आज भी रिस रहा जहर

0

दो-तीन दिसंबर, 1984 को भोपाल में हुई गैस त्रासदी के शिकार राजकुमार वर्मा की जुबानी

3 दिसंबर। आज भी वह रात जब-तब मेरे जेहन में उतर ही आती है। तारीखों में दर्ज तीन दिसंबर, 1984 की वह भयावह रात मेरे लिए भी एक सदमा बन चुकी है। मैं फोटोग्राफर बनने के लिए भोपाल गया था, और मुझे वहां पहुंचे 15-20 दिन ही हुए होंगे। एक शाम मैं ऐसे ही शहर का नजारा देखने के लिए भोपाल के न्यू मार्केट में टहल रहा था।

अचानक मैंने देखा कि लोग इधर-उधर भागने लगे। मैंने गौर से देखने की कोशिश की, आखिर हुआ क्या है कि लोग तेजी से अपना सामान आदि सब कुछ छोड़-छाड़ कर जहां-जिधर जगह मिल रही है, बस भाग रहे हैं। काफी देर तक यह नजारा देखने के बाद एक दौड़ते हुए बुजुर्ग के साथ ही मैं भी लगभग दौड़ लगाता हुआ उनके बराबर पर पहुंच कर पूछा कि दद्दा आप भाग कर कहां जा रहे हैं? इस पर उन्होंने कहा कि मैं भी कइयों से यह पूछ चुका हूं। लेकिन किसी को भी असल बात पता नहीं है, इसलिए अब मैं भी लोगों की देखा-देखी भाग रहा हूं।

भोपाल गैस हादसे को अपनी आंखों देख चुके राजकुमार वर्मा

मैं भाग कर तो नहीं लेकिन तेज कदमों से अपने घर की ओर गया। वहां पहुंच कर पता चला कि शहर की हवा में जहर फैल गया है। इसके अलावा कुछ नहीं पता। इतनी बात पता चलते ही मेरे घर के लोग भी घर में कुंडी आदि लगाकर जिधर सब भाग रहे थे, उसी दिशा में भागने लगे। मैं भी उनके साथ भागने को मजबूर हुआ। भागते हुए मेरे कानों में चारों ओर से रोने और चीखने की तेज आवाजें आ रही थीं।

इस भागमभाग में मैं देख पा रहा था कि कई घरों से औरतें और बच्चे खिड़कियों से चिल्ला रहे हैं कि अरे भाई कोई तो हमारे घर का दरवाजा खोल दो, क्योंकि उनके घरों के बाहर के दरवाजे पर कुंडी चढ़ी हुईं थीं। बाद में पता चला कि कई घरों के मर्द अपने बीवी-बच्चों को घर में ही बंद कर खुद भाग खड़े हुए थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि वे तो भाग नहीं पाएंगे और ऐसे में वह भी नहीं भाग पाएंगे और जहरीली हवा से घुटकर मर जाएंगे।

जब मैं भी भाग रहा था तो ऐसे ही कई खिड़कियों से जब आवाजें आतीं दरवाजे की कुंडी खोलने के लिए तो मैं थोड़ा रुक जाने की कोशिश करता। लेकिन पीछे से आ रहे मेरे रिश्तेदार जोर से धक्का देते हुए कहते कि यहीं मरना है क्या? और मैं चाहकर भी एक भी दरवाजे की कुंडी नहीं खोल सका। सारी रात हम गिरते-पड़ते बस भागते ही रहे। जो लोग थक गए थे और अब उनसे भागा नहीं जा रहा था, बेबस होकर एक किनारे बैठ कर लगभग लोट ही गए थे।

ऐसे लोग अपने आसपास से भागते हुए लोगों को बस बेबसी की नजर से देख रहे थे। पीछे से आती संभावित हवा में तैरती मौत के खौफ को आसानी से उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। आखिर, हम भी इतना थक गए कि अब भागा नहीं जा रहा था और सड़क किनारे ही लुढ़क गए। कई तो थक कर सो गए और कुछ बस फिर से भागने की ताकत जुटा रहे थे। आखिर उस भयावह रात का अंत हुआ।

चार दिसंबर की सुबह सूरज की रोशनी पड़ते ही हम भी अचकचाकर उठ बैठे। तब तक मालूम हो चुका था कि यूनियन कार्बाइड नामक कारखाने से जहरीली गैस का रिसाव हुआ था और अब तक उस कारखाने के आसपास रहने वाले हजारों लोग दम तोड़ चुके हैं। वह रात जैसे मेरे जेहन में ऐसे समा गई है कि जब तक इस प्रकार की कोई खबर देखता या पढ़ता हूं तो उस दिन निश्चित ही एक दु:स्वप्न की तरह वह डरावनी रात सपने में डराने आ ही टपकती है।

यह सब इसलिए अचानक याद आया क्योंकि पिछले दिनों मैं भोपाल गया था और शहर के प्रमुख रोशनपुरा चौराहे पर कई विधवाओं को धरना देते देखा। पूछताछ करने पर पता चला कि भोपाल गैस कांड पीड़ितों का सरकार ने अब तक पुनर्वास नहीं किया है। और ये अब तक दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हैं। आज इतने दशकों के बाद भी ये उस रात के अंधेरे से बाहर नहीं निकल पाये हैं। जिस हादसे को इतिहास कभी भुला नहीं सकेगा सरकारों ने उसे कभी याद रखने की कोशिश ही नहीं की।

(डाउन टु अर्थ से साभार)


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment