छोटी टेक्नोलॉजी व्यक्ति को स्व-निर्भर और स्वतंत्र बनाती है

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रवीन्द्र शर्मा (5 सितंबर 1952 – 29 अप्रैल 2018)

— रवीन्द्र शर्मा —

(दूसरी किस्त)

चूंकि छोटी टेक्नोलॉजी पर उत्पादन शून्य में होता है इसलिए उसमें आज के चार सबसे बड़े खर्चे – पैकिंग, ट्रांसपोर्टिंग, एडवरटाइजिंग और टैक्स बिल्कुल भी नहीं होते हैं।

जैसा कि देखा कि छोटी टेक्नोलॉजी का उत्पादन शून्य पर होता है। छोटे कारखानों में, कारीगरों के अपने-अपने गांव और अपने-अपने घर बॅंधे होते हैं।

कभी कारीगर, उनके घरों पर जाके ये सामान देकर आते हैं। कभी वे लोग कारीगरों के घर से, कारीगरों के कारखाने से, अपना सामान लेकर जाते हैं। इस पूरी व्यवस्था में किसी को भी न तो कोई चीज पैक करने की जरूरत होती है, और न ही उसमें किसी तरह के ट्रांसपोर्टेशन का ही कोई खर्चा होता है। इसमें, एडवरटाइजिंग या विज्ञापन जैसी कोई बात भी नहीं होती है। इसी तरह आपसी में लेन-देन में टैक्स का भी कोई खर्चा नहीं होता है। टेक्नोलॉजी के बड़ी हो जाने मात्र से ग्राहक और कारखानों के बीच अंतर इतना बढ़ गया है कि इन चारों चीजों की न केवल आवश्यकता पड़ने लगी है, बल्कि इन चारों के बिना तो उत्पादित सामान की बिक्री ही असंभव सी लगती है। आज इन चारों चीजों का खर्चा इतना बढ़ गया है कि यह उत्पादन की मूल लागत से कई गुना ज्यादा होता है। जो कि आखिरकार ग्राहकों को अपनी जेब से ही देना होता है।

बड़ी टेक्नोलॉजी के लगभग सभी पैरोकार छोटी टेक्नोलॉजी की तुलना में बड़ी टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा फायदा किसी भी वस्तु की ‘उत्पादन लागत’ में आई गिरावट बताते हैं। वैसे तो उनका यह तर्क भी गलत है। मगर, यदि एक पल के लिए इसको सही भी मान लिया जाए, तो भी वे लागत खर्च के अलावा लगने वाले इन चार खर्चों की पूरी तरह अनदेखी कर देते हैं। इन खर्चों को वस्तु की उत्पादन लागत में जोड़ देने से यह लागत ऊपर पहुंच जाती है।

बड़ी टेक्नोलॉजी नौकरशाही को बढ़ाती है, जिसके स्वयं के ढेरों दुष्परिणाम हैं। जबकि छोटी टेक्नोलॉजी उद्यमिता को बढ़ावा देती है, जो क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को जीवंत बनाती है।

बड़ी टेक्नोलॉजी में काम करने के लिए ढेरों लोगों की जरूरत होती है। यही कारण है कि फैक्ट्रियों में, कंपनियों में सैकड़ों, हजारों लोगों को एक साथ नौकरी पे रखा जाता है। यह समाज में नौकरशाही को पोषित करती है, जिसके ढेरों दुष्परिणाम हैं, जो कि धीरे-धीरे सामने आते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर छोटी टेक्नोलॉजी में छोटे-छोटे उद्योग फलते-फूलते हैं, जिससे हमारी क्षेत्रीय व्यवस्था जीवंत बनी रहती है।

एक और चीज होती है कि बड़ी टेक्नोलॉजी में संपन्न और समृद्ध तो हमेशा से कारखाने का मालिक ही होता है।

छोटी टेक्नोलॉजी में आदमी मालिक बनता है जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी नौकरशाही को बढ़ावा देती है, जिसमें आदमी नौकर-चाकर और मजदूर बनता है। इसमें कोई एक या बहुत कम लोग ही मालिक बनते हैं।

छोटी टेक्नोलॉजी में हर कारीगर अपने-अपने कारखाने का मालिक होता है। बड़ी टेक्नोलॉजी, हर किसी को नहीं बल्कि कुछ ही लोगों को कारखानों का मालिक बनाती है। इस तरह से इसमें केवल कुछ लोग ही समृद्ध और संपन्न होते जाते हैं। बड़ी टेक्नोलॉजी में कारखाने का मालिक निरंतर और भी अधिक अमीर होता जाता है। छोटी टेक्नोलॉजी में समृद्धि और संपन्नता सभी लोगो में समान रूप से बंटती है। बड़ी टेक्नोलॉजी लोगों को मालिक से नौकर और मजदूर बनाकर गरीब और अमीर का फासला निरंतर बढ़ाती जाती है।

छोटी टेक्नोलॉजी आत्मीयता बढ़ाती है, और बड़ी टेक्नोलॉजी में आत्मीयता कम होती जाती है।

कुम्हार या किसी भी कारीगर के यहां जब कोई मेहमान आता है, जो कि अधिकतर उसी के समाज का ही होता है (घरों में रुकने वाले मेहमान तो आज भी अधिकतर अपने ही समाज, अपनी ही जाति और अपने ही रिश्तेदारों में से होते हैं), तो वह उसको जबरदस्ती पकड़-पकड़ कर रोकता है कि दो-चार दिन और रुक के जाना। क्योंकि वह मेहमान, उसी की जाति, उसी के काम-धंधे से संबंधित होने के कारण, उसके काम में कोई बाधा न बनकर, बल्कि उसके काम में मदद ही करता है। एक कुम्हार के घर दूसरा कुम्हार, एक सुनार के घर दूसरा सुनार, किसान के घर दूसरा किसान (और इसी तरह एक डॉक्टर के घर दूसरा डॉक्टर, एक एनजीओ वाले के घर दूसरा एनजीओ वाला) आएगा, तो वह यदि उसके काम में कोई मदद नहीं करेगा, तो कम से कम उसके काम में कोई बाधा तो नहीं पहुंचाएगा। बल्कि वास्तविकता में दोनों के बीच अपने धंधों को लेकर, उसमें बनने वाली डिजाइनों आदि को लेकर बहुत चर्चा, बहुत आदान-प्रदान होता है। यह स्वाभाविक ही है।

वहीं दूसरी ओर, बड़ी टेक्नोलॉजी आ जाने के कारण, काम घरों में नहीं होकर, फैक्ट्रियों, कारखानों, ऑफिसों में होता है। और लोगों को उनमें नौकरी करने के लिए जाना पड़ता है। घरों में काम नहीं चलते रहने के कारण, आने वाला मेहमान उसके काम में किसी भी तरह की कोई मदद नहीं कर पाता है। बल्कि उस मेहमान, मेजबान को अपनी नौकरी में से समय निकाल कर (छुट्टी आदि लेकर के) उसके साथ समय बिताना पड़ता है। जिसके कारण वह आत्मीयता वगैरह छोड़कर इस फिराक में रहता है कि कब मेहमान उसके घर से जाए। बहुत ही सूक्ष्मता से बड़ी टेक्नोलॉजी समाज में फैली आत्मीयता को पूरी तरह से खत्म कर देती है।

छोटी टेक्नोलॉजी में आज की तरह ‘महिला-पुरुष भेदभाव’ के रोने नहीं रोते हैं, ये रोने बड़ी टेक्नोलॉजी के आने के बाद ही पैदा हुए हैं।

महिला-पुरुष भेदभाव की बात करने वाले महिलाओं की प्रतिबंधित स्वच्छंदता और आर्थिक कार्यों में अ-समान भागीदारी पर ही ज्यादा जोर देते हैं। जब कारखाने छोटे होते हैं, तो पुरुषों को भी किसी कार्य के लिए घर से बाहर नहीं जाना पड़ता है। उनके घर ही उनके कारखाने, उनकी दुकान हुआ करते हैं। कच्चे माल के लिए स्त्री, पुरुष दोनों ही साथ जाया करते हैं। जितने कार्यों के लिए पुरुष घर से बाहर निकलता है, उतने ही कार्यों के लिए स्त्रियां भी बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र होती हैं। कारखानों के बड़े होने के बाद ही पुरुषों को उनमें कार्य करने के लिए बाहर निकलना पड़ा और तभी से धीरे-धीरे स्त्रियों की स्वच्छंदता कम हो गई, वरना उसके पहले तक दोनों की स्वच्छंदता एकदम बराबर होती थी। इसी तरह जब कारखाने छोटे हैं, तो उसमें परिवार के सभी सदस्यों का बराबर का योगदान होता है। महिला और पुरुष दोनों ही बराबरी से उन छोटे कारखानों में काम किया करते हैं। इस तरह से आर्थिक कार्यों में, आर्थिक निर्णयों में दोनों की बराबर की भागीदारी हुआ करती है। जब कारखाने बड़े हो गए, और पुरुषों को काम करने के लिए बाहर निकलना पड़ा, तो यह भागीदारी धीरे-धीरे कम होकर पुरुषों के हाथ में आ गई।

छोटी टेक्नोलॉजी में माल बेचने के लिए बिचौलिए की जरूरत नहीं होती है। इसके विपरीत बड़ी टेक्नोलॉजी में बिना बिचौलिए के माल बेचा ही नहीं जा सकता है। और वहीं से कमीशनबाजी का सारा खेल शुरू हो जाता है। आज पूरा का पूरा समाज कमीशनखोरी के रोग से ग्रस्त है।

कारखानों के उत्पादों के बेचने से शुरू हुआ ये रोग आज समाज के हर क्षेत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण, कला, मीडिया,राजनीति और अन्य ढेर सारे क्षेत्रों में बहुत ही गहरे तक पैठ चुका है। आज तो इसके बिना किसी भी क्षेत्र में किसी भी काम की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है, जबकि समाज में इसकी शुरुआत टेक्नोलॉजी के मात्र बड़े हो जाने से हुई है। समाज ने बड़ी चतुराई से इस बुराई को दूर रखने के लिए समाज में छोटी टेक्नोलॉजी व्यवस्था को अपना रखा था।

बड़ी टेक्नोलॉजी में समाज की सामर्थ्य कुछ व्यक्तियों तक सीमित हो जाती है, जो कि स्वयं अकेले कुछ भी नहीं कर सकते। छोटी टेक्नोलॉजी व्यक्ति को सामर्थ्यवान और उसके माध्यम से स्व-आश्रित, स्व-निर्भर और स्वतंत्र बनाती है।

जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी व्यक्ति को क्रमशः पराश्रित, पर-निर्भर और परतंत्र बनाती है। जातियों (ज्ञातियों) के माध्यम से गांवों में, समाज की छोटी-छोटी इकाइयों में सहज ही संरक्षित ये सारा सामर्थ्य आजकल हमारे लिए गूढ़ विद्या होता जा रहा है। प्रथम तो यह उपलब्ध ही नहीं है। और उसके विकल्प में बड़े-बड़े कारखानों में काम आने वाली विद्याएं जो उपलब्ध भी हैं, उस तक समाज के सभी वर्गों की कोई पहुंच ही नहीं है। आज की आधुनिक जातियों (ज्ञातियों) डॉक्टरी, सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, सॉफ्टवेयर डेवलपर, अन्य तरह की इंजीनियरिंग, वकालत और इसी तरह आज की बड़ी से बड़ी पढ़ाई, या बड़ा-बड़ा काम सीखा व्यक्ति भी इन कारखानों, कंपनियों का नौकर ही है। सम्माज के प्रत्यक्ष काम आने वाली किसी विद्या का विद्वान नहीं। आजकल की पढ़ाई और व्यवस्थाओं से व्यक्ति इन कारखानों और कंपनियों का निरंतर गुलाम और परतंत्र ही होता जा रहा है, क्रमशः सामर्थ्यहीन होते हुए।

टेक्नोलॉजी जब छोटी थी, तो ट्रांसपोर्ट के साधन सभी कारीगरों के अपने थे। जिसके कारण वह पूरी तरह से उसके मालिक हुआ करते थे। आज टेक्नोलॉजी बड़ी हो जाने के कारण, जो रहे-सहे छोटे-मोटे कारखाने बचे भी रह गए हैं, उन सब से भी उनकी ट्रांसपोर्टिंग के साधन छिनकर के किसी और के हाथ में चले गए हैं। जिससे कारीगर ही अपने कारखानों में मात्र मजदूर होकर रह गए हैं, और अपने कच्चे और तैयार माल इत्यादि की ढुलाई के लिए दूसरों पर ही पूरी तरह से निर्भर हैं।

छोटी टेक्नोलॉजी वाली व्यवस्था में ट्रांसपोर्टिंग के साधन, सभी कारीगरों के उनके अनुसार के, उनकी अपनी डिजाइन के होते हैं। पहले कुम्हार के बर्तन, कुम्हार का कच्चा माल ढोने के लिए, उसकी अपनी तरह की बैलगाड़ी होती थी। इसी तरह लोहार, बढ़ई, खासार के अपने-अपने अलग-अलग डिजाइन के ट्रांसपोर्टिंग के साधन थे। इसी तरह पत्थर तोड़ने वाले आड़े और किसानों की भी अपनी अलग तरह की बैलगाड़ी होती है। सभी के पास बैलगाड़ियां ही हुआ करती थीं, मगर उन सब बैलगाड़ियों के डिजाइन उनके काम की जरूरत के हिसाब की होती थीं। आजकल, सभी के लिए उनकी अपनी तरह के डिजाइन के साधन न होकर एक ट्रैक्टर या ट्रक जैसी कोई बन गई है, जो कि किसी और के ही नियंत्रण में रहती है। जिसके कारण आज पत्थर तोड़ने वाला आड़े, आज पत्थर तोड़कर ट्रैक्टरों में भरने वाला मजदूर मात्र बन गया है।

छोटी टेक्नोलॉजी में कमाई परिवार की होती है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में कमाई व्यक्तिगत होती है।

टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो घर के सभी लोग मिलकर उसमें काम करते हैं, जिसके कारण कुम्हार, सुनार, लोहार और किसानों के घरों में कमाई किसी व्यक्ति न होकर पूरे परिवार की होती है। जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में, नौकरशाही में, कमाई किसी व्यक्ति विशेष की होती है, जिसमें न तो किसी का योगदान होता है, और न ही उस तरह का अधिकार होता है। घरों के, परिवारों के टूटने का एक और कारण यह भी है। पहले घर की कमाई में, स्त्री-पुरुषों में कोई एक, उस पर अपना अधिकार नहीं बता सकता है। आज घरों में स्त्रियों, पुरुषों की अलग-अलग व्यक्ति कमाइयां हो गई हैं, जिससे परिवारों तक में बिखराव आ गया है। वर्तमान में स्त्री-पुरुष भेदभाव का एक कारण, यह भी रहा है। छोटी टेक्नोलॉजी में कमाई पारिवारिक होने के कारण किसी एक का ही उसपर अधकार नहीं हुआ करता था।

छोटी टेक्नोलॉजी में हमारी खेती बहुत विविधता भरी होती है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में खेती एकसमान होती जाती है।

बड़ी टेक्नोलॉजी में अन्य सारी चीजों की तरह फसलें भी उनके हिसाब की होती हैं, फसलों का चुनाव, फसलों की किस्म आदि सब कुछ उनके हिसाब का होता है। वहीं दूसरी ओर जब टेक्नोलॉजी छोटी होती है, तो फसलें आदि हमारी रोजमर्रा की जरूरत की होती हैं।

जातियां जो कभी एक एक टेक्नोलॉजी की मास्टर हुआ करती थीं, उन जातियों (ज्ञातियों) को खत्म करने में इन बड़े कारखानों की बड़ी भूमिका रही है। क्योंकि जातियों के खत्म होते ही डिजाइन खत्म हो जाती है। और फिर धीरे धीरे उसका सब कुछ खत्म हो जाता है। उसके बाद कारखानों का ही राज चलता है। कभी-कभी लगता है कि ये कारखाने वाले जातियों को जीने बचने नहीं देंगे और राजनीति वाले जातियों को मरने नहीं देंगे। दोनों ही अपने अपने फायदे के लिए जातियों के अलग-अलग रूपों को जिंदा या मार कर रख रहे हैं।

एक ओर जहां प्रत्यक्ष रूप से दोनों टेक्नोलॉजियों में इतने अंतर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर परोक्ष रूप से दोनों के हमारी जीवनशैलियों में अलग-अलग प्रभाव रहे हैं। देश के अंदरूनी इलाकों में तथाकथित करेंट (बिजली) तो बहुत समय बाद में आया है। बहुत सारे इलाकों में 50 और 60 के दशकों में बिजली आना आरंभ हुई थी। समाज में बिजली आने के पहले हमारी एकदम अलग तरह की जीवन शैली हुआ करती थी। सभी लोगों के पास बहुत-बहुत सारा समय हुआ करता था। लोग शादी भी करते थे तो हफ्ते-हफ्ते भर की, दस-दस दिनों की किया करते थे। ठीक शादी वाले दिन के हफ्ते भर पहले से कार्यक्रम चालू होकर, शादी के हफ्ते-दस दिन बाद तक चला करते थे। लोग शादियों में शामिल होने के लिए महीने-महीने भर के लिए जाया करते थे। कोई भी चीज दिनों और हफ्तों के हिसाब से हुआ करती थी, बहुत जल्दी कुछ भी नहीं हो जाता था। किसी के घर किसी को खाने पर आमंत्रित किया जाता था, तो वह कम-से-कम घंटे-दो-घंटे पहले जाता, खाकर, घंटा दो घंटा इत्मीनान से बैठकर, बातें करके फिर कहीं वापिस लौट के आता था। यह उस समय की बात है, जब बिजली नहीं थी, और आज की टेक्नोलॉजी पर आधारित आधुनिक उपकरण नहीं थे।

बिजली के आने के बाद से, विज्ञान और आधुनिक टेक्नोलॉजी की दया से साधनों में तेजी आ गई। सभी काम बहुत तेजी से होने लग गए। पांच घंटे का काम पांच-दस मिनट में होने लग गया। जहां एक समय की रोटी खाने के के लिए महिलाओं को चार-चार, पांच-पांच घंटे आटा पीसना पड़ता था। रात में तीन बजे से उठकर आटा पीसती थीं, धान कूटती थीं, हल्दी-मसाले कूटती थीं। न जाने कितनी दूर से पानी लाना पड़ता था, क्योंकि घर के कुएं के पानी से दाल नहीं गलती थी। लकड़ी लाना होता रहा, काटना होता था, सुखाना होता था, सूखी-सूखी लकड़ियां अलग रखना होता था। चूल्हों में लकड़ी जलाते समय कोयला अलग करके रखते जाना होता था। केवल खाना बनाने के लिए ही बहुत सारा काम करना पड़ता था। इसी तरह किलोमीटर दो किलोमीटर दूर के बगल के गांव में जाना होता था, तो न जाने कितनी तैयारी करनी होती थी। छकड़ा/इक्का तैयार करो, बैलों को तैयार करो, उसका भूसा-चारा लादो। और न जाने क्या-क्या! आधुनिक विज्ञान की दया से, ये सारे साधन तेजी के हो गए। दो-तीन घंटों का काम दस-पांच मिनट में होने लग गया, दिन का काम घंटों में होने लग गया।

साधन जब इतनी तेजी के हो गए, तो मुझे लगा कि अब तो लोगों के पास बहुत ज्यादा समय बचना चाहिए, अपना सामाजिक जीवन जीने के लिए, जीवन में सृजनात्मक काम करने के लिए। क्योंकि जब ये साधन नहीं तो थे, तो लोगों को मशीन की तरह काम करना पड़ता था। इस सब के बावजूद उनके पास बहुत समय हुआ करता था।

पुराणों की चर्चाएं होती थीं, रोजमर्रा के कार्यक्रमों में गीत-संगीत हुआ करता था, रोज रात के लोक-नृत्य तो हुआ ही करते थे। लोग शादी भी करते तो हफ्ते-हफ्ते, दस-दस, पंद्रह-पंद्रह दिनों की करते थे। इतने सारे लोगों को इतने दिनों तक खिलाने-पिलाने के लिए कितने दिनों तक कूटना-पीसना भी पड़ता होगा। मगर, इतना सारा-सारा कूट-पीस के बाद भी इतने-इतने दिनों की शादियां कर लेते थे। इन सारे लोगों को लगा कि साधन तेजी होने के बाद ये शादियां और भी लंबी हो जाएंगी। शायद महीने भर की हो जाएंगी! लोग और भी आराम से अपने सभी काम करेंगे। हर सारी चीज के लिए समय की कोई कमी ही नहीं होगी।

मगर देखने में आया कि सबकुछ इससे एकदम उलटा हो गया। साधनों में तेजी आने के बाद, धीरे-धीरे लोगों के पास खाना खाने की भी फुर्सत नहीं रह गई।

आजकल तो लड़के चबूतरे पर बैठे रहते हैं। पूछो कि खाना खाया, तो बोलते हैं कि ‘फुर्सत नहीं मिली’, ‘टाइम नहीं मिला’। शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो पूरा परिवार एकसाथ बैठ के खाना खाता होगा। उस समय घर में एक भी आदमी नहीं होता था, तो लोग इंतजार करते थे। इसलिए, सभी लोग दौड़-दौड़कर आ भी जाते थे कि बाकी लोग इंतजार कर रहे होंगे। सारे लोग होते थे, तो ही खाना परसा जाता था। आज ऐसा नहीं है, कोई भी, कभी भी आ रहा है, कभी भी जा रहा है। किसी को खाना खाने तक की फुरसत नहीं है। पहले किसी घर में कोई मर जाता था, तो महीने भर तक घर में खाना नहीं पकता था। घर में महीने भर तक मेहमानों का जमावड़ा रहता था, और खाना तो सभी खाते ही थे। सब यहां-वहां से आता रहता था। अब कोई मर जाता है तो लोग मोटरसाइकिल पर आकर (और आजकल तो मोबाइल पर ही) पूछते हैं कि कब उठा रहे हैं, कहां लेकर जा रहे हैं, मैं सीधा वहीं पहुंच जाऊंगा। ये भला क्या गड़बड़ हो गई है!

जब साधन नहीं था, और कोई किसी भी समय घर में आता था, तो भी लोग कहते थे ‘खाना खाकर जाओ’। उनको पता था कि इतना मार-मर के खाना पकाना है, कूटना-पीसना है, चूल्हा फूंकना है, कहीं से पानी लाना है, तब कहीं जाकर खाना बनेगा। उसके बाद भी ‘खाना खाके जाना है’, की बात होती थी। उस समय की औरतों को तो, कभी किसी के मुंह में एक निवाला तक नहीं देना चाहिए। जितनी मेहनत से वे खाना पकाती थीं, उनकी तो यह प्रवृत्ति होनी चाहिए थी। उस समय की औरतों को तो ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए था। मगर वे ही खाना खिलाने पर ज्यादा जोर देती थीं।

इसके विपरीत आज महिलाओं को उस समय की तुलना में न के बराबर काम होता है। न कूटना है, न पीसना है, न चूल्हा फूंकना है, न कहीं से पानी लाना है, फिर भी अगर घर में एक मेहमान भी ले आएं तो फट से मर्द को बोलती हैं कि घर को धर्मशाला समझ लिया है क्या? जब देखो तब किसी को पकड़ के ले आते हो! आजकल, ये सारी बातें होने लगती हैं। यही हाल हमारी शादियों और बाकी सारी चीजों का ही गया है, दस-दस, पंद्रह-पंद्रह दिनों तक होने वाली शादियां आज एक-एक दिन, और बाकी कुछ घंटों में ही सिमट गई हैं। दूहा-दुल्हन को अपनी नौकरी से एक-एक दिन की ही छुट्टी मिलती है। आधे से ज्यादा मेहमानों की विदाई शादी खत्म होते-होते उसी दिन हो जाती है। बाकी लोग अगले दिन विदा हो जाते हैं। एक दिन बाद घर में शादी जैसी कोई रौनक दिखाई ही नहीं देती है। यही हाल बाकी सारी चीजों का है।

आधुनिक टेक्नोलॉजी की दया से साधनों में इतनी तेजी आने के बाद भी, क्यों और कहां आकर, ये सारी गड़बड़ हो गई है! जबकि, उस समय साधन न होने के बावजूद भी यह सब आसानी से हो जाता था।

बंजारा औरतें हुआ करती थीं। उनके घरों में सौ-सौ, दो-दो सौ गाएं होती थीं। वे घर का खाना बनाती थीं, गायों का सारा काम करती थीं। गाय के दूध से मक्खन, मट्ठा, घी आदि भी बनाती थीं। इसके अलावा, घरों के और भी ढेर सारे काम करती थीं। इस सब के बाद अपने सारे कपड़े में हाथ से बहुत ही सुंदर कारीगरी करती थीं। पानी लाने के लिए एक अलग ढंग की बहुत सुंदर चुनरी तैयार करती थीं। पत्थर की चक्कियों में आटा पीसते समय, चक्की के नीचे बिछाने का एक बहुत सुंदर कपड़ा होता है, वह बनाती थीं। गायों के श्रृंगार की ढेरों चीजें बनाती रहती थीं। उनके पूरे कपड़ों में ही ढेर सारी कारीगरी हुई रहती थी, इन सभी चीजों में हाथ की बहुत सुंदर कारीगरी होती थी। इतना सारा काम होने के बाद भी, वे इतनी कारीगरी कर लेती थीं। वे कैसे ये सब कर लेती थीं, उनको कैसे इतना सारा समय मिल जाया करता था? आज ऐसा कुछ नहीं करते हुए भी, किसी के पास कुछ समय नहीं है! आखिर ये गड़बड़ कहां हो गई है? अंत में जाकर ये सारी गड़बड़ हमारी जीवनशैली में आई गड़बड़ के कारण ही समझ में आती है। समाज में टेक्नोलॉजी के माध्यम से पड़ते इन सूक्ष्म प्रभावों को भी हमें समझना होगा।

टेक्नोलॉजी के सभ्यताग्रत प्रभाव को समझकर, भारतीयता और आधुनिकता के अंतर को तो आसानी से समझा ही जा सकता है, मगर उसके माध्यम से आधुनिकता के दुष्परिणामों को दूर करने के प्रयासों में भी नई गति लाई जा सकती है। यदि आज भी गांव की सभी टेक्नोलॉजी गांवों में पुनः जीवित कर ली जाए, तो न केवल गांवों की, बल्कि पूरे देश की, बहुत सारी समस्याएं काफी हद तक कम हो जाएंगी। गांव और देश पुनः समृद्ध होंगे सो अलग।

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