क्या हिंदी का साहित्य-समाज पुरस्कार लोलुप है?

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— विमल कुमार —

र साल जब साहित्य अकादेमी पुरस्कारों की घोषणा होती है तो हिंदी के साहित्यिक-समाज में विवाद खड़ा हो जाता है। लेखकों का एक पक्ष पुरस्कार के खिलाफ नजर आने लगता है तो दूसरा पक्ष उस पुरस्कार को सही ठहराता है और पुरस्कृत लेखक को महत्त्वपूर्ण बताने लगता है। दोनों पक्षों के अपने अपने तर्क होते हैं और दोनों पक्ष एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं, एक दूसरे के चेहरे से नकाब उतारने की कोशिश करने लगते हैं। आखिर हर साल ऐसा क्यों होता है? आज इसको समझने की जरूरत है।

क्या यह इसलिए होता है कि हिंदी के साहित्यिक समाज के पास अब पाठक नहीं हैं इसलिए उन्हें अपनी वैधता के लिए पुरस्कार की जरूरत होती है? पुरस्कार उसके लिए रचना की गुणवत्ता की वैधता का पैमाना है? यह विवाद इसलिए होता है कि हिंदी के लेखकों को उसके समाज से मान्यता नहीं मिलती है और वह पुरस्कार को ही सामाजिक मान्यता का प्रमाणपत्र मान लेता है? क्या यह विवाद इसलिए होता है क्योंकि हिंदी के साहित्यिक समाज में ईर्ष्या और कुंठा बहुत भरी हुई है या पुरस्कारों को लेकर वाकई कुछ सैद्धांतिक मुद्दे भी हैं? लेकिन लेखक समाज ने या लेखक संगठनों ने पुरस्कार लेने या न लेने या लौटने पर कोई निर्णय नहीं लिया है। आखिर हम एक सरकारी संस्था से पुरस्कार की उम्मीद ही क्यों करते हैं और उस पुरस्कार को लेकर इतने सचेत और इतने लोलुप क्यों रहते हैं? क्या पुरस्कार ही रचना की कसौटी है? क्या पुरस्कार मिलने से लेखक बड़ा हो जाता है या जिन्हें नहीं मिला है वे लेखक क्या महत्त्वपूर्ण नहीं हैं?

बद्रीनारायण

ये सवाल हर साल उठते हैं और हर साल इस तरह के विवाद खड़े होते हैं। सच पूछा जाए तो हिंदी का साहित्यिक समाज आज पुरस्कार केंद्रित अधिक हो गया है, पुरस्कार एक फोबिया की तरह हो गया है। यह साहित्य के सत्ता विमर्श का प्रतीक भी बन गया है। शायद यही कारण है कि हिंदी में पुरस्कारों की संख्या रोज बढ़ती जा रही है। पुरस्कार देने वालों और पुरस्कार प्राप्त करने वालों की होड़ लगी हुई है। ऐसे में हिंदी के बहुत ही कम ऐसे पुरस्कार हैं जो विवादों से परे हैं और उनकी विश्वसनीयता बनी हुई है और वे असंदिग्ध हैं, लेकिन धीरे-धीरे सभी पुरस्कारों में क्षरण दिखाई देने लगे हैं। ऐसे माहौल में अगर किसी लेखक को पुरस्कार मिलता है तो हिंदी समाज की निगाह उस पर जाती है और फिर पक्ष या विपक्ष की प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता है। सोशल मीडिया के उदय के बाद इस तरह की प्रतिक्रियाएं तत्काल आने लगी हैं। पहले जो प्रतिक्रियाएं होती थीं, उन्हें तत्काल व्यक्त करने का कोई साधन नहीं था और उसके लिए कोई जगह भी नहीं थी। अब चूंकि सोशल मीडिया ने स्पेस दिया है इसलिए लेखक समाज अपनी प्रतिक्रिया फौरन जाहिर करने लगता है। ताजा मामला हिंदी के वरिष्ठ कवि और इतिहासकार बद्रीनारायण का है।

बद्रीनारायण को पुरस्कार मिलने की घोषणा होते ही सोशल मीडिया पर दो तरह के गुट बन गए। एक बद्री समर्थक, दूसरा बद्री विरोधी। प्रसिद्ध आलोचक अजय तिवारी, गोपेश्वर सिंह जैसे लोगों ने बद्री को पुरस्कार मिलने का स्वागत किया तो वीरेंद्र यादव जैसे लोगों ने उसका तीखा विरोध किया। कुछ लोगों ने इस पर चुप्पी लगा ली लेकिन कुछ ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने लेखक और उसकी रचना के द्वैत को पेश करते हुए पुरस्कार को यह कहते हुए जायज ठहराया है कि बाल्ज़ाक, एजरा पाउंड और सेला जैसे बड़े लेखक भी सत्ता के समर्थक रहे तो हिंदी का लेखक सत्ता का समर्थक होते हुए अच्छी रचना क्यों नहीं दे सकता है? क्या उसकी रचना पर इसलिए बात नहीं की जानी चाहिए कि उसकी विचारधारा या आचरण आपसे मेल नहीं खाता? कुछ लोगों का कहना है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार लेखक की कृति पर मिलता है, उसके व्यक्तित्व और आचरण पर नहीं दिया जाता, तो फिर उसे पुरस्कार से जोड़कर क्यों देखा जा रहा? अगर इस तरह हम लेखक के आचरण और व्यवहार को उसकी रचना से जोड़कर देखने लगे तो कृति के साथ न्याय करना मुश्किल हो जाएगा।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी किताबों पर ही दिया जाता है इसलिए पुरस्कृत किताब की गुणवत्ता पर बात होनी चाहिए। क्या यह पुरस्कार लायक है या नहीं लेकिन किताब पर कोई बहस नहीं है।

लेकिन हिंदी के वामपंथी लेखक यह चाहते हैं कि साहित्य अकादेमी का पुरस्कार सत्ता से सहानुभूति रखनेवाले लेखकों को न दिया जाए क्योंकि साहित्यकार को हमेशा विपक्ष के साथ खड़ा होना चाहिए। बद्री के वैचारिक विचलन और अवसरवादिता पर सवाल कई सालों से उठ रहे थे। आखिर बद्री एक समाजविज्ञानी होने के नाते conspiracy of hindutva की जगह republic of hindutva शीर्षक से किताब क्यों लिख रहे हैं। अगर बद्री शुरू से संघ परिवार या भाजपा से जुड़े होते तो उनका विरोध नहीं होता क्योंकि सबको उनका स्टैंड पता होता।उनके विरोधियों का कहना है कि बद्री कभी मायावती कभी राहुल कभी संघ के निकट हो जाते हैं। क्या यह सच है कि बद्री अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए यह सब करते हैं? रोमिला थापर, हरबंश मुखिया, प्रभात पटनायक जैसे समाजविज्ञानियों पर इस तरह के आरोप नहीं लगे। क्या बद्री के खिलाफ कोई गुट है जो उन्हें बदनाम कर रहा है या बद्री की ढुलमुल राजनीति उसके लिए जिम्मेदार है?

लेकिन यह भी सच है कि साहित्य अकादेमी खुद को भले ही स्वायत्त संस्था होने का दावा करे पर आज वह सरकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। वैसे भी हर सरकारी संस्थान अपने वैचारिक दायरे में ही काम करता है, वह सरकारी संस्थान आज की तारीख में अधिक प्रगतिशील और जनवादी संस्थान नहीं हो सकता है पर यह भी सच है कि सरकारों के बदलने के साथ-साथ संस्थानों का चरित्र बदल जाता है और जाने-अनजाने पुरस्कार की प्रक्रिया भी उससे प्रभावित होने लगती है।

क्या कारण है कि कांग्रेस के शासनकाल में जो लोग पुरस्कृत नहीं किए गए, अब अकादेमी के पुरस्कारों में उनके लिए जगह बन रही है या कम से कम ऐसे लोगों को पुरस्कृत नहीं किया जा रहा है जो अपने लेखन में सीधे-सीधे सत्ता को चुनौती देते हैं। बद्री को जो पुरस्कार मिला है उसके लिए विचारणीय किताबों की सूची में मृणाल पांडे का भी उपन्यास था लेकिन क्या साहित्य अकादेमी मृणाल पांडे को यह पुरस्कार नहीं दे सकती थी? लेकिन आज मृणाल जी कांग्रेस के अखबार नेशनल हेराल्ड की मुख्य संपादक हैं, उन्हें अवार्ड देने का जोखिम शायद साहित्य अकादेमी अब नहीं ले सकती है क्योंकि अकादमी दक्षिणपंथी तत्त्वों के चंगुल में बुरी तरह फंस चुकी है।

क्या एक कवि को, लेखक को ऐसी संस्थाओं के विरुद्ध आवाज नहीं उठानी चाहिए?

अगर बद्री यह पुरस्कार लौटा देते तो हमारे लिए और प्रिय हो जाते। हम उन पर अधिक नाज़ करते लेकिन हिंदी की दुनिया में जल्दी कोई पुरस्कार नहीं लौटाता। लोग लालू और अखिलेश यादव से भी पुरस्कार ले लेते हैं। ऐसे लोग भी बद्री पर सवाल उठाते हैं।

साहिर लुधियानवी के शब्दों में-

यह दुनिया (साहित्य अकादमी पुरस्कार)अगर मिल भी जाए तो क्या है?

क्या हिंदी का लेखक समाज फासीवाद के खिलाफ लड़ने के लिए जगेगा या पुरस्कार की बहस में ही उलझा रहेगा?


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