अफ़ग़ान कविताएँ

0
पेंटिंग - कौशलेश पाण्डेय

(दशकों से युद्धरत एक देश की कविताएँ)

हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह

1. गर्व

अब्दुल बारी जहानी

कितनी मधुर होती हैं युद्धभूमि की कहानियाँ।
कितनी सहज प्रशंसा और शाबाशी की चीखें।
कितना आनंददायक है निडर मर्दों की चर्चा करना
और सुनाना उनके वीरतापूर्ण जीवन की किंवदन्तियाँ।
कितने सुखदायक हैं कानों के लिए पुराने गीत
और कुमारियों द्वारा दुहराए जाते शेरदिल युवाओं के नाम।
कितने गर्व के साथ आती हैं
सुंदर लड़कियाँ बेसब्र झुंड में, फूलों के गुच्छों की भाँति,
शहीदों के मज़ारों पर।

पर क्या किसी ने पूछा शहीद से उसके ज़ख्मों के बारे में?
किसी ने की बात योद्धा से उसके कष्टों के बारे में?
किसी ने झाँका मौत की दहलीज़ पर खड़ी उसकी आँखों में
और पढ़ी उनकी व्यर्थ हो चुकी आशाओं की कथाएँ?
क्या किसी ने देखा शहीद की माँ का खंडित हृदय?
क्या साक्षी रहा कोई उसकी युवा विधवा के
बर्बाद जीवन का?
क्या किसी ने ठोकर खायी टूट चुके हज़ारों स्वप्नों के ढेर से?
क्या उस कवि ने, जो लिखता है ज़ंजीरों और
बेड़ियों के बारे में,
महसूस की है रात्रि में कालकोठरी की ठंडक?
क्या उसे फेंका गया है कभी बिच्छुओं से भरे गड्ढे में,
डंक झेलने को हड्डियों की गहराई तक बारम्बार?

मैं कभी भी भुला नहीं सकता बुद्धिमान लोगों का कहना :
‘आग उसी धरती को जलाती है जिस पर वह जलती है।’

2. ओ मेरी पवित्र भूमि के योद्धा

दरवेश दुर्रानी

ओ मेरी पवित्र भूमि के योद्धा
बंदूक़ को, जो तुम धारण करते हो अपने कंधे पर
न इसको आँखें हैं न ही पाँव।
यह चुरा लेती है तुम्हारी आँखें नज़र रखने को
मेरे कदमों पर,
यह चुरा लेती है तुम्हारे पाँव मुझे तलाश करने को।
भेद देने को मेरा वक्ष,
सुनने को मेरी मरणांतक चीखें तुम्हारे कानों से।

ओ मेरी पवित्र भूमि के योद्धा
यह बंदूक़ जो तुम धारण करते हो अपने कंधे पर
क्या यह है विकलांग, बहरी और नेत्रहीन?
क्या त्याग दी हैं इसने अपनी आँखें, कान और पाँव
ले लेने को तुम्हारे उनकी जगह?

हो सकता है तुम न जानते हो कुछ भी
इस बंदूक़ के बारे में –
पर मैं जानता हूँ कि हमारा साझा दुश्मन
रच रहा दुरभिसंधियाँ हमारे विरुद्ध एक दूरस्थ देश में।
वह बनाता है योजनाएँ हमारे लिए, विनष्ट करने को
हमारे भाइयों को,
तोड़ देने को एक दूसरे के जबड़े बर्बर शक्ति से,
जबकि वह बैठा है सुरक्षित पहुँच से बाहर।
वह चाहता है मिट्टी में मिला देना हमारा रक्त
जबकि उसका रक्त सुरक्षित है बिना बहे।
वह चाहता है जम जाएँ हम ठंड से हर रात मोर्चे पर
जबकि वह बैठा होता है अग्नि की उष्णता में।
इस तरह रचता है साज़िशें हमारा शत्रु :
छोड़ कर अपनी देह अपने घर में एक कमीज की तरह
वह आता है हमारी भूमि पर एक बंदूक़ की शक्ल में।

ओ मेरी पवित्र भूमि के योद्धा
जब यह दुष्ट, अंगहीन शत्रु
आता है हमारी भूमि पर एक बंदूक़ की शक्ल में
वह आता नहीं अकेला, बल्कि झुंडों में
इस भूमि के लोगों से भी अधिक संख्याबल में,
हर बंदूक़ चलती और गोलियाँ बरसाती अनियंत्रित :
एक में भी हड्डी नहीं जो टूट सकती
एक में भी त्वचा नहीं जो जल सकती
एक में भी शिरा के बिना जो फट सकती
एक में भी रक्त नहीं जो बह सकता।
उसके सभी अंग हैं सुरक्षित अपने घर में
और उनकी जगह वह प्रयोग करता है यहाँ हमारे अंग।
एक बंदूक़ पीछा करती है मेरा तुम्हारे पाँवों से,
एक और निशाना बनाती है तुम्हें मेरी आँखों से,
एक तीसरी पड़ी है एक अन्य व्यक्ति के कंधे पर –
जैसे यह बंदूक़ पड़ी है तुम्हारे कंधे पर।
इसके सभी अंग छोड़ दिए गए हैं घर पर,
यह आती है बस अपने मुँह के साथ।
कंधे हैं तुम्हारे किंतु मुँह है उसका –
एक दंतविहीन मुँह जो बोलता है गोलियों की भाषा में –
पर जब एक गोली भेद देती किसी मनुष्य को
वह नहीं देखता उस बंदूक़ का दंतहीन मुँह;
बल्कि वह देखता है तुम्हारा कंधा, तुम्हारे हाथ,
वह तुम्हें मानता है अपना दुश्मन, न कि बंदूक़ को :
और वह चाहता है प्रतिशोध तुम से।

ओ मेरी पवित्र भूमि के योद्धा
बंदूक़ ने, जो तुम धारण करते हो अपने कंधे पर –
बिखेरा है कितना लहू इसने हमारी धरती पर
और कभी भी नहीं माँगा गया इससे कोई हिसाब?
मात्र तुम्हें दिया गया दोष इस रक्तपात का
और लिया गया प्रतिशोध तुम से
जब वे उठाते हैं एक और बंदूक़ अपने कंधे पर
उससे निकलती गोली का निशाना लेते तुम्हारे हृदय पर।

ओ तुम जिसे लालसा है राजमुकुट की,
एक दिन यह गोली भेद देगी तुम्हारा हृदय
तुम जा रहे हो निरंतर करीब ताबूत के सिंहासन की बजाय –
ध्यान दो और सोचो फिर से
इसके पूर्व कि शत्रु धकेल दे तुम्हें किसी कब्र में।
बचाने को स्वयं को इस अंधेरी नियति से
जानना चाहिए तुम्हें उस शत्रु के बारे में
जो रचता है साज़िश तुम्हारे अंत की।
मैं हूँ तुम्हारा भाई : हमारा साझा शत्रु
बैठा है तुम्हारे कंधे पर, विकलांग, बहरा और नेत्रहीन।
यह नज़र रखता है मेरे कदमों पर तुम्हारी आँखों से,
यह पीछा करता है मेरा तुम्हारे पैरों से
भेद देने को मेरा वक्ष
सुनने को मेरी मरणान्तक चीखें तुम्हारे कानों से।

3. समाधि-लेख

शकीला अज़ीज़ादा

किसकी मर रही साँसें सो रही हैं
तुम्हारी बादामी आँखों में?

किस नन्हें बच्चे की दृष्टि
बुझ जाती है तुम्हारे ट्रिगर से?

किस युवा लड़की के लिए,
उसका हृदय तुम्हारी हथेली में,
रक्तरंजित पाँव, क्या तुम्हारा हृदय धड़कता है?

पर्वत पुरुष !
कौन सी नियति विखंडित कर देगी चट्टानों को
तुम्हारे पाँव के नीचे से?

कौन सी स्त्री महसूस करेगी जलते हुए अपने कुचाग्र
तुम्हारे धूलि धूसरित काले केशों के लिए,
कौन सी माँ अपने पुत्र के लिए?

कहो मुझ से,
किसकी आँखों की गहराइयों में
तुम्हारी मरती हुई साँसें पाएँगी शांति।

पेंटिंग – मो. सज्जाद इस्लाम

4. अनुवाचन

शक़ीला अजीज़ादा

उसका नाम ‘नाज़नीन’,
हज़ारों अन्य स्नेह स्पर्शों के संग,
जलता है उसकी माँ के कंठ में
एक लपट की भाँति, लपट की भाँति।

उसका वक्ष भेद दिया गया हो भले ही
पर वह है एक रत्नपेटिका
भरी हुई छुपे हुए हज़ारों लाड़-दुलार से।

ला इलाह ! मुल्ला
भटक गया है पथ से।
मधुर तुलसी की क्यारियाँ बिखेर रही हैं
हवा में अपनी सुगंधि और
ला इला !… उसकी शपथ रुक जाती है बीच में ही।

उसकी माँ की उँगलियाँ
सुलझा रही हैं उसके उलझे हुए केश
कानों के पीछे
एक एक लट।

लुढ़के पड़े हैं उसकी माँ के घुटनों पर
उसका सिर और गर्दन, निर्जीव
एकमेव फूलों की गोद में।

‘नाज़नीन’ ! विलाप करती है उसकी माँ
ऊपर फेंकती अपने हाथ, पीटती
अपना सिर, बिखरे हुए हैं उसके श्वेत केश
गुच्छे गुच्छे जैसे गेहूं और जौ
अंकुरित हो उसकी उँगलियों के मध्य।

हट जाती है श्वेत चादर।
वक्ष का घाव, किशोर वक्ष
हो गए अनावृत, पुनः कुरेदते उसकी माँ की पीड़ा।

ला इलाह ! कहता है मुल्ला।

अगरबत्तियाँ जलाने वाली
घुमाती है अपना सिर।

कपूर की गंध
मिल जाती है माँ के विलाप के साथ
नहीं है
कोई ईश्वर,
नहीं है
कोई ईश्वर,
नहीं है
कोई ईश्वर,
कोई ईश्वर नहीं है।

पेंटिंग – सवीर सरदार

5. काबुल

शकीला अजीज़ादा

यदि मेरा हृदय धड़कता है
काबुल के लिए
तो यह है बाला हिस्सर के ढलानों के लिए
धारण किए मेरा मरण
अपनी तलहटी में।

यद्यपि एक भी, एक भी
वे घृणित हृदय
धड़कते नहीं कभी मेरे लिए।

यदि मेरा हृदय शोकाकुल है
काबुल के लिए
यह है लैला के निश्वास के लिए :
‘या अल्लाह !’
और ज़ोर से धड़कने लगता है
मेरी दादी का हृदय।

यह है गुलनार की
पथ निहारती आँखों के लिए
भोर से गोधूलि तक, बसंत से पतझड़ तक,
ताकती न जाने कितने समय से
कि ध्वस्त हो जाती हैं सब सड़कें
और मेरे किशोर दुस्वप्नों में
छोटी सड़कें
छोड़ने लगती हैं केंचुल अकस्मात्।

यदि मेरा हृदय काँपता है
काबुल के लिए
तो यह है ग्रीष्म की दोपहरी के सुस्त कदमों हेतु,
मेरे पिता के घर की झपकियाँ जो,
मध्याह्न की नींद से भारी,
अब भी हैं मेरी पसलियों पर वजन सी।

दाएँ कंधे के खिलंदड़े कोण के लिए
जो भूलता रहता है
बचना भटकी हुई गोलियों से।

यह है हाकर की चीख़ों के लिए
घुमंतू सब्ज़ी बेचने वाले के लिए,
खोए हुए मेरे पड़ोसी के बेचैन स्वप्नों में,
कंपकंपाता है मेरा हृदय।

6. अपील

नादिया अंजुमन

हे आकाश, टूट कर बरसो इस दग्ध धरती पर –
वह तरस रही है जीवन जल की एक बूंद को
उसके होंठ हैं सूखे हुए और जल रहा है उसका हृदय
यह सब है मानो देखना साक्षात् मृत्यु को

हे बादल, मुड़ जाओ उत्तप्त भूमि की ओर
हजारों किसान देख रहे हैं तुम्हारी तरफ
आओ शहर के हरित मणि के पर्वतों के लिए
जो धारण किये हैं शोक करते लोगों जैसी
चिथड़े हो चुकी पोशाक

हे जल, प्रकृति के चिकित्सक, आओ कृपा कर
तुम्हारी अनुपस्थिति कर रही है भग्न फूलों के हृदय
नहीं बची है कोई शक्ति बागों में
मुस्कराहटें सूख गयी हैं होंठों पर

हे स्वामी, किसान को
न मरने दो प्यासा समय की इस भट्ठी में
बूंद है एक अलौकिक उपहार
फिर से नया करने को कृषक के कमजोर हाथों को

हे प्रभु, रहम करो खिन्न खानाबदोशों पर
हे प्रभु, दया करो समुद्र के दुखी हृदय पर
स्वामी, बसंत के जलते होंठों पर
जल चुके रेगिस्तानों पर, बरसाओ कृपा की वर्षा

हम हैं शर्मिंदा और टूट चुके सेवक
डूबे हुए गुनाहों में, गहन अंधकार में
हे प्रभु, मत होने दो हमें और कमजोर
मुक्ति दो हमें, यद्यपि हम पात्र हैं इस कष्ट के ही

बरसाओ जल हम पर, क्योंकि हम हैं घिरे हुए लपटों से
कुछ जल बसंत की शुष्क आँखों के लिए
यह जलती हुई धरती है तुम्हारे शिष्य का शयन कक्ष
मत चले जाने दो इसे पूर्ण अराजकता के दुश्चक्र में।

Leave a Comment