— आशुतोष शर्मा —
जब सूचना अधिकार कानून (आरटीआई) 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ, तो इसे एक ऐसा कानून कहा गया था, जो तमाम सरकारी महकमों और एजेंसियों को जनता के लिए खुला और आसान पहुंच वाला बनाएगा, एक ऐसा कानून जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने के साथ ही सरकारों को पारदर्शी तथा अधिक जवाबदेह बनाएगा। लेकिन वह चमक फीकी पड़ गयी है और आरटीआई का उपयोग करने वाले अधिकांश लोग मोहभंग की स्थिति में हैं। अक्सर उन्हें निशाना बनाकर हमले किए जाते हैं, उन्हें धमकियां दी जाती हैं और उन्हें झूठे आपराधिक मामलों में फंसाया जाता है।
राजस्थान के बाड़मेर जिले के तीस वर्षीय आरटीआई- कार्यकर्ता अमरा राम कहते हैं कि “इन हमलों और खतरों से भी अधिक दुखद है आरटीआई कार्यकर्ताओं को भयादोहन करने वाले (ब्लैकमेलर) कहकर उन्हें बदनाम करना।” अमरा राम पर दिसंबर 2021 में घातक हमला हुआ था, उनके हाथ-पैर तोड़ दिए गए थे और उन्हें नाखूनों से छलनी कर दिया गया था। खबरों के मुताबिक हमले की वजह यह थी कि वह कुंपालिया पंचायत में मनरेगा के तहत चल रही परियोजनाओं में भ्रष्टाचार का लगातार खुलासा कर रहे थे। अमरा राम बताते हैं कि उन पर हुए हमले के साल भर बाद भी पुलिस सभी आरोपियों को पकड़ नहीं पायी है, आधे आरोपियों को पकड़ा जाना अभी बाकी है।
पीयूसीएल की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने कहा, “पिछले दस वर्षों में अकेले राजस्थान में एक दर्जन से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ताओं पर घातक हमले हुए हैं। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए अभी भी यह कोई मसला नहीं है।”
‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ और ‘सूचना का राष्ट्रीय जनाधिकार अभियान’ (नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टु इनफार्मेशन – एनसीपीआरआई) के संस्थापक सदस्य निखिल डे के मुताबिक पिछले सत्रह वर्षों में, जब से यह कानून लागू हुआ है, आरटीआई का उपयोग करने वाले सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
शासन-प्रशासन में पारदर्शिता तथा जवाबदेही के लिए काम करने वाले ‘सतर्क नागरिक संगठन’ (एसएनएस) ने सूचना आयोगों के कामकाज पर हाल में एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में एसएनएस और एनसीपीआरआई से जुड़ीं अंजलि भारद्वाज और अमृता जौहरी ने लिखा है, “सूचना अधिकार कानून ने लोकतांत्रिक ढांचे में शक्ति के पुनर्विन्यास की शुरुआत की है।” रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साल भर में 60 लाख आरटीआई आवेदन किए जाते हैं।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि कोरोना महामारी के साथ-साथ बेरोजगारी और महंगाई की ऊंची दर ने लाखों परिवारों को, बुनियादी चीजों और सेवाओं के मामले में, सरकार पर पहले से ज्यादा निर्भर बना दिया है।
लंबित मामले
उपर्युक्त रिपोर्ट बताती है कि कम से कम दो राज्य सूचना आयोग – झारखंड और त्रिपुरा – नाकारा हो चुके हैं, क्योंकि आयुक्तों के पद से हटने पर वहां नए आयुक्तों की नियुक्ति नहीं की गयी। इसके अलावा चार राज्य सूचना आयोगों में मुख्य आयुक्त के पद खाली हैं – मणिपुर, बंगाल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश।
यह कहते हुए कि लंबित शिकायतों और अपीलों की तादाद बढ़ती जा रही है, सतर्क नागरिक संगठन का अध्ययन बताता है कि 26 राज्य सूचना आयोगों में 30 जून 2022 तक कुल लंबित अपीलों की तादाद 3,14,323 थी। अगर एक माह में अपीलों के निपटारे की औसत गति और सारे लंबित मामलों की तादाद को हिसाब में लें, तो एक मामले को निपटाने में बंगाल राज्य सूचना आयोग को 24 साल 3 माह, ओड़िशा तथा महाराष्ट्र को पांच साल से अधिक और बिहार को दो साल लगेंगे। यह भी गौरतलब है कि राज्य सूचना आयोग 95 फीसद मामलों में कोई जुर्माना नहीं लगाते, जुर्माना लगाने की जरूरत और औचित्य होते हुए भी।
रिपोर्ट बताती है कि सूचना आयोगों का काम जिस तरह चल रहा है वह सूचना अधिकार कानून के अमल में एक बड़ी बाधा है। देश भर में अनेक सूचना आयोगों में शिकायतों और अपीलों का बड़ी संख्या में लंबित होना, मामलों के निपटारे में असामान्य देरी का सबब है और यह सूचना अधिकार कानून को निष्प्रभावी बना रहा है। कानून का पालन न करने के दोषी अधिकारियों पर जुर्माना लगाने में आयोग अमूमन अनिच्छुक दीखते हैं। दुर्भाग्य से, जिन्हें पारदर्शिता के प्रहरी बनाया गया है उनमें से बहुतों का, पारदर्शिता तथा देश की जनता के प्रति जवाबदेही के मामले में, उजला रिकार्ड नहीं रहा है।
जम्मू-कश्मीर में, राज्य के विशेष दर्जे की समाप्ति के बाद, साफ-सुथरे तथा कारगर प्रशासन के सरकारी दावे वास्तविकता से कोसों दूर हैं। आरटीआई के केंद्रीय कानून से अलग, जम्मू-कश्मीर के रद्द कर दिए गए सूचना अधिकार कानून, 2009 में प्रावधान था कि राज्य सूचना आयोग को 60 से 120 दिनों में अपीलों का निपटारा कर देना होगा। केंद्रीय सूचना आयोग के तहत अपीलों के निपटारे में असामान्य रूप से बहुत लंबा वक्त लग रहा है। जम्मू-कश्मीर में आरटीआई आंदोलन के संस्थापक और मुखिया रज़ा मुज़फ्फर भट कहते हैं, “चूंकि केंद्रशासित प्रदेश के पास राज्य सूचना आयोग नहीं है इसलिए यहां की सभी अपीलें नई दिल्ली में केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष सूचीबद्ध होती हैं। मेरी खुद की दूसरी आरटीआई-अपील इस साल के शुरू में, 13 महीनों बाद, सूचीबद्ध हो सकी।”
भट कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की समाप्ति के बाद, “राज्य के सरकारी अधिकारियों की मानसिकता भी बदल गयी है क्योंकि अब राज्य सूचना आयोग का वजूद नहीं है। इसके अलावा, सरकार ने राज्य के अधिकारियों और नागरिकों को सूचना अधिकार कानून, 2005 के बारे में बताने के लिए कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित नहीं किया है।”
मानहानि के मामले
राष्ट्रीय सूचना जनाधिकार अभियान (एनसीपीआरआई) के सह-संयोजक और ओड़िशा सूचना अधिकार अभियान के संयोजक प्रदीप प्रधान बताते हैं कि आरटीआई-सक्रियता को रोकने के लिए ओड़िशा सूचना आयोग ने दो आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ भुवनेश्वर की अदालत में मानहानि के केस दायर किए हैं। प्रधान कहते हैं, “ओड़िशा में आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले एक सोची-समझी योजना का हिस्सा हैं ताकि सूचना अधिकार कानून को बेमतलब बना दिया जाए। राज्य में माफिया आरटीआई कार्यकर्ताओं की छवि खराब करने और उनके कार्य का मखौल बनाने में जुटे रहते हैं।” प्रधान आगे बताते हैं, “कई आरटीआई कार्यकर्ता अपमान, गिरफ्तारी के खतरे, झूठे और मनगढ़ंत मुकदमों के रूप में अपनी सक्रियता की कीमत चुका रहे हैं।”
ओड़िशा सूचना अधिकार अभियान के सदस्य, 52 वर्षीय सर्वेश्वर बेहुरा 27 मार्च 2021 को बुरी तरह घायल हो गए, जब उनकी कार को निशाना बनाकर बम फेंके गए। सर्वेश्वर की पत्नी रीलु बेहुरा दूसरे दिन प्रदीप प्रधान और दो अन्य आरटीआई कार्यकर्ताओं श्रीकांत पाकल और जीतेन्द्र साहू के साथ एफआईआर दर्ज कराने धर्मशाला पुलिस थाने गयीं, लेकिन पुलिस ने उनकी प्राथमिकी दर्ज करने से मना कर दिया, यह कहते हुए कि उसने खुद पहले ही एक केस दर्ज कर लिया है। प्रधान बताते हैं, “बेहुरा पर पहले भी दो बार हमले हुए थे। उन्होंने एफआईआर भी दर्ज कराई थी, लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की।”
बेहुरा की जान बच गयी। लेकिन कई आरटीआई कार्यकर्ता इतने भाग्यशाली नहीं थे। ओड़िशा सूचना अधिकार अभियान के रंजन कुमार दास की 31 जनवरी 2020 को हत्या हो गयी। मध्यप्रदेश के आरटीआई कार्यकर्ता रंजीत सोनी की 2 जून 2022 को गोली मारकर हत्या कर दी गयी। बताया जाता है कि वह ढांचागत विकास, अस्पतालों और कल्याण योजनाओं से जुड़े सरकारी खर्चों के बारे में नियमित रूप से सूचनाएं मांगते रहते थे। बाड़मेर में 47 वर्षीय आरटीआई कार्यकर्ता जगदीश गोलिया की 2019 में पुलिस हिरासत में मौत हो गयी, उन्हें एक भूमि विवाद के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। कविता श्रीवास्तव बताती हैं, “गंभीर भीतरी चोटों के बावजूद उन्हें अस्पताल नहीं ले जाया गया।” आगे उन्होंने कहा, “जो भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने की कोशिश करते हैं, उन पर झूठे मुकदमे थोप दिए जाते हैं। लेकिन जो लोग आरटीआई कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने और परेशान करने में लगे रहते हैं उनके खिलाफ शायद ही कोई कार्रवाई होती है।”
आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रतिशोधी एफआईआर की बाबत जस्टिस मदन लोकुर ने कहा, ज्यादातर मामलों में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत या छेड़खानी के आरोप में एफआईआर दर्ज किये जाते हैं। ऐसे मामलों में बहुत मुश्किल से जमानत मिलती है।
कानून में सेंध
जस्टिस लोकुर ने कहा, “आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या, उन पर हमला या उत्पीड़न की सूरत में मुआवजे का प्रावधान होना चाहिए।” उन्होंने बताया कि “सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देश के बावजूद पुलिस हमले या उत्पीड़न के शिकार आरटीआई कार्यकर्ता की शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी करती है। जिन मामलों में एफआईआर दर्ज भी होती है, असल अपराधी के खिलाफ शायद ही कोई कार्रवाई होती है, केवल उसके पिट्ठुओं पर गाज गिरती है।”
क्या यह सिर्फ संयोग है कि विसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम 2014, जिसे 12 मई 2014 को अधिसूचित किया गया था, अभी तक अमल में नहीं आ सका है। केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायतें एवं पेंशन मंत्रालय का कहना है कि उपर्युक्त कानून में संशोधन करने की जरूरत है ताकि भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने वाले खुलासों को रोका जा सके। प्रदीप प्रधान का सुझाव है कि उपर्युक्त कानून के क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार का मुंह जोहने के बजाय राज्य सरकारों को चाहिए कि विसलब्लोअर तथा उसके परिवार की सुरक्षा के लिए अपने कानून बनाएं और लागू करें।
आरटीआई-नियम 2017 के मसौदे के माध्यम से मोदी सरकार चाहती थी कि आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी से जुड़ी कार्यवाही स्वत: रोक दी जाए, अगर केंद्रीय सूचना आयोग में अपील के लंबित रहते हुए अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाती है। निखिल डे बताते हैं, “हम इस प्रस्ताव के खिलाफ लड़े और हमने इसे लागू नहीं होने दिया।”
आरटीआई कार्यकर्ता रवीन्दर बलवानी की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मृत्यु के बाद केंद्रीय सूचना आयोग ने 2011में एक प्रस्ताव पारित कर कहा था कि : “अगर आयोग को सूचना मांगने वाले व्यक्ति पर हमले या उसकी मौत की बाबत शिकायत मिलती है तो आयोग मांगी गयी सूचना के बारे में जांच करेगा और संबंधित विभागों को निर्देश देगा कि वे स्वत: संज्ञान लेते हुए मांगी गयी सूचना अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित कर दें।”
उपर्युक्त प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि सरकारें आरटीआई का उपयोग करने वालों की सुरक्षा के लिए गंभीरता से कदम उठाएं।
निखिल डे ने कहा, “केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों को उपर्युक्त प्रस्ताव को दृढ़ता से लागू करना चाहिए, इससे यह संदेश जाएगा कि अगर किसी आरटीआई कार्यकर्ता की हत्या कर दी जाती है, या आरटीआई के उपयोगकर्ता व्यक्ति की किसी अन्य कारण से मृत्यु हो जाती है, तो वैसी सूरत में भी मुद्दे बने रहेंगे।”
जाहिर है, सूचना अधिकार कानून को मजबूत करने की जरूरत है ताकि यह अपने उद्देश्य को पूरा कर सके। आरटीआई योद्धाओं को लगता है कि इससे उलटा हो रहा है। वर्ष 2019 में सूचना अधिकार (संशोधन) अधिनियम संसद में बगैर किसी बहस के पारित हुआ। इन संशोधनों ने केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों को न सिर्फ कमजोर किया है बल्कि उन्हें सरकार के अधीन बना दिया है।
सूचना अधिकार कानून में किए गए फेरबदल के मद्देनजर सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर आरटीआई आंदोलन को कमजोर करने का आरोप लगाया है। वर्ष 2019 में किए गए संशोधन सूचना अधिकार कानून को नख दंत विहीन बनाने के सरकारी प्रयासों में एक निर्णायक मोड़ है। सूचना अधिकार कानून को कमजोर किए जाने के खिलाफ नागरिकों की आवाज को बीजेपी सरकार ने सिरे से अनसुना कर दिया। उसने बड़े सोचे-समझे तरीके से केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों की शक्ति और स्वतंत्रता को काफी सीमित करके उन्हें अपने नियंत्रण में कर लिया। अरुणा राय ने आगे कहा, “सूचना अधिकार आंदोलन जारी है पर कानून को लागू करने वाला तंत्र बहुत कमजोर कर दिया गया है और इससे भारत में लोकतंत्र की रीति नीति को धक्का लगा है।”
9 सितंबर 2021 को, वर्तमान तथा भूतपूर्व सूचना आयुक्तों के पंद्रह सदस्यीय समूह ने तब के भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना को पत्र लिखकर शिकायत की थी कि सूचना आयुक्तों के निर्णयों पर उच्च न्यायालय स्थगन आदेश (स्टे आर्डर) दे रहे हैं। पत्र में जस्टिस रमना से यह अनुरोध किया गया था कि वे अदालतों को यह निर्देश दें कि अदालतें केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों के आदेशों के खिलाफ याचिका पर सुनवाई न करें। पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने बताया कि उस पत्र का कोई नतीजा नहीं निकला। स्थिति बदली नहीं है। और यह कानून (आरटीआई) का उल्लघंन है।
नागरिक की जिंदगी और आजादी से जुड़े मुद्दों पर देर से जवाब मिलने की शिकायतों की बाबत, जिन पर सूचना अधिकार कानून की धारा 7 (1) के तहत दिए गए आवेदन पर 48 घंटों के भीतर सूचना मिलनी चाहिए, शैलेश गांधी ने कहा, “सरकारें सूचना अधिकार कानून को लागू करने में अक्षम दीख रही हैं।”