— डॉ. सुरेश खैरनार —
वर्ष 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद, बंगाल में अंग्रेजी राज पूरी तरह से कायम होने के बाद, भारत के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों ने अपने पैर पसारने की शुरुआत की और सौ साल बाद, 1857 की लड़ाई के बाद, 190 साल एकछत्र राज किया। इसी दौरान राजा राममोहन राय, 22 मई 1772, महात्मा ज्योतिबा फुले 1827, और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 26 सितंबर 1820 को पैदा हुए जिन्होने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, सामाजिक सुधार के कामों में अपना संपूर्ण जीवन खपा दिया।
राजा राममोहन राय प्लासी की लड़ाई के पंद्रह साल बाद पैदा हुए। यह दिलचस्प है कि उनके पूर्वज मुर्शिदाबाद के नवाबों की सेवा में थे। महात्मा ज्योतिबा फुले 1857 के स्वातंत्र्य युद्ध के तीस साल पहले पैदा हुए और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी 37 साल पहले। राजा राममोहन राय 61 साल की जिंदगी जिए, ज्योतिबा फुले 63 साल की और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 69 साल।
इस दुनिया में रहते हुए, तीनों महानुभावों ने अपना जीवन, शुरुआती पंद्रह-बीस साल छोड़ दें, तो हिंदू धर्म में सदियों से प्रचलित सड़ांध के खिलाफ लगाया। सती प्रथा, महिलाओं के शोषण, और जाति-प्रथा के खिलाफ, तीनों ने अपनी जिंदगी खपा दी! अन्यथा आज भी महिलाओ को चिता में जलाया जा रहा होता, और चूल्हा–चौका और बच्चों को जन्म देने के अलावा उनकी जिंदगी में और कुछ नहीं होता।
राजा राममोहन राय अप्रैल 1831 में इंग्लैंड गए थे और 27 सितंबर 1833 के दिन लंदन के करीब स्टपल्टन हील में, इस दुनिया से चल बसे।
इतिहास के एक सिरे पर, भारत का अतिविशाल भूतकाल! और अमर्याद भविष्यकाल! बीच में राजा राममोहन राय एक जिंदा सेतु जैसे खड़े थे! एक तरफ सड़ी-गली पुरातन जाति-व्यवस्था, अंधश्रद्धा, सरंजामशाही, रूढ़ि परंपरा के अगणित पहाडों के बीच में! विकास की पारंपरिक कल्पना, अनेकेश्वरवाद, तो दूसरी तरफ आधुनिक मानवतावाद, विज्ञानाभिमुखता, लोकतंत्र और एकेश्वरवाद को आगे बढ़ाने का इतिहासप्रदत्त कार्य राजा राममोहन राय ने किया। और इस काम के लिए, आज से दो सौ साल पहले शुरुआत की एकला चलो से। तत्कालीन परंपरावादी, कर्मकांडी, कूपमंडूक लोगों के प्रखर विरोध को सहन करते हुए! सोचकर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं! 1818 में सतीप्रथा के खिलाफ पहला लेख लिखने के बाद तत्कालीन ब्रिटिश शासन का ध्यान आकर्षित किया और पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड बेंटिक ने 1828 में सतीप्रथा के खिलाफ कानून बनाया और उसपर पाबंदी लगा दी! यह राजा राममोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है ! और दूसरी उपलब्धि थी एकेश्वरवाद के लिए ब्रह्म समाज की स्थापना। 20 अगस्त 1820 के दिन 48, चितपुर रोड कोलकाता, इस जगह पर राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की।
ब्रह्म समाज के उद्देश्य और भूमिका, खुद राजा राममोहन राय ने 5 जनवरी 1830 को निश्चित की : “विश्वस्त मंडल को यह जगह, इमारत, परिसर, इसमें का सामान, सब कुछ, लोगों के रहने तथा आमोद-प्रमोद के कार्यक्रम हेतु, किसी भी तरह के भेद-भाव के बिना! सभी को जिनका, निर्गुण, निराकार, शाश्वत, अनादि-अनंत, ऐसे ईश्वर पर विश्वास है! ऐसे किसी भी धर्म के लोग, इकट्ठे होकर यहाँ अपने कार्यक्रम कर सकते हैं। ऐसा राजा राममोहन राय ने आग्रह किया है! और आगे जाकर उन्होंने अपने एक मित्र को कहा कि “मेरी मृत्यु के बाद हिंदुओ ने मेरे पार्थिव शरीर पर अपना हक जताया तो मुस्लिम या ख्रिश्चन धर्म के लोगों ने, तो मुझे बहुत खुशी होगी ! क्योंकि मैं खुद को किसी भी धर्म का नहीं मानता हूँ! मैं खुद विश्वधर्म का हिमायती हूँ!” यह देखकर तत्कालीन महाराष्ट्र के एक समाज सुधारक श्री. एम.जी. रानडे ने कहा कि “इन दस्तावेजों से अपने को असली अध्यात्मिकता तथा गहरी धार्मिकता और वैश्विक सहनशीलता का परिचय हो रहा है! और इसका महत्त्व शायद कुछ शताब्दियों के बाद लोगों को समझ में आएगा।”
अठारहवीं शताब्दी के अंत में, राजा राममोहन राय और अठारहवीं शताब्दी के शुरू में महात्मा ज्योतिबा फुले! और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों की भूमिकाओं पर भी कुछ लोग उंगली उठाते हैं! हिंदुत्ववादियों के अलावा, स्वघोषित क्रांतिकारी, और अंतिम सत्य का दावा करनेवाले! इनका आरोप है कि “अंग्रेजों के खिलाफ इन लोगों ने क्या किया?” बिल्कुल वाजिब सवाल है। हालांकि राजा राममोहन राय को राजा का खिताब, दिल्ली केतत्कालीन बादशाह अकबर द्वितीय ने ही दिया था। और वह जीवन के आखीर में 15 नवंबर 1830 के दिन जहाज से इंग्लैंड की यात्रा पर,निकलकर 8 अप्रैल 1831 को इंग्लैंड के तट पर पहुंचे थे। उनके प्रतिनिधि की हैसियत से ही गए थे और उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने, उनके छीने गए विशेषाधिकारों को बहाल करने की, और उनका सालाना भत्ता बढ़ाने की अर्जीदाखिल की थी। उनके उस प्रयास से अकबर द्वितीय का सालाना भत्ता तीन लाख रुपये हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा बढ़ाने की बात भी जगजाहिर है!
जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है, “वह उस परिवार में पैदा हुए थे जो कि मुर्शिदाबाद के नवाब की नौकरी में थे!” सर सैयद अहमद के पूर्वज उस समय के बादशाह की सेवा में थे! और वह खुद अंग्रेजी न्याय व्यवस्था में जज के पद पर कार्यरत थे! वैसे ही जैसे गाँधीजी के पिता, करमचंद गांधी पोरबंदर के महाराज के दीवान थे! और जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज कश्मीर से आगरा तत्कालीन बादशाह की सेवा में स्थानांतरित हुए! लेकिन कालसापेक्षता का एक सिद्धांत है, और उसके अनुसार ही, इंसानों के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहिए!
महाराष्ट्र में सत्तर के दशक में एक कम्युनिस्ट इतिहासकार ने छत्रपति शिवाजी महाराज को सामंतवादी राजा कहा था और उसी विचारधारा के कामरेड गोविंद पानसरे जी को ‘सच्चा शिवाजी कौन’ नाम की पुस्तिका लिखकर प्रायश्चित करना पड़ा।
कभी-कभार गांधीजी के बारे में यह सवाल उठाया जाता है कि “उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के सवाल पर, क्यों ध्यान नहीं दिया?” गांधीजी 1893 से 1914 तक बीस साल से भी अधिक समय दक्षिण अफ्रीका में रहे। ये उनके जीवन के निर्माणकारी वर्ष थे (मोहन से महात्मा का सफर!) और इन वर्षों में ही, उनके भीतर उन विचारों का विकास हुआ, जिनका बाद में न केवल भारत के इतिहास पर, बल्कि सही अर्थों में पूरे संसार पर गहरा असर पड़ा। लेकिन विडंबना यह है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के कार्यों पर संदेह जताया जाता है, यह कहकर कि उन्होंने भारतीय आप्रवासियों की समस्याओं को तो उठाया, पर अफ्रीकी अश्वेतों के लिए कुछ नहीं किया, क्योंकि वे वस्तुतः जातिवाद के विरुद्ध नही थे! दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष की सीमा तथा महत्ता को समझने के लिए उन परिस्थितियों का संक्षिप्त अवलोकन महत्त्वपूर्ण होगा, जो उनके सामने थीं। जब 1893 में एक भारतीय फर्म के दीवानी मुकदमे में कानूनी सलाहकार की हैसियत से काम करने के लिए वह मात्र तेईस वर्ष की आयु में नेटाल पहुँचे थे! तो दक्षिण अफ्रीका में, भारतीयों की समस्या के बारे में, वे नहीं के बराबर जानते थे!
दक्षिण अफ्रीका में रहकर, भारतीयों के सवालों को लेकर मार्गदर्शन करना चाहिए, इस अनुरोध पर एक साल के लिए वह रुक गए। बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी! इक्कीस साल दक्षिण अफ्रीका में रहने के लिए मजबूर हुए!
जहाँ उन्होंने 1906 में अपने ऐतिहासिक सत्याग्रह की खोज की, और दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले भारतीयों की लगभग सभी माँगों को लेकर, बीस साल के ऊपर लड़ाई लड़ी और कामयाबी हासिल करने के बाद यानी 45 साल की उम्र पार करने के बाद भारत लौटे। (यही है मोहन से महात्मा का सफर!) उनके इस काम को देखते हुए, दक्षिण अफ्रीकी कांग्रेस ने अपने आदर्श के रूप में तो महात्मा गांधी को स्वीकार किया ही, रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया! खुद दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के नेता नेल्सन मंडेला और अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर, महात्मा गांधी कोअपने आंदोलन के आदर्श के रूप में देखते थे। लेकिन हमारे अपने देश में कुछ लोग नुक्ताचीनी वाले सवाल उठाते रहते हैं- गांधी ने यह क्यों किया? वह क्यों नहीं किया? इस तरह बाल की खाल निकालने वालों ने खुद क्या योगदान किया है? फिर उनकी शारीरिक हत्या करनेवाले लोगों में, और आप में क्या फर्क रह जाता है? महात्मा गांधी की कार्यशैली की खासियत थी कि वह जिस मुद्दे को लेकर काम करते थे, अर्जुन की तरह उनकी आँख उसी पर लगी रहती थी, वह अपनी पूरी क्षमता से अपने को उसी में झोंक देते थे।इसलिए कई मुद्दों पर उन्हें यह क्यों नहीं किया, और वह क्यों नहीं किया,जैसे सवालों का सामना करना पड़ है।
रही बात महात्मा ज्योतिबा फुले की। 1857 के युद्ध के समय वह तीस साल के थे! उन्होंने भीमा-कोरेगांव की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत होने पर खुशी जाहिर की थी ! और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने तो, उसे महार रेजिमेंट के शौर्य दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की। क्योंकि पुणे की पेशवाई मेंदलित, महिला एवं पिछड़ी जातियों पर अत्याचार हो रहे थे। उनसे मुक्ति के रूप में, अंग्रेजों के राज का समर्थन किया! और कम-अधिक प्रमाण में हजारों सालों से, भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को, शक, हूणों से लेकर, आर्य, तुर्क, मुगलों से लेकर पर्शियन, डच, फ्रेंच, पुर्तगाली और अंग्रेजों तक, कथित हिंदू कट्टरपंथियों की तरफ से चलाई जा रही सड़ी- गली छुआछूत तथा जातिप्रथा के कारण! (जिसमें अस्पृश्यों को गले में मटका और कमर में झाडू बांधकर चलने से लेकर उनकी छाया तक नहीं पड़नी चाहिए जैसे अमानवीय बंधन लादे हुए थे) यह मनुष्य के आत्मसम्मान की कदम-कदम पर धज्जियाँ उड़ाने के समय, किससे उस समय के सत्ताधारी वर्ग के प्रति वफादारी की उम्मीद कर सकते हो? बहुसंख्यक आबादी को लगता रहा होगा कि “वर्तमान बर्बर सत्ताधारियों की बनिस्बत नया जो भी कोई आक्रमणकारी होगा, शायद बेहतर होगा, इस आशा में मूकदर्शक बने होंगे!” और गुरु गोलवलकर के अनुसार “पाँच हजार वर्ष पुराने, आदर्श संविधान के अनुसार, क्षत्रियों को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के लोगों को, शस्त्रधारी होने की मनाही जो थी।
यह बात कुछ हद तक मुस्लिम और अंग्रेजी राज के बारे में भी सही है। स्वामी विवेकानंद ने भी भारत में इस्लाम और ख्रिश्चन धर्म के आगमन के कारणों के बारे में कहा है कि “हमारे समाज में चली आ रही ऊँच-नीच की और छुआछूत जैसी जातिप्रथा के कारण हिंदू धर्म के कुछ लोगों ने, मुक्ति के रूप में इन धर्मों का स्वीकार किया है!”
क्या राजा राममोहन राय या पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर, महात्मा फुले, महात्मा गांधी को हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी लोगों की आलोचना नहीं सहनी पड़ी? सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया इसी तरह से चलती रहती है!