अशोक कुमार की चार कविताएं

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फोटो : बिजेन्द्र

1. क्रांति और कविता

मेरे स्वप्नों में आये हैं सारे ईश्वर
और येरुशलम में इकट्ठे होकर
चले गए हैं सामूहिक हड़ताल पर।

फैक्ट्रियों की निकास नालियों से आ रही है
मसान की सी दुर्गंध है
और वहीं एक मजदूर
पत्थर पर घिसकर, तेज़ कर रहा है अपने नाखून।

एक किसान खेतों में पिस्तौल बो रहा है
और पाश सुना रहे हैं कविता।

और मैं डर रहा हूँ कि कहीं यह मजदूर
अपने नाखूनों से मेरा चेहरा न नोच ले।

मैं पाश की एक कविता दोहराकर
उसे यकीन दिलाना चाहता हूँ
कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।

वह मुझे घूर कर देखता है
वह उस किसान से हाथ मिलाकर ज़ोर से हंसता
और मेरे कानों में धीमे से कहता है
कि क्रांति का स्वप्न देखना –
कविता जितना आसान नहीं है कवि!

2. पागलपन

रात अपने अतीत में लौटकर
अंधेरों के इतिहास को-
न्यायोचित ठहराने में व्यस्त है।

और सबसे दूषित नदियों में –
मछलियों के जिंदा रहने को हमने इस वक्त की
सबसे बड़ी उपलब्धि मान लिया है।

इस वक्त की पीठ पर
घावों की एक लम्बी शृंखला है
और उसके रास्ते में
बहुत सारे रक्तवर्णी धब्बे।

यह रास्ता जाता है एक नये तरह के बाजार तक
जहां भाषाएं बिकती हैं
और खामोश हो जाती हैं।

वहीं एक पागल किसी अजनबी सी भाषा में
जोर-जोर से चिल्लाता है
शायद कहता है कि
पागलों की भाषा बिकाऊ नहीं होती।

जब ये रास्ते स्मृतियों के संग्रहालय बनेंगे
और मछलियां चुप्पियों का इतिहास
तब कोई पागल फिर से चिल्लाएगा –
“तुम्हारी दुनिया को समझदार खामोशी से ज्यादा
मुझ जैसे पागल की जरूरत है।”

पेंटिंग : अनिल शर्मा

3. कम से कम जो हम कर सकते थे

कितना कुछ था जो हम कर सकते थे
मसलन! पेड़ काटने के –
सरकारी अभियान के विरुद्ध
लगा सकते थे एक पौधा।

मजदूरों के कान में यह कह सकते थे
कि तुम्हें जो यह मिल रहा है
तुम्हारे हक से बहुत कम है।

हम सांप्रदायिकता के विरुद्ध
एग्जिट कर सकते थे व्हाट्सएप ग्रुप
रोक सकते थे फॉरवार्ड्स
साइबर सेल में दे सकते थे शिकायत।

हम महिलाओं के लिए बना सकते थे
सुरक्षित सड़कें, सुरक्षित दफ्तर
सुरक्षित बसें, मेट्रो, ट्राम, और घर
ईरानी महिलाओं के समर्थन में लिख सकते थे पोस्ट
या फिर कम से कम
दहेज के लिए कर सकते थे इनकार।

हम हाकिम को एक पत्र लिख सकते थे
याद दिला सकते थे वायदे
रोजगार कार्यालयों में अर्जियां लगाते हुए
भेज सकते थे सेल्फियां।

हम उन बच्चों को सिखा सकते थे वर्णमाला
जो स्कूल के दरवाजे के बाहर
रोड़ी के ढेर पर खेलते हैं सारा दिन।

किन्तु हमने ऐसा कुछ नहीं किया
हमने अपनी सोसाइटियों के तमाम रास्तों पर
लोहे के बड़े-बड़े गेट लगवाए
और यह लिखा कि “यह आम रास्ता नहीं है”।

4. अभी मत आना तुम

प्रतीक्षा के एकाकी क्षणों में
बारिश के ये सूक्ष्म कण
नुकीले तश्तर से चुभते हैं शरीर पर।

ये थकी उदास किरणें
बादलों में सेंध मारकर
पहुंच रही हैं घर के दरवाजे तक।

इंतज़ार में खुले किवाड़
बतियाते हैं आपस में
और हवा के साथ बंद हो जाते हैं।

पर तुम मत आना अभी।

अभी नहीं मिल पाएगी मुझे
तुम्हारे आने की खबर
अभी सारे खबरनवीस नशे में धुत पड़े हैं।

अभी मत आना तुम।

अभी तुम्हें तोहफे में
गुलाब नहीं दे पाऊँगा
अभी सारे बागवान
राजपथ पर फूलों की खेती करने में व्यस्त हैं।

अभी मत आना तुम।

अभी नहीं सुन पाऊंगा
तुम्हारी कोई भी बात
अभी इस शहर में नारों का शोर बहुत है।

अभी मत आना तुम।

अभी सारे पनिहारे
मिटाने में लगे हैं
शहर की छाती से जूतों के बदरंग निशान।

अभी मत आना तुम।

अभी बिखरी पड़ी है पन्नों पर
प्रेम और विद्रोह में उलझी मेरी कविता
खड़े हो जाने के इंतज़ार में।

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