अज्ञेय-जयंती : शब्दों के अन्वेषक, अनुभूतियों के यायावर

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Parichay Das

— परिचय दास —

साहित्य के विस्तृत आकाश में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो अपनी काव्यात्मक चेतना और चिंतन की गहराइयों से एक युग को परिभाषित कर देते हैं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ऐसा ही एक नाम है। वे केवल एक कवि, उपन्यासकार या निबंधकार नहीं थे बल्कि एक अन्वेषक थे—शब्दों के, विचारों के, अनुभूतियों के। उनकी लेखनी सदा गतिशील रही, एक सतत खोज की तरह जो न केवल साहित्यिक सौंदर्य को स्पर्श करती है बल्कि आत्मा की अनुगूंज बनकर पाठकों के हृदय में उतर जाती है।

अज्ञेय का काव्य और गद्य दोनों ही अनुभूति के सूक्ष्म स्पर्श से झंकृत होते हैं। वे भाषा में केवल अभिव्यक्ति नहीं खोजते थे बल्कि भाषा के भीतर छिपी अनकही अनुभूतियों का अन्वेषण करते थे। उनका लेखन हमें बताता है कि शब्द मात्र माध्यम नहीं हैं, वे स्वयं एक यात्रा हैं—अर्थ की, संवेदना की और अंततः आत्म-बोध की।

अज्ञेय के साहित्य को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई कुशल शिल्पकार संगमरमर के कठोर पत्थर में से कोई अनमोल मूर्ति तराश रहा हो। उनके शब्दों में एक विशिष्ट आभिजात्य था जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता था। वे भाषा की प्रयोगधर्मिता के पक्षधर थे किन्तु यह प्रयोग मात्र बौद्धिक प्रदर्शन नहीं था; वह एक गहरी संवेदना का विस्तार था।

उनकी कविता में प्रकृति का सौंदर्य, अकेलेपन की पीड़ा, यायावरी आत्मा की बेचैनी और बौद्धिक जिज्ञासा का संगम मिलता है। वे शब्दों को इस प्रकार चुनते थे कि वे कविता के भीतर एक नई ध्वनि और गहराई जोड़ दें। उदाहरण के लिए, उनकी प्रसिद्ध कविता “नदी के द्वीप” को लें—

“मैं क्षण हूँ,
तुम हो अनंत।
मैं नश्वर,
तुम हो सनातन।”

यह केवल शब्दों का खेल नहीं है; यह अस्तित्व के दो ध्रुवों के बीच पुल बनाने का प्रयास है। अज्ञेय का काव्य आत्मा और शरीर, समय और अनंतता, यथार्थ और स्वप्न के द्वंद्व से जन्म लेता है।

अज्ञेय का लेखन केवल बाहरी संसार का चित्रण नहीं करता, बल्कि वह आत्मा की गहन यात्रा है। उनके उपन्यास हों, कहानियाँ हों या निबंध—हर रचना में एक विचारशील मनुष्य की खोज, एक यायावर की बेचैनी, एक साधक की तड़प महसूस होती है। उनका प्रसिद्ध उपन्यास “शेखर: एक जीवनी” केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि आत्म-खोज का दस्तावेज़ है।

उनका गद्य बहुधा कविता के निकट चला जाता है—लयबद्ध, संगीतमय, तरल और आत्मा के निकट। वे शब्दों के माध्यम से जीवन के गूढ़ प्रश्नों से जूझते हैं। उनकी लेखनी में एक तीव्र आधुनिकता है, लेकिन वह आधुनिकता पश्चिम की नकल नहीं, बल्कि भारतीय संवेदना से उपजी हुई है।

अज्ञेय की रचनाओं में प्रकृति केवल एक पृष्ठभूमि नहीं बल्कि एक जीवंत पात्र के रूप में उभरती है। वे प्रकृति को देखने मात्र से संतुष्ट नहीं होते, बल्कि उससे संवाद करते हैं। उनकी कविता में समुद्र, पहाड़, वन, नदी सब बोलते हैं, सिहरते हैं, प्रतीक्षा करते हैं।

“मैं उन्मुक्त हृदय से कहूँ
कि मैं मिट्टी हूँ
पर मेरे भीतर
एक जल स्रोत है,
जो कभी नहीं सूखता।”

यह प्रकृति से एक गहरे तादात्म्य की अभिव्यक्ति है। यह अनुभूति अज्ञेय को एक विशिष्ट कवि बनाती है—ऐसा कवि जो दृश्य को दृष्टि में बदल देता है, और संवेदना को दर्शन में।

अज्ञेय मौन के कवि थे। उनके लिए शब्द उतने महत्त्वपूर्ण नहीं थे, जितना कि शब्दों के बीच का मौन। उनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पाठक को पढ़ने के बाद भी भीतर तक गूंजती रहती है। उनकी एक कविता की पंक्तियाँ हैं—

“क्यों बोलूँ?
शब्द गूंगे हैं
और अर्थ
निरर्थक।”

यह केवल शब्दों से असंतोष नहीं बल्कि भाषा के प्रति एक गहरी आत्मचिंतन की प्रक्रिया है। अज्ञेय के लिए मौन केवल चुप्पी नहीं, बल्कि एक संवाद है—अहंकार और आत्मा के बीच, कवि और सृष्टि के बीच।

अज्ञेय ने केवल परंपराओं को स्वीकार नहीं किया बल्कि उन्हें परखा और नए प्रतिमान गढ़े। वे प्रयोगवादी थे लेकिन केवल प्रयोग के लिए नहीं; वे नवता के साधक थे। उनकी भाषा, उनकी शैली, उनके कथानक सभी में नवीनता और आत्मचिंतन का संगम है। वे कविता को केवल लय और तुकबंदी तक सीमित नहीं रखते बल्कि उसे विचारों और संवेदनाओं की जटिल अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं।

उनके निबंधों में नवाचार दिखता है। उनके गद्य की बौद्धिकता के साथ उसमें व्याप्त काव्यात्मकता एक अनूठा सौंदर्य रचती है। उनकी पुस्तक “अरे यायावर रहेगा याद?” केवल एक यात्रा-वृत्तांत नहीं, बल्कि आत्मान्वेषण का दस्तावेज़ है।

अज्ञेय की आधुनिकता सतही नहीं थी। वे पश्चिम से प्रभावित अवश्य थे लेकिन उन्होंने उसे आत्मसात किया, उधार नहीं लिया। वे भारतीय चिंतन परंपरा से भी गहराई से जुड़े थे, विशेषकर बौद्ध दर्शन और उपनिषदों से। उनकी कविता में जो विरक्ति और वैराग्य दिखता है, वह केवल आधुनिकतावाद नहीं, बल्कि भारतीय अध्यात्म का ही एक स्वरूप है।

अज्ञेय केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक धारा हैं—निरंतर प्रवाहित, अनवरत अन्वेषी। वे उन दुर्लभ साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने भाषा को उसकी सम्पूर्णता में जिया और उसका अतिक्रमण किया। उनकी कविता और गद्य केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि आत्मा में बसने के लिए हैं।

अज्ञेय की दृष्टि अंधकार में भी अपनी लौ को स्थिर रखती है। उनके शब्द हमारे भीतर कहीं गहरे तक जाकर प्रश्न उठाते हैं, और शायद उत्तर भी देते हैं। अज्ञेय की खोज समाप्त नहीं हुई है। उनकी कविता, उनका गद्य—अब भी हमारे भीतर कहीं यात्रा कर रहा है।

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