यह संवैधानिक दायित्व निभाने का कौन-सा तरीका है!

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— डॉ सुरेश खैरनार —

मारे वर्तमान मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ ने, दो दिन पहले ही कहा है कि “कोई केस छोटा नहीं होता! अगर हम नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकते तो ! फिर हम यहां क्या करने को बैठे हैं?” भारत के कानून मंत्री किरण रिजीजू ने बीते गुरुवार को कहा था किॉर्ड “सर्वोच्च न्यायालय को छोटे मामलों की सुनवाई नहीं करनी चाहिए। उन्हें केवल संवैधानिक मामले सुनने चाहिए।” और आए दिन सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति से लेकर उसके विभिन्न मामलों में फैसले देने तक की बातों पर सत्ताधारी पार्टी की तरफ से चलाए जा रहे न्यायपालिका के खिलाफ अभियान को देखते हुए आखिर में मुख्य न्यायाधीश महोदय को संज्ञान लेकर जवाब देना पड़ा, जिसका मैं तहेदिल से स्वागत करता हूँ !

क्या सरकार की मंशा न्यायालय को, अपने दल की इकाई की तरह, अपने नियंत्रण में रखने की है? जिसके खिलाफ 12 जनवरी 2018 के दिन सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहली बार चार न्यायाधीशों- जस्टिस चलमेश्वर, जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोजेफ और जस्टिस रंजन गोगोई- ने अपने सरकारी आवास पर पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था कि “हमारे ऊपर जबरदस्त दबाव डाला रहा है!” अगर हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय की यह स्थिति है तो इस देश की स्वतंत्रता और न्यायिक प्रणाली खतरे में है!

शायद ही कोई संवैधानिक संस्था होगी जिसमें वर्तमान सरकार हस्तक्षेप नहीं कर रही है ! चुनाव आयोग की विश्वसनीयता रसातल में पहुंच गई है और न्यायपालिका से भी पहले जैसी उम्मीद नहीं की जाती।

2002 के गुजरात दंगों की जांच के लिए,जस्टिस नानावटी आयोग के कामकाज का अध्ययन करने हेतु, मुझे एडवोकेट-मित्र मुकुल सिन्हा के साथ, अहमदाबाद में पांच बार, दिनभर बैठकर उस आयोग की कार्यवाही देखने का मौका मिला है ! यहां तक कि मुकुल भाई ने मेरा जस्टिस नानावटी के साथ परिचय भी कराया और नानावटी आयोग के कामकाज को देखते हुए मैंने मुकुल भाई को कहा था कि “आप अपना बहुमूल्य समय गंवा रहे हो ! क्योंकि जस्टिस नानावटी की कार्यशैली को देखते हुए मुझे लगता है कि यह आयोग नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट देने के लिए तुला हुआ है !” तो मुकुलभाई ने कहा कि “यह बात मुझे भी मालूम है लेकिन मैं नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट देने का समय बढ़ाने के लिए ही जस्टिस नानावटी के सामने रोज नये-नये गवाह और मुद्दों को सामने ला रहा हूं। नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने का समय आगे खिसकाने के लिए, विशेष रूप से कोशिश कर रहा हूँ !”

गुजरात में कोर्ट और पुलिस-प्रशासन की विश्वसनीयता खत्म होने के कारण ही गुजरात दंगों के संगीन मामलों को महाराष्ट्र की अदालत में स्थानांतरित किया गया था ! बिलकीस बानो के सामूहिक बलात्कार के मामले में जो सजा सुनाई गई वह महाराष्ट्र की अदालत में हुई सुनवाई का ही नतीजा थी। इसलिए भी गुजरात की सरकार द्वारा सज़ा में कमी के निर्णय के साथ 11 गुनहगारों को रिहा करने के निर्णय को चुनौती देने वाली बिलकीस बानो की याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने वापस गुजरात सरकार के पास भेजकर अनुचित निर्णय किया है।

महाराष्ट्र के जिस जज ने, इन ग्यारह गुनाहगारों को सजा देने का फैसला लिया था उन्होंने भी इन्हें स्वतंत्रता के 75वें साल की आड़ में, ‘1992 रेमिसन पालिसी’ की सहूलियत के आधार पर, अपराधियों को छोड़ने के गुजरात सरकार के निर्णय को गलत बताया है। और सर्वोच्च न्यायालय ने उसी गुजरात सरकार के पास बिलकीस बानो को जाने के लिए कहा है ! यह कहां तक ठीक है?

रिजर्व बैंक से लेकर चुनाव आयोग, मीडिया, यूजीसी! हमारे देश की महत्त्वपूर्ण एजेंसियां आईबी, एनआईए, सीबीआई, ईडी ! विभिन्न प्रकार के ट्रिब्यूनल, प्रेस कौंसिल, महिला एवं बाल आयोगों से लेकर मानवाधिकार आयोग तक के कामों में दखलंदाजी करने के कारण, हमारे देश की पचहत्तर साल की आजादी के बाद पहली बार किसी भारत सरकार का, हमारे सभी संवैधानिक संस्थानों का, अपने दल की इकाई जैसा इस्तेमाल करने का, प्रयास देख रहा हूँ !

सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच चल रही रस्साकशी का भी यही कारण है कि देश के संवैधानिक मूल्यों को पैरों तले रौंदा जा रहा है ! अन्यथा वर्तमान समय में, न्यायिक प्रक्रिया को लेकर, आए दिन इतनी नुक्ताचीनी करने की कोई वजह नहीं है। जजों की नियुक्ति से लेकर कौन-से मामले सर्वोच्च न्यायालय को देखने चाहिए, यह बताने का दुस्साहस मंत्री कर रहे हैं !

बीस साल पहले गुजरात दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार करने वाले लोगों को गुजरात सरकार ने आजादी के पचहत्तरवें साल की आड़ में, ‘1992 की रेमिसन पॉलिसी’ के तहत, 13 मई 2022 को छोड़ दिया! तो बिलकीस बानो ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, और सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका को स्वीकार किया ! और एक बेंच बनाकर, इस केस को देखने के लिए, विशेष रूप से उस बेंच में एक महिला जज को भी रखा गया था ! लेकिन उस महिला जज ने इस केस की सुनवाई के पहले ही अपने आपको अलग कर लिया। यह बहुत ही संगीन बात है !

बिलकीस बानो की याचिका पर सुनवाई के पहले बनी हुई बेंच से एक महिला जज का अपने आपको अलग कर लेना किस बात का परिचायक है? और इसका कोई कारण पता नहीं ! यह इसी बात का संकेत है कि इस केस में आगे क्या होगा? और यह इसपर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है ! क्योंकि वर्तमान समय में, सरकार में बैठे हुए लोगों की पृष्ठभूमि को देखते हुए, कुछ भी हो सकता है !*l

सर्वोच्च न्यायालय का बिलकीस बानो को गुजरात सरकार के पास जाने के लिए कहना कहाँ तक उचित है? समस्त विश्व को मालूम है कि गुजरात दंगों के लिए कौन जिम्मेवार है? और उन दंगों में हत्या, बलात्कार जैसे कांडों के लिए भी वही सरकार जिम्मेदार है ! और ताजा-ताजा चुनाव में, भारतीय चुनावी राजनीति के इतिहास में पहली बार कोई गृहमंत्री पद पर बैठा हुआ आदमी चुनाव प्रचार की सभा में कहता है कि “गुजरात का दंगा चिरशांति के लिए आवश्यक कदम था !” मतलब बिलकीस बानो के ऊपर अन्याय करने वाले, अपराधियों को, शांति के प्रहरी कहने वाले ! ब्राह्मण लोग अच्छे होते हैं, और वह कभी गलत काम कर नहीं कर सकते ! यह सर्टिफ़िकेट दे चुके हैं ! और उन्हें फूलों की मालाएँ पहनाकर उनके स्वागत की खुशी में मिठाइयां बांटी जा रही हैं ! और ऐसे लोगों के पास एक सताई गई, अपमानित की गई, जिसके आबरू के साथ खिलवाड़ करने वाले और उसके परिवार के ग्यारह सदस्यों को, जिसमें उसकी तीन साल की बच्ची भी थी! और बिलकीस बानो खुद पेट से थी, तो भी उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य कांड करने वाले लोगों को उस राज्य में महिमामंडित किया जा रहा है ! ऐसे राज्य के पास न्याय मांगने के लिए भेजने का फैसला ! हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय की तरफ से हो रहा है !

जबकि गुजरात सरकार की विश्वसनीयता शंकास्पद बन जाने के कारण ही दंगे के कई संगीन मामले महाराष्ट्र की कोर्ट में सुनवाई के लिए, स्थानांतरित किये गये थे !  सरकार की विश्वसनीयता पहले से ही संदेहास्पद होने के बावजूद, वापस गुजरात सरकार के पास भेजने का फैसला कहां तक उचित है?

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस को ही लीजिए। इस केस को भी महाराष्ट्र में स्थानांतरित किया गया था। और उस केस को देखने वाले सीबीआई स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश की संदेहास्पद स्थिति में मौत होने के बाद, उससे संबंधित, हाईकोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक, तथाकथित याचिकाओं का क्या हुआ?

और उनके परिवार के सदस्यों को आज कितनी दहशत की जिंदगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है? और उसी मौत के मामले की, सुनवाई करने के बेंच को लेकर ही, सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था कि “कितने दबाव में हम लोग काम कर रहे हैं ?”

जबकि यह सब कुछ होते आ रहा है तो वर्तमान समय की सरकार अपने खिलाफ मीडिया को कुछ लिखने-बोलने नहीं दे रही है! और न ही विरोधी दलों को देश के सबसे बड़े सभागृह संसद में बोलने दे रही है ! और न ही लोगों को अपने सवालों को लेकर धरना-प्रदर्शन करने दे रही है ! और देश के कानून मंत्री और गृहमंत्री धमकी भरे अंदाज में कहे जा रहे हैं कि “छोटे मामलों (जस्टिस लोया मर्डर केस, बिलकीस बानो बलात्कार केस) की सुनवाई नहीं करनी चाहिए !” और गृहमंत्री ने कहा कि “कोर्ट को जनभावनाओं को देखते हुए फैसले लेने चाहिए !” जैसे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले में हुआ था, भारत के संविधान को परे रखकर ! सर्वोच्च न्यायालय ने जनभावनाओं के आधार पर राममंदिर बनाने का फैसला किया। आखिर सवाल आस्था का है कानून का नहीं! इसी आधार पर यह फैसला है ना?

और इधर, हमारे देश के वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय गुरुवार को एक अन्य फैसला सुनाते हुए कहते हैं कि “हम यहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हैं ! जज आधी रात तक जागकर फाइलों को पढ़ते हैं। साधारण मामला भी नागरिक अधिकारों के लिहाज से अहम होता है। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों का संरक्षक है। जब हम यहां बैठते हैं तो हमारे लिए न कोई मामला छोटा होता है न बड़ा। हम यहां लोगों की अंतरात्मा की पुकार और स्वतंत्रता की पुकार का जवाब देने के लिए बैठे हैं। हम हर मामले को समानता के आधार पर न्याय की दृष्टि से देखते हैं। हम अपना कर्तव्य निभाते हैं न कम न ज्यादा। अगर अदालत हस्तक्षेप करना बंद कर दे तो घोर अन्याय होगा। जिनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित की गई हो, उनकी आवाज कोई नहीं सुन पाएगा। सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे मामले आते हैं। और इनका निपटारा करना संवैधानिक दायित्व है।

एक तरफ हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय के प्रमुख की यह ताजा टिप्पणी, और दूसरी तरफ, बिलकीस बानो की याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरे ही दिन गुजरात सरकार के पास भेजने का फैसला लिया ! यह कौन-सा संवैधानिक दायित्व निभाने का तरीका है? और बिलकीस बानो की आवाज गुजरात में, कौन सुनने वाला है? हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय के प्रमुख से हाथ जोड़कर मेरी विनम्र प्रार्थना है कि जिस औरत ने अपनी आंखों के सामने परिवार के ग्यारह सदस्यों को मारे जाते देखा है, जिसमें उसकी तीन साल की बच्ची भी थी ! और खुद बिलकीस बानो कुछ ही समय बाद अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली मां होने के बावजूद इन अपराधियों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया है ! इन्हें ‘1992 के रेमिसन’ के आधार पर आजादी के पचहत्तरवें साल की आड़ में छोड़ने का निर्णय गुजरात सरकार ने लिया !

जेल से बाहर आने के बाद उन अपराधियों को मालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया जाता है! मिठाइयां बांटी जाती हैं। उसी सरकार के पास बिलकीस बानो को भेजना कहां तक ठीक है ? जबकि आप खुद कह चुके हैं कि यहां पर हम और कौन-सा काम करने के लिए बैठे हैं ? तो बिलकीस बानो को न्याय देने के संवैधानिक दायित्व का पालन करने का कष्ट करेंगे इस उम्मीद के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ !

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