— राकेश सिन्हा —
देश में एक लोकहितकारी और आत्मनिर्भर व्यवस्था के निर्माण के लिए यह जरूरी है कि स्वस्थ और गरिमामय जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं, सेवाओं और सुविधाओं का निर्माण पूरी आबादी के लिए हो। साथ ही पूरी आबादी के पास इन वस्तुओं, सेवाओं और सुविधाओं को प्राप्त कर सकने लायक क्रयशक्ति भी होनी चाहिए। और यह क्रयशक्ति अर्थव्यवस्था में उनके योगदान के आधार पर अर्जित होनी चाहिए, किसी की दया अथवा किसी प्रकार के अनुदान के सहारे नहीं।
इस तरह की क्रयशक्ति प्राप्त कर सकने लायक आय वाले रोजगार का अवसर पूरी आबादी के पास होना चाहिए और इसके लिए सर्वोपयुक्त अर्थव्यवस्था, उसमें निहित उत्पादन व्यवस्था को लागू करना देश की केंद्रीय सरकार के साथ ही राज्य सरकारों की संयुक्त जिम्मेदारी है। ऐसी व्यवस्था छोटी मशीनों द्वारा उत्पादन पर ही आधारित हो सकती है। ऐसी व्यवस्था में सभी प्रकार के उत्पादन के लिए जरूरी मशीनें और ऊर्जा के स्रोत पूरे देश में उसी प्रकार वितरित होंगे जैसे कृषि में उत्पादन के लिए जमीन पूरे देश में फैली हुई है। उत्पादन की नवीनतम तकनीकी में इस प्रकार की मशीनों का विकास हो भी रहा है। जरूरी यह है कि इस प्रकार की मशीनें सीधे उत्पादन का काम करनेवाले श्रमिकों या श्रमिक समूहों तक पहुंच सकें ताकि उन्हें अपने श्रम का पूरा फल मिले।
भविष्य की अर्थव्यवस्था में कृषि की क्या स्थिति होगी, इसका भी आकलन कर लेना जरूरी है। तात्कालिक तौर पर तो कृषि उत्पादन को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना बहुत जरूरी है। अगर हम अपनी पूरी आबादी को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना चाहते हैं तो हमें कृषि का प्रतिव्यक्ति उत्पादन दोगुना तक करना होगा। अगर हमारी आबादी और बढ़ती है तो हमें उत्पादन भी उसी अनुपात में बढ़ाना होगा। हमारी पूरी कृषिभूमि तो और नहीं बढ़ने जा रही है और न बाकी रिहाइशी जमीन। कृषि की उत्पादकता बढ़ाने की भी एक सीमा है। इसलिए हमें अपनी आबादी नियंत्रित करने का कोई उपाय भी जल्द से जल्द खोजना होगा।
लेकिन जो भी आबादी है, या किसी भी समय होगी उसमें काम कर सकनेवाले आयुवर्ग के ज्यादा से ज्यादा लोगों को अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदान देना चाहिए। तर्कसंगत व्यवस्थाओं में यह कुल आबादी का कम से कम आधा होता है लेकिन भारत में यह चालीस प्रतिशत से भी कम है। इसमें सुधार के लिए हमें एक सामाजिक आंदोलन की भी जरूरत होगी, ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को आर्थिक रूप से पूरी तरह सक्रिय करने के लिए। उसी में से जनसंख्या नियंत्रण का रास्ता भी निकल सकता है।
लेकिन जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होगा, कुल उत्पादन में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं का हिस्सा भी बढ़ता जाएगा जिससे आम लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार होता रहे। ऐसे में कुल उत्पादन में कृषि का हिस्सा लगातार कम होता जाएगा और अंततः दस प्रतिशत से भी कम पर सीमित हो सकता है। ऐसे में कृषि का संकट लगातार बढ़ता जाएगा।
आज भी देश की ग्रामीण आबादी लगभग सत्तर फीसद है और देश की कुल श्रमिक आबादी का लगभग आधा हिस्सा कृषि से जुड़ा हुआ है। जाहिर है, ग्रामीण आबादी केवल कृषि पर निर्भर नहीं रह सकती, इसलिए देश के हर हिस्से में रोजगार के नए अवसर, उससे जुड़ी हुई उत्पादन व्यवस्था का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में ही करना होगा ताकि लोगों को अपना घरबार छोड़कर रोजगार के लिए भटकना न पड़े। ग्रामीण इलाकों में सामुदायिक जीवन की संस्कृति को बढ़ाना होगा (जैसा पंजाब के गांवों में आज भी दिखाई देता है और शायद देश के सभी ग्रामीण इलाकों में ऐतिहासिक रूप से रहा होगा)।
आज देश में लागू अर्थव्यवस्था और इसपर छाये वर्तमान संकट की मार भी देश की आबादी का यह सत्तर फीसद ग्रामीण हिस्सा और उसमें भी खेती से जुड़ा वर्ग ही झेल रहा है। तीन विवादग्रस्त कृषि कानूनों से यह भी स्पष्ट हो गया है कि सरकार के मन में कृषक वर्ग के लिए किसी प्रकार के आर्थिक हित और व्यवस्था सुधार की बात है ही नहीं। यह सरकार सीधे तौर पर बड़े पूंजीपति और व्यापारी वर्ग के फायदे के लिए काम करती है और उसके आर्थिक लाभ में ही देश का हित देखती है। इसलिए कृषि व्यवस्था को पूरी तरह बरबाद होने से बचाना है तो इसकी पहल देश के किसान नेतृत्व को खुद करनी होगी।
किसान आंदोलनों का हश्र हमने देख लिया है। यह थोड़े दिन की सनसनी पैदा करता है। अभी किसानों में इन तीन कृषि कानूनों के प्रति आक्रोश है। अगर यह आक्रोश केवल विरोध प्रदर्शन तक सीमित रह जाता है तो पुराने आंदोलनों की तरह ही भुला दिया जाएगा। किसान आंदोलन के सामने यह खुली चुनौती है। किसान नेतृत्व को खुद अर्थव्यवस्था बदलने की पहल करनी होगी। इस पहल का नेतृत्व भी किसानों के उसी वर्ग को करना होगा जो वर्तमान आंदोलन की अगुआई कर रहा है। इसके लिए उसे खुद ही एक वैकल्पिक व्यवस्था का नक्शा बनाना होगा और खुद ही उसे जमीन पर उतारना होगा।
एक नई अर्थव्यवस्था को लागू करने के लिए जितने संघर्ष और जितनी राजनीतिक सक्रियता की जरूरत है वो करना होगा लेकिन मूल उद्देश्य हमेशा अर्थव्यवस्था परिवर्तन होगा और इसपर निरंतर नजर बनी रहनी चाहिए। नई अर्थव्यवस्था, उसके लिए जरूरी संघर्ष, संगठन और राजनीति की रूपरेखा तो आपस में व्यापक चर्चा और बहस के बाद ही बन पाएगी और व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन के अनुभवों के साथ ही उसमें जरूरी सुधार तथा अन्य परिवर्तन होते रहेंगे। लेकिन इसकी शुरुआत के लिए कुछ प्रारंभिक सुझाव यहां दरपेश हैं।
1. हमारी अर्थव्यवस्था जिस विश्व अर्थव्यवस्था का हिस्सा है वह औद्योगिक उत्पादन और लगातार बढ़ते सेवा क्षेत्र पर आधारित है। हमने भी देश के आर्थिक विकास के लिए इसी रास्ते को चुना है। इसलिए आज हम इससे बिलकुल कटकर अपनी एक बिलकुल अलग व्यवस्था नहीं बना सकते। लेकिन हम औद्योगिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र का अपनी परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप भारतीयकरण अवश्य कर सकते हैं। अपनी वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का नक्शा तैयार करने में हमें इस बात का ध्यान रखना होगा
2. हमारी सुरक्षा व्यवस्था भी इसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का ही अभिन्न हिस्सा है। हमारा अपना पड़ोस हमारी सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है। ऐतिहासिक रूप से भारत अपने ऊपर बाहर से होनेवाले आक्रमणों के बारे में कभी सचेत नहीं रहा। हमारी वैकल्पिक व्यवस्था में हमें अपनी सुरक्षा के लिए आत्मनिर्भर होने की भी मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी।
3. आज की विश्व व्यवस्था में खाद्यान्न के उत्पादन से ज्यादा आर्थिक मूल्य उसे उपभोक्ता के लिए तैयार खाद्य पदार्थ में बदलने में है, और उपभोक्ता खाद्य पदार्थ तैयार करने से भी ज्यादा आर्थिक मूल्य उसके विक्रय में है। अतः इन तीनों को एकसाथ जोड़कर किसान और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के नियंत्रण में लाना होगा। इसके लिए हमें उपभोक्ता बाजार का भी मंडल और जिला स्तर तक विकेंद्रीकरण करना होगा।
4. इसी प्रकार खाद्य पदार्थों से अधिक आर्थिक मूल्य गैर-कृषि वस्तुओं के उत्पादन और विक्रय में है तथा औद्योगित उत्पादन से अधिक आर्थिक मूल्य सेवा क्षेत्र में है। हमें उस पूरी चीज को अधिक तर्कसंगत बनाने के साथ ही आपस में जोड़कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी उतना ही पूरा हिस्सा बनाना होगा जितना यह आज बड़े शहरों और देश के वित्तीय केंद्रों का हिस्सा है।
5. अगर हम भारतीय कृषि व्यवस्था में यूरोप और अमरीका की अंधी नकल करते हुए कृषि में अत्यधिक मशीनीकरण और रासायनिकीकरण करते हैं तो खेती महंगी भी होगी और जहरीली भी। ऐसी कृषि हमेशा घाटे का धंधा ही बनी रहेगी। हमें अपनी परिस्थितियों के अनुरूप कृषि की एक आधुनिक और उपयुक्त पद्धति विकसित करते रहनी पड़ेगी जिसमें उत्पादकता भी अधिक हो और गुणवत्ता भी। यह काम भारत की पारंपरिक खेती के तार्किक आधुनिकीकरण से ही हो सकता है जिसमें लागत कम से कम हो और उपज अधिक। फसल के भंडारण तथा प्रसंस्करण का इंतजाम ग्राम पंचायत के स्तर पर करना होगा।
6. किसी भी शोषणकारी व्यवस्था में सबसे अधिक शोषण कृषि का ही होगा। अगर हम चाहते हैं कि किसान को उसके हक की आमदनी मिले तो हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ग्रामीण क्षेत्र के पूरे श्रमिक वर्ग को भी उसके हक का उचित हिस्सा मिले। किसी भी वर्ग की आमदनी कम से कम इतनी हो कि पूरा परिवार गरिमा के साथ स्वस्थ जीवनयापन कर सके।
7. नई व्यवस्था का नक्शा बनाते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि कोई भी समाज अपनी सर्वोच्च संभावनाओं तक तभी पहुंच सकता है जब उसके हर सदस्य को अपना सर्वश्रेष्ठ कर सकने की आजादी भी हो और अवसर भी। अगर समाज में अवसर सभी लोगों के लिए नहीं हैं और उन अवसरों को प्राप्त करने के लिए उन्हें आपस में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है तो कुछ लोग अवसर प्राप्त करने से छूट जाएंगे। ऐसी स्थिति में अवसर प्राप्त करने के लिए सब तरह की तिकड़म और भ्रष्टाचार होना स्वाभाविक है। ऐसा समाज कभी अधिक उन्नति नहीं कर पाएगा।
8. समाज अपना सर्वश्रेष्ठ प्राप्त कर सके इसके लिए जरूरी है कि किसी भी वर्ग के साथ भेदभाव, ऊंच-नीच का व्यवहार न हो। जिस समाज में कुछ वर्गों के ऊपर बंदिशें होती हैं और उनके साथ अत्याचार होता है तो वह पूरा समाज ही दबा-कुचला रह जाता है। इसका एक उदाहरण हम अपनी सैन्य क्षमता में देख सकते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि देश में व्याप्त जातिगत भेदभाव और दमन के कारण हमारे राजे रजवाड़े और नवाब, सभी बार-बार विदेशी आक्रमणकारियों के सामने पराजित होते रहे हैं। जबकि दोनों विश्वयुद्धों में भारतीय सैनिकों की सैन्य क्षमता का लोहा सभी देशों ने माना। आज भारत की सेना दुनिया की सबसे सक्षम लड़ाकू सेनाओं में से एक है जो अगर किसी से कमजोर पड़े भी तो वैसा सिर्फ उपलब्ध हथियारों की गुणवत्ता की कमी की वजह से होगा, न कि सैन्य क्षमता की कमी के चलते। यह इसलिए है कि आज हमारी सेना में बड़ी संख्या में समाज के बहुजन वर्ग के सैनिक भर्ती हो रहे हैं। यह बात जीवन के हर क्षेत्र पर लागू होती है। जिस क्षेत्र में समाज के बहुजन वर्ग की बहुसंख्या होगी उस क्षेत्र में भारत हमेशा अग्रणी रहेगा। यह बात महिलाओं पर सबसे अधिक लागू होती है। जिस देश में और देश के अंदर समाज के जिस वर्ग में महिलाओं पर बंदिशें होंगी, उनको समाज में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने से किसी भी तरह से रोका जाएगा, देश और समाज का वह वर्ग हमेशा पिछड़ा रहेगा।
आज जब विश्व की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के कारण हिली हुई है और हमें अपने देश की अर्थव्यवस्था को फिर से गठित करना पड़ेगा तब हमारे सामने नई चुनौतियां भी हैं और नए अवसर भी। आशा है कि देश का किसान नेतृत्व ऐसी स्थिति में वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए एक मजबूत पहल करेगा और देश के आर्थिक तथा राजनीतिक भविष्य की दिशा निर्धारित करने में अपनी निर्णायक भूमिका निभाएगा।