— हेमंत —
विशेष ‘राज्य’ के दर्जा के लिए बरसों से केन्द्र में ठोस मानक बने हुए हैं। बिहार का प्रभु वर्ग पिछले पांच-छह दशकों से कहता आ रहा है कि बिहार की बीमारी के लक्षण केंद्र के मानकों पर खरे उतरते हैं और विशेष दर्जा ही एकमात्र ‘दवा’ है। इसके बावजूद केन्द्र के शासकों और प्रशासकों के पास तर्क या तथ्य के ऐसे कौन से हथियार हैं जो उन्हें बिहार को विशेष राज्य दर्जा देने से रोकने और पहले से बने हुए मानकों (ठस्स!) को बेमानी न करार देने की ताकत देते हैं?
यह सवाल उन प्रभुओं के लिए भी अबूझ बना हुआ है, जो पिछले 33 सालों में (1989 से) बिहार की जनता की ताकत का समर्थन पाकर कभी न कभी केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए और आज भी विशेष दर्जा की मांग को मजबूती देने के लिए जनता से ताकत की मांग कर रहे हैं।
हाँ, इस सवाल का जवाब देश के कुछ खास लोगों को पिछले सालों में कुछ-कुछ बुझाया। जब बिहार में ‘विशेष पैकेज’ बनाम ‘विशेष दर्जा’ का चुनावी संघर्ष शुरू हुआ, तो बिहार की आम जनता को भी इस सवाल और जवाब की राजनीति का राज बुझाने लगा।
अब तक के तमाम राजनीतिक विमर्शों का एक संदेश–एक मैसेज–यह है कि विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग से जुड़ी बहस आमलोगों के लिए मायने नहीं रखती। बिहार के गरीब आम जन के लिए तो यह सिर्फ एक नारा है। ऐसा नारा, जो घोर गरीबी, पिछड़ेपन, लूट और भ्रष्टाचार के बीच भी गरीबों में प्रभुवर्ग द्वारा दिखाए जा रहे ‘विकास’ के सपने के प्रति उम्मीद बनाए रखे।
पिछले कुछ बरसों से बौद्धिक-सत्ता पर नियंत्रण करनेवाले विशेषज्ञ प्रदेश के ‘स्टेट पावर’ द्वारा देश के ‘स्टेट पावर’ को इस बात के प्रति कायल करने की कोशिश करते दिखाते आ रहे थे कि बिहार को विशेष श्रेणी का दर्जा देना निहायत जरूरी क्यों है? सिर्फ ऐसा दिखाना ही उनका लक्ष्य रहा। यही मूल समस्या के समाधान की प्रमुख बाधा थी और है, क्योंकि यह कोशिश ‘राजीव’ के जमाने में राजीव छवि, लालू के जमाने में लालू छवि, और नीतीश राज में नीतीश-छवि के फ्रेम में बांधकर प्रोजेक्ट करने मात्र के लिए लक्षित थी।
आजादी के पूर्व और बाद के शासक-प्रशासक भी अपनी सत्ता की सुरक्षा के लिए समाज और जनता की ‘याचक छवि’ की पहचान करते रहे। वे दावा करते रहे कि बिहार जितना भी आगे बढ़ा, वह शासकों-प्रशासकों की कृपा का फल है। अभी भी विशेष दर्जे की मांग का मूल ‘थीम’ यही है : “डीयर केन्द्र के शासको-प्रशासकों, बिहार आज आधा खाली गिलास जैसा है। जब तुम सत्ता में नहीं थे, तब तो यह पूरा खाली गिलास था। लेकिन तुम्हारी कृपा से आधा गिलास भरा। यानी जो भरा वह तुम्हारी कृपा का नतीजा था। फिर कृपा करो, तो पूरा गिलास भर जाएगा।”
‘प्रेत बाधा’ बनाम ‘प्रेत छाया’
पिछले सौ साल के तथ्यों-आंकड़ों के इस इतिहास से पढ़े-लिखे लोगों को यह बात समझ में आती है कि क्यों केंद्र सरकारें विशेष राज्य का दर्जा देने की बिहार की मांग ठुकराती आयी हैं?
विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग के औचित्य के लिए बिहार का तर्क यह है कि वह गरीब एवं पिछड़ा इसलिए है क्योंकि उसके सिर पर औपनिवेशिक काल के ‘इतिहास’ का सबसे ज्यादा बोझ है। बोझ की पीड़ा का ‘वजन’ भी ज्यादा है और भारी भी। उस बोझ को उतारे बिना अथवा उसको ढोने के लिए अतिरिक्त ताकत प्राप्त किये बिना वह विकसित प्रदेशों की कतार में नहीं आ सकता। दिल्ली में बैठे केंद्रीय सत्ता के प्रभुओं के लिए आज तक यह सवाल विचारणीय हुआ ही नहीं कि विशेष राज्य के दर्जा के लिए इतिहास के बोझ की पीड़ा का ‘वजन’ भी एक पैमाना होना चाहिए। बिहार की सत्ता-राजनीति के प्रभु इतिहास के इस बोझ को ‘प्रेत-बाधा’ कहते आये हैं और केन्द्र की सत्ता पर काबिज प्रभु इसे ‘प्रेत छाया’ मानते आए हैं।
लेकिन 21वीं सदी के प्रथम दशक में विकास की अवधारणा में तीखा मोड़ आ गया। राज्य-सत्ता पर काबिज प्रभु कहने लगे – “उपनिवेशवाद के काल का इतिहास भारत की विरासत है। वह ऐसा ‘प्रेत’ है, जिससे मुक्ति नहीं, बल्कि उसके सहयोग से ही देश में विकास संभव होगा। उस प्रेत की मदद से ही हमारा भारत महान् विश्व के ‘सुपर पावर’ की कतार में शामिल हो सकता है।”
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तो यहां तक कह गये कि “ब्रिटेन के साथ भारत के अनुभव के हितकारी परिणाम भी रहे हैं। कानून का शासन, संवैधानिक सरकार, स्वतंत्र प्रेस, व्यावसायिक नागरिक सेवा, आधुनिक विश्व विद्यालय और शोध प्रयोगशाला इन सबकी हमारी धारणाएं उस कड़ाही में पके हैं जिसमें एक प्राचीन सभ्यता वर्तमान समय के प्रभुत्वकारी साम्राज्य के संपर्क में आयी थी। ये सभी ऐसे तत्त्व हैं जिनको हम आज भी सम्मान देते हैं और अपने दिल में संजोए हुए हैं। हमारी न्यायपालिका, हमारी विधिक व्यवस्था, हमारी नौकरशाही, हमारी पुलिस सभी वे महान संस्थाएं हैं जो ब्रिटिश-भारतीय प्रशासन से निकली हैं और जिन्होंने देश की अच्छी सेवा की है। ब्रिटिश राज की सभी धरोहरों में, कोई भी इतनी महत्वपूर्ण नहीं, जितनी कि अंग्रेजी भाषा और आधुनिक शिक्षा की उनकी देन है।’ (8 जुलाई, 2005 को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ऑनरेरी उपाधि लेते समय दिये गये भाषण का अंश)।
और, अब हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशों में जाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उत्तराधिकारी देशों के शासकों से सहयोग के लिए, और प्रवासी भारतीयों के समक्ष भारत के पूर्ववर्ती कांग्रेस शासन को भला-बुरा कहते हुए देश को विश्व के ‘सुपर पावरों’ की कतार में खड़ा करने के लिए, जिस आर्थिक विकास के मनमोहक मंत्र का जाप कर रहे हैं, उसका आशय मनमोहन-सूत्रों की विस्तार-व्याख्या से अलग कहाँ है?
यह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अच्छी तरह मालूम था, लेकिन वह करते क्या?
विशेष दर्जे की बिहार की मांग का तो मतलब था – उपनिवेशकालीन नीतियों से मुक्ति की मांग। लेकिन, यह मांग मानना केंद्र में काबिज किसी भी प्रभु-वर्ग के लिए संभव नहीं। क्योंकि वे खुद जिस इतिहास के ‘बल’ पर प्रभु बने हुए हैं, वे उसी इतिहास के ‘बोझ’ को प्रजा के सिर से उतारने की मांग कैसे स्वीकार कर सकते हैं?
2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजद से मेल कर बिहार की सत्ता पर काबिज हुए और बीच रास्ते में, आनन-फानन में, भाजपा गठबंधन से मेल कर सत्ता पर अपना कब्जा कायम रखा! नीतीश कुमार की सत्ता-राजनीति की इस चाल से प्रजा को संकेत मिला कि “चुनाव में बिहार की जनता पीएम मोदी के दावों पर ताली बजाती रहे और वर्तमान सीएम नीतीश कुमार के वादों पर भरोसा करती रहे।”
पिछले 17 सालों के नीतीश-राज को उनके समर्थक अंग्रेजी में ‘नीतीश एरा’ कहकर गौरवान्वित होते हैं। बिहार कथित ‘विकास’ के जिस सोपान पर पहुंचा है, और वह भी विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त किये बिना, इस बाबत नीतीश समर्थक जो कहते हैं, उसका आशय यह है कि यह विकास इसलिए संभव हुआ क्योंकि श्री नीतीश कुमार सत्ता पर काबिज रहे।