— विमल कुमार —
हिंदी साहित्य के इतिहास में 1933 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के 70वें जन्मदिन पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया था जिसके सम्पादकद्वय बाबू श्यामसुंदर दास और राय कृष्णदास तथा कार्यकारी संपादक शिवपूजन सहाय थे। इस अवसर पर इलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा एक मेला आयोजित किया गया था जिसका उदघाटन मदन मोहन मालवीय ने किया था। यह हिंदी साहित्य की दुनिया में संभवतः पहला मेला था।
इस घटना के 15 साल बाद महाकवि निराला के 50वें जन्मदिन पर एक मेला वाराणसी में आयोजित किया गया था जिसमें टिकट भी लगा था।
यह संभवतः दूसरा साहित्य मेला था। उसमें नामवर सिंह ने भाग लिया था और तब उनकी उम्र 19 वर्ष थी। ये दोनों जलसे ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में दर्ज हैं। आजादी के बाद भी समय-समय पर हिंदी साहित्य की दुनिया में समारोह आदि आयोजित किए जाते रहे हैं जिनकी स्मृति लोगों के स्मृतिपटल पर आज भी अंकित है। लेकिन हिंदी में “मेला संस्कृति” का आगमन पहले नहीं हुआ था। देश में यह परिघटना उस समय से शुरू हुई जब से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आगाज़ हुआ है। उसके बाद तो हिंदी की दुनिया में एक “फेस्टिवल संस्कृति” धीरे धीरे विकसित हुई है और हर साल हर महीने देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई फेस्टिवल आयोजित किया जाने लगा है।
कहा तो यह जा रहा है कि इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में करीब 500 लिट फेस्टिवल आयोजित किए जा रहे हैं और प्रतिभागी लेखकों के “कटआउट” भी लगाए जा रहे हैं। नई आर्थिक नीति के बाद समाज के हर क्षेत्र में बाजार के कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। जाहिर है साहित्य क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। देश में प्रकाशन उद्योग तेजी से फल-फूल रहा ही है। साथ ही साथ एक पुस्तक संस्कृति भी धीरे-धीरे विकसित हो रही है। जाहिर है ऐसे में साहित्य के मेले अधिक से अधिक लगेंगे। साहित्य अब एक तरह का उद्योग ही है।
पिछले दिनों ‘आज तक’ द्वारा आयोजित साहित्य महाकुंभ ने एक बार फिर हिंदी की दुनिया में एक विवाद छेड़ दिया है। कुछ लोग रजनीगंधा गुटका कम्पनी के प्रायोजक होने पर आपत्ति कर रहे हैं तो कुछ लोग यह कह रहे हैं कि आजतक चैनल गोदी मीडिया का एक भाग है। अब सवाल यह है कि क्या महाकुंभ और फेस्टिवल ही साहित्य का प्रचार-प्रसार करेंगे तथा भविष्य भी बाज़ार ही तय करेगा या पहले की तरह समाज में साहित्य का प्रचार-प्रसार होता रहेगा?
सोशल मीडिया के आने के बाद से साहित्य की दुनिया में भी बदलाव देखने को मिले हैं और रोज एक नया धमाका शुरू हो रहा है तथा उसका प्रचार-प्रसार अब पहले की तुलना में आसान हो गया है। यह अलग बात है कि मुख्यधारा के मीडिया में विशेषकर चैनलों की दुनिया में साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं है। आमतौर पर मुख्यधारा के मीडिया में केवल बड़े लेखकों के मरने जीने और उन्हें लखटकिया पुरस्कार मिलने की खबरें दिखाई और सुनाई पड़ती हैं लेकिन आमतौर पर वहां साहित्य से कोई लेना देना नहीं और कोई चर्चा नहीं है तथा किसी भी तरह की बहस की गुंजाइश नहीं। अपवादस्वरूप मुकेश कुमार के यूट्यूब चैनल ने साहित्य के मुद्दे पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू किया है जो स्वागतयोग्य है। ऐसे में साहित्य आजतक के महाकुंभ पर लोगों की निगाह अधिक केंद्रित है। इन दिनों यह महाकुंभ चर्चा और विवाद का विषय बना हुआ है।
पिछले सप्ताह नई दिल्ली में हुए आजतक के महाकुंभ के अलावा भोपाल में टैगोर विश्वविद्यालय का विश्वरंग सम्मेलन भी विवादों के केंद्र में है क्योंकि उसके उदघाटन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संदेश भी पढ़ा गया तथा उसके कार्यक्रमों में राज्यपाल भी मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किए गए। इन दोनों समारोहों की आलोचना के दो मुख्य बिंदु हैं। पहला तो यह कि ये कार्यक्रम बाजार की शक्तियों द्वारा संचालित अधिक हैं और दूसरा बिंदु यह कि इन समारोहों का नाभिनाल संबंध दक्षिणपंथी राजनीति से है। यह अलग बात है कि इन दोनों समारोहों में वामपंथी और कलावादी लेखकों की भी शिरकत दिखाई पड़ रही है।
सवाल यह है कि क्या भविष्य में साहित्य की दशा और दिशा इसी रूप में रहेगी? ये लिट् फेस्टिवल ही साहित्य को तय करेंगे और वही स्टार लेखकों को प्रमोट करेंगे? साहित्य आजतक ने सवाल यह है कि भविष्य में साहित्य की दशा और दिशा क्या इसी रभी इसे सितारों का महाकुंभ बताया है यानी लेखक स्टार अधिक है वह मसिजीवी नहीं है। लेखक का मसिजीवी से स्टार बनना साहित्य के बाजारीकरण की दिशा में एक कदम है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस बाजारीकरण में लेखकों को आर्थिक रूप से कुछ भी हासिल नहीं हो पा रहा है। आजतक के महाकुंभ में तो लेखकों को कोई मानदेय भी नहीं दिया जा रहा है बल्कि उन्हें बस हवाई यात्रा और पंचतारा होटल में ठहरने आदि की सुविधा दी जा रही है लेकिन उन्हें कोई धनराशि नहीं दी जा रही है।
ऐसे में हिंदी के लेखकों की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे इस तरह के फेस्टिवल में भाग ले रहे हैं? क्या वे इसलिए भाग ले रहे हैं कि वे अपनी बात को दूर तक पहुंचा सकें? क्या इन फेस्टिवल में अपनी बात उस गंभीरता से पहुंचाई भी जा सकती है, इसे लेकर अभी भी एक संदेह की स्थिति बनी हुई है। क्या जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के विचार-विमर्श में कोई गंभीर भूमिका निभा पाया है या वह भी एक तमाशा बनकर रह गया है?
लेकिन क्या हिंदी के लेखक इन फेस्टिवल में इसलिए जा रहे हैं कि उनके पास साहित्य की दुनिया में मंच कम हैं या जो मंच हैं वहां से उनकी आवाज दूर तक पहुंच नहीं पा रही है। हालांकि पिछले कुछ सालों से रजा फाउंडेशन के कार्यक्रमों ने साहित्य की आवाज को दूर तक फैलाने का थोड़ा बहुत काम किया है लेकिन वह भी कोई पॉपुलर मंच नहीं है जबकि आजतक चैनल का साहित्य महाकुंभ अपेक्षाकृत एक पॉपुलर मंच है। कल इस महाकुंभ में जिस तरह चेतन भगत को सुनने के लिए युवा पीढ़ी की भीड़ उमड़ी थी उसे देखकर लगता है कि नई पीढ़ी साहित्य पढ़ना तो चाहती है पर वह अपना नायक चेतन भगत में ढूंढ़ रही है। अब उसके नायक मुल्कराज आनंद या आर के नारायण नहीं हैं। इसी तरह हिंदी में भी उसके नायक यशपाल, अज्ञेय या मुक्तिबोध नहीं हैं बल्कि कुमार विश्वास उसके नायक हैं।
हिंदी के विद्वतजनों के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है कि भविष्य में हिंदी के नेतृत्वकर्ता कुमार विश्वास जैसे लोग होंगे क्योंकि अब हिंदी की दुनिया में नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव जैसे लोगों के नहीं रहने से एक बड़ा संकट नेतृत्वकर्ता का उत्पन्न हो गया है। जाहिर है, जब बाजार साहित्य पर हावी होगा तो वह अपने अनुकूल नेतृत्वकर्ता और नायक भी बनाएगा जो उसके मार्केट और ब्रांड वैल्यू बढ़ाने में मदद करे। जो कहीं रजनीगन्धा की खुशबू की जगह बदबू को न फैलाये?
अकबर इलाहाबादी का एक शेर है –
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं
बाज़ार से गुजरा हूँ मगर खरीदार नहीं।
क्या हिंदी के लेखक अकबर इलाहाबादी के इस शेर को याद रखेंगे?