभी चीजों से वंचित किया गया, जो एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अनिवार्य है। इन्हीं वंचित समुदायों के लिए सकारात्मक भेदभाव की पैरवी आंबेडकर करते रहे हैं। इसे वे किसी भी तरह से समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं मानते थे, बल्कि इसके उलट वे समानता कायम करने की दिशा में उठाया गया कदम मानते थे।)
इसके विपरीत तर्क दिया जा सकता है कि यदि समाज के लिए अपने सदस्यों से अधिकतम प्राप्त करना अच्छा है, तो यह अधिकतम वह तभी प्राप्त कर सकता है, जब वह दौड़ की प्रतिद्वंद्विता शुरू होने के ठीक पहले ही सभी को जहां तक संभव हो सके, समान बनाए। यह एक कारण हुआ कि हम समानता से पलायन नहीं कर सकते। लेकिन हमें समानता को स्वीकार करना ही पड़ेगा, इसका दूसरा कारण भी है। राजनेता का सरोकार बहुत बड़ी जनसंख्या से होता है। उसके पास न तो इतना समय होता है, न इतनी जानकारी कि प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यकता या योग्यता के अनुसार उसका अलग-अलग मूल्यांकन कर उसके साथ न्याय कर सके। मनुष्यों के साथ न्याययुक्त व्यवहार कितना ही अभिलषित या तर्कसंगत हो, मानवता का पृथक्करण या वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। इसलिए राजनेता को किसी न किसी मोटे और तैयारशुदा नियम का पालन करना ही होता है, और वह मोटा और तैयारशुदा नियम यह है कि सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए – इसलिए नहीं कि वे एक जैसे हैं, बल्कि इसलिए कि मानवता का पृथक्करण और वर्गीकरण असंभव है। समानता के सिद्धांत में यह एकदम स्पष्ट दिखाई देनेवाली त्रुटि है, लेकिन सारी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, एकमात्र तरीका यही है, जिसका अनुसरण कोई राजनेता अपनी राजनीति में कर सकता है, जो एक निष्ठुर रूप से व्यावहारिक मामला है और जो एक निष्ठुर रूप से व्यावहारिक कसौटी की मांग करता है।