— डॉ. कश्मीर उप्पल —
लेखन में शब्द ही एकमात्र साधन और माध्यम है। यहाँ तक कि शब्द और अर्थ के पार जाने के लिए भी शब्द ही माध्यम और साधन है। दूसरी ओर, सिनेमा एक ऐसी कला है जिसमें संगीत, चित्र, ध्वनि, शब्द, संकेत जैसे तमाम साधनों का संयोजित प्रयोग अनिवार्य है।”
गिरधर राठी अपनी पुस्तक ‘सोच-विचार’ (संभावना प्रकाशन) में अपने एक आलेख ‘साहित्य और सिनेमा : पुनर्रचना के प्रश्न’ में आगे लिखते हैं- जैसे सगुण भक्ति बिम्ब, मूर्ति या प्रतीक पर, या उसकी कल्पना पर आधारित होती है, निर्गुण भक्ति निराकार, अमूर्त और लगभग अज्ञेय शक्ति या बल की कल्पना के आधार पर होती है। इस तरह तुलना करें तो सिनेमा किसी हद तक शिल्प और वास्तुकला की तरह ‘सगुण’ लगेगा, भले ही उसे ‘स्पर्श’ करना सम्भव न हो। संगीत या साहित्य की तरह वह निर्गुण नहीं, जिसमें केवल कल्पना और बुद्धि से अदृश्य-अश्रव्य वास्तविकताओं की अनुभूति और कल्पना करना होता है। सरल ढंग से कहें तो कह सकते हैं : संगीत में स्वर-तान से और साहित्य में केवल शब्दों के पठन-पाठन-उच्चारण में जिस तरह ठोस वास्तविकताओं की कल्पना करनी होती है, सिनेमा उसके विपरीत, ठोस वास्तविकता रचकर (चाहे तो) अमूर्तन के, कल्पना के लोक में ले जाता है।
गिरधर राठी साहित्य, भाषा, चित्रकला, नाटक और सिनेमा पर ‘सोच-विचार’ करते हुए उनके व्यापक संदर्भों में अपनी बात रखते हैं। इसी पुस्तक ‘सोच-विचार’ में अपने एक दूसरे आलेख ‘हिन्दी सिनेमा : बीस साल बाद आज’ में वे सिनेमा और समाज के अंतर्संबंधों की व्याख्या करते हैं। गिरधर राठी बताते हैं कि लोठार लुत्से और अनिल साहरी आदि ने 1980 के आसपास ‘एजेंट रीएजेंट’ की अवधारणा पेश की थी। फिल्म समाज का दर्पण बनती है, फिर कुछ बारीक तरमीम करके समाज को ही अपना दर्पण बनाती है। घात-प्रतिघात निरंतर चलता रहता है।
गिरधर समाज पर सिनेमा के प्रभाव को बाजारों, स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में और विवाह, जन्मोत्सव, रतजगा–भगवती जागरण, भजन मण्डली तक में देखते हैं। वे कहते हैं कि ‘सबसे अधिक हैरत शायद इस बात पर होती है कि भोंडा हो या भव्य, हिन्दी सिनेमा के साथ चौबीस घण्टे और बरस-दर-बरस अपना जीवन बिताने को हममें से अधिकांश तैयार हैं। रेडियो, टीवी, मोबाइल और तमाम उपकरण हमें हिंदी सिनेमा से नहलाये रखते हैं।’
यह जादू सिर्फ भारतीय समाज तक सीमित नहीं रहा। राज कपूर की फिल्में और गीत सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप और चीन में एक समय बेहद लोकप्रिय थे। गिरधर राठी के अनुसार इसका कारण यह था कि ‘उनमें उन्हें एक तरह की बंधन-मुक्तता, अल्हड़पन, आवारगी दिखायी देती थी, जिससे वे खुद वंचित थे।’
गिरधर राठी अपने आलेख में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं- ‘फिल्म की भाषा दरअसल स्वर-चित्र-तर्क से बनी एक ऐसी सांकेतिक भाषा है जिसे हम सब अपनी-अपनी तरह से समझने को स्वतंत्र हैं।’ गिरधर राठी सिनेमा को समझने का यह जो व्यापक आधार देते हैं, इसके परिप्रेक्ष्य में संपादक इन्द्रजीत सिंह की दो पुस्तकें ‘धरती कहे पुकार के’ और ‘तू प्यार का सागर है’ गहरे अर्थ ग्रहण करती हैं।
इन्द्रजीत की ये दोनों पुस्तकें कवि-गीतकार शैलेन्द्र पर हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवियों, लेखकों, आलोचकों और कलाकारों के द्वारा किया गया मूल्यांकन का दस्तावेजी प्रमाण हैं। इसके माध्यम से भारतीय-सिनेमा की सामाजिक प्रतिबद्धता और उसके सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन देश के समकालीन माहौल में काफी मानीखेज है।
इस समय बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तकें सामने आ रही हैं पर व्यापक सामाजिक-सोच पर सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही छाया पड़ रही है। इसलिए सामाजिक-नैतिक आधार पर विवादास्पद ही सामने आ रहा है मानो मीडिया के विशाल डैने अपने में सब-कुछ समेटने को आतुर हों। इसका एक प्रमुख कारण सिनेमा की भाषा का चुक जाना भी है। सिनेमा का बड़ा भाग अब सिनेमा के परदे से खिसक कर टेलीविजन के स्क्रीन में समाहित होता जा रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के इस सर्वभक्षीपन ने सिनेमा के स्वातंत्र्य पर हमला बोल दिया है। आज जो सिनेमा सामने आ रहा है वह भी केंद्र की सरकार की राजनीति के अनुकूल भगवा-रंग से सरोबार एकपक्षीय बन गया है।
ऐसे समय में गीतकार शैलेन्द्र का अनुस्मरण सिनेमा की भाषा की शक्ति को सामने लाता है। हमें याद करना होगा कि 2017 का नोबेल पुरस्कार एक लोक-गायक को दिया गया था। वर्तमान व्यवस्था की कटु आलोचक नाओमी क्लाइन तो इस खबर को सुनकर उछल पड़ी थीं।
लाल बहादुर वर्मा पुस्तक ‘तू प्यार का सागर है’ में कहते हैं कि ऐसा पुरस्कार भारतीय संदर्भ में होता तो निश्चित ही नोबेल पुरस्कार गीतकार शैलेन्द्र को मिल सकता था। लाल बहादुर वर्मा प्रश्न उठाते हैं कि शैलेन्द्र के समकालीन साहिर और कैफी आजमी जैसे शायर जितने फिल्मों में लोकप्रिय और सम्मानित रहे उतने ही उर्दू अदब में भी। पर शैलेन्द्र का हिन्दी साहित्य के इतिहास में नाम तक दर्ज नहीं हो पाया। जबकि बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन, शैलेन्द्र को हिन्दी साहित्य का कवि घोषित करते रहे हैं।
ऋतुराज अपने एक आलेख में कहते हैं कि ‘फिल्म एकसाथ चाक्षुष और श्रव्य कला माध्यम है, अवचेतन में गहराई तक जीवित रहने वाला अनुभव है। लेकिन हमारे अवचेतन के डार्करूम में सुना गया फिल्मी गीत अपने अलावा सबकुछ मिटा देता है या फिर उससे संबद्ध छवियों का वितान अपने साथ-साथ पुनर्सजिज्जत करता है। यह गीत-संस्कृति हमारे जीवन के साथ-साथ यात्रा करती है और अक्सर हम उसे स्मृति में दोहराते रहते हैं। वह हमें बाँधे रखती है। शैलेन्द्र के गीतों ने एक सामूहिक अवचेतन रचा है। कहना चाहिए कि वह एक पुनरुज्जीवक स्मृति लोक है, एक आनन्ददायी नॉस्टेल्जिया है जिसके कारण हम बीहड़ वर्तमान में अतीत से ऊर्जा लेने की कोशिश करते हैं।’
वर्तमान में हम अपनी व्यवस्था में ‘याराना-पूँजीवाद’ के गठजोड़ को खूब फलता-फूलता देख रहे हैं। देश की अधिकांश पूँजी और संपत्ति देश के 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमटकर रह गई है। ‘याराना-पूँजीवाद’ के कारनामे हमे चौंकाते रहते हैं पर इसके विरुद्ध आज सिनेमा-साहित्य में कुछ भी सुनने को नहीं मिलता है। लगता है आज का सिनेमा एक ऐसा अंधा-बहरा-सिनेमा है जो बस अपनी कहता है। देश में घट रही त्रासदियों से जैसे सिनेमा का कोई सरोकार ही नहीं रह गया है।
लीलाधर मंडलोई बताते हैं कि शैलेन्द्र पूँजीवाद, कॉर्पोरेट को षड्यंत्र, गरीबों की त्रासदी के सच को जान गए थे। आज की कविता में यह चेतना प्रखर नहीं। आज की कविता शैलेन्द्र के काव्य के सामने भोथरी लगती हैं। शैलेन्द्र जैसे कवियों के अभाव से जैसे सिनेमा पहले की तरह ही पुनः मूक-सिनेमा हो गया है।
वे कहते हैं कि शैलेन्द्र के पास ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो जनवादी चेतना की मुकम्मल गवाही हैं। जनवादी कवियों की पांत में वे अधिक साफ-मारक कवि थे। शैलेन्द्र के गीत आज भी जन-स्मृति में हैं। आज के इस कठिन दौर में भी शैलेन्द्र के गीत ढ़ाढ़स बँधाते हैं। हम देख सकते हैं कि किस तरह लोगों की बँधी मुट्ठियाँ भीख के लिए फैली हथेलियों में बदलती जा रही हैं।
हमारे देश की सामाजिकता ‘नोटबंदी’ से लड़खड़ाई सी चल रही थी पर वह कोरोना की पहली ही चोट में चरमरा कर बिखर गई है। उस समय लाखों कामगार सडकों पर पैदल अपने घर की ओर चल पड़े थे। अभी तक इस तरह के सामाजिक बिखराव पर प्रश्न उठाता कोई भी गीत हमारा सिनेमा नहीं रच पाया है। याद करने पर शैलेन्द्र ही याद आते हैं जिन्होंने पूँजीवादी गठजोड़ पर प्रश्न उठाए थे।
शैलेन्द्र ने राज कपूर की फिल्म आवारा के टाइटिल सांग में जो प्रश्न उठाये थे उके उत्तर आज तक नहीं मिले हैं। इसलिए देश के आसमान पर आज भी उके गीत अमर होकर उन्हीं सवालों को उठाते घुमड़ते रहते हैं। दीप भट्ट के अनुसार- आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ गीत के अंतरे मे उन्होंने व्यवस्था पर सवाल उठाते लिखा है- ‘आबाद नहीं बरबाद नहीं, गाता हूँ खुशी के गीत मगर, जख्मों से भरा सीना है मेरा, हँसती है मगर ये मस्त नजर, दुनिया में तेरे तीर का या तकदीर का मारा हूँ।’ आज सिनेमा उस ‘तीर’ की तरफ देख भी नहीं रहा है जिसका मारा खुद सिनेमा भी है।
इन्द्रजीत सिंह के संपादन में गीतकार शैलेन्द्र पर उनकी पहली पुस्तक ‘धरती कहे पुकार के’ आयी। 2019 में प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उसका दूसरा संस्करण भी आ गया था। इसमें रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भारत यायावर, अजय तिवारी, त्रिलोचन, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, भीष्म साहनी और कमलेश्वर जैसे लेखकों के विचार सम्मिलित हैं। यह शायद पहली ऐसी घटना है जिसमें फिल्मों के गीतकार पर साहित्य के इतने बड़े-बड़े मनीषियों ने गहन चिंतन-मनन किया हो।
रामविलास शर्मा और शैलेन्द्र के मध्य हुआ साक्षात-संवाद आज शैलेन्द्र की कही बातों के यथार्थ को ही सही रास्ता मान रहा है। उस समय रामविलास शर्मा को अखिल भारतीय लेखक-संघ का महासचिव चुना गया था। शैलेन्द्र को कहा गया कि डांगे ने लिखा है कि शांति आन्दोलन को इतना विस्तृत बनाना है कि उसमें अमेरिकन की आलोचना भी न की जाए। इस पर शैलेन्द्र ने कहा था कि अमेरिका की भी आलोचना न करेंगे तो किसकी करेंगे? इससे शैलेन्द्र के दृष्टिकोण का व्यापक दायरा समझा जा सकता है।
नामवर सिंह बताते हैं कि जुलाई 1952 में प्रकाशित ‘आलोचना’ के चौथे अंक में मैंने एक लेख “हिंदी कविता के पिछले दस वर्ष में”शंकर शैलेन्द्र का जिक्र किया है। इसी तरह मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि शैलेन्द्र की कविताएँ जन आंदोलनों को ताकत देने वाली कविताएँ हैं। उनमें कहीं मजदूर आन्दोलनों की अनुगूँज है तो कहीं मजदूरों की यातना की अभिव्यक्ति, कहीं मजदूरों का जोश है तो कहीं उनकी चिंताएँ, कहीं संघर्ष का आवाहन है तो कहीं मजदूरों में आत्मविश्वास पैदा करने का प्रयत्न। अगर हम इन सब कविताओं की तुलना वर्तमान मजदूर गरीबों की यातनाओं से करें तो एक नया सवेरा आज भी दीखेगा।
कमलेश्वर बताते हैं कि शैलेन्द्र अगस्त 1942 के आंदोलन में जेल भी गए थे। तब हिंदी कविता में प्रगतिवाद का स्वर बुलन्दी पर था। दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रगीत काव्य अपने परवान पर थे। शैलेन्द्र इस जनवादी धारा के शीर्ष कवियों में गिने जाते थे।
असगर वजाहत रेखांकित करते हैं कि अपनी अद्वितीय प्रतिभा के कारण शैलेन्द्र ने जो नई उपमाएँ प्रस्तुत कीं वे हिंदी सिनेमा साहित्य के लिए नई थीं। वे उपमाएँ फारसी-उर्दू परंपरा की उपमाओं से अलग, बहुत सादगी भरी थीं। उनमें ईमानदारी का तेज था। रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत की गई थीं। वे आगे कहते हैं कि शैलेन्द्र का यह स्वभाव उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा अर्थात कबीर और नजीर अकबरावादी से जोड़ता है।
यहीं से यह प्रश्न उठता है कि भारतीय काव्य-परंपरा से जुड़ा एक कवि जब फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरता है तो उसका यह कदम उसके जीवन की नीच-ट्रेजेडी क्यों बन जाता है?
एक गंभीर फिल्म को देखना जीवन और दुनिया के गंभीर-अनुभवों के क्षणों में से गुजरना है। ऐसा क्षण जो फिल्म के समाप्त होने के बाद भी असमाप्त बना रहता है। वह हमारे जीवनानुभवों में बार-बार हमें घेरता-घूरता है जैसे ‘तीसरी कसम’ दर्शक ही ले रहा हो।
इस तरह फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया किसी एक प्रसंग को पकड़ने और कई-कई जीवन-अनुभूतियों के एकांश हो जाने पर आकार लेती है। कई कलाओं की संवेदनाएँ जब एकरूप होकर दर्शक की ओर बहती हैं तब उनके रंगों-भावों में भीग न पाना असंभव होता है। परदे की रोशनी दर्शक का दूर तक पीछा करती है और दर्शक की संवेदनशीलता फिल्म-कला के तने हुए तारों का स्पर्श पाकर बजने लगती है।
फिल्म विश्लेषक सुनील मिश्र कहते हैं कि अभिनय की श्रेष्ठता, कहानी अनमोल है, फिल्मांकन कमाल का है, एक एक गीत में जीवन दर्शन व्याप्त है, गायन और संगीत रचना अविस्मरणीय है। इसके बाद भी शैलेन्द्र की फिल्म 1966 में ग्राह्य न हुई।
शैलेन्द्र के अवसाद में जाने, कर्ज में डूब जाने और अन्ततः नहीं रहने के बाद से आज तक हर संजीदा और गंभीर जानकार से लेकर दर्शक तक इस फिल्म की प्रशंसा किए बिना नहीं थकता। हमें इस पूरी मनःस्थिति पर दरअसल विचार करने की जरूरत है।
शैलेन्द्र और उन जैसे प्रतिभाशाली सर्जकों का स्मरण करते हुए, जिनका अवसाद बाद में एक सामाजिक-प्रायश्चित की तरह भी याद आता है, हमारे पास इस बात को स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता कि दरअसल हम सब लंबे समय से संवेदनहीन समय का ही हिस्सा हैं।
शैलेन्द्र अपनी फिल्म की रचनात्मकता के प्रति प्रतिबद्ध थे। अपनी इस रचना में परिवर्तन उन्हें स्वीकार नहीं हुआ। राज कपूर जो सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन थे इस फिल्म की सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं थे। जुलाई 1966 में राज साहब, शैलेन्द्र, रेणु और इस फिल्म के वितरक एक मीटिंग में शामिल हुए। वितरकों की एक स्वर में राय थी कि फिल्म के अंत को बदला जाए और हिरामन और हीराबाई का मिलन करा दिया जाए। फिल्म सुखान्त होगी तो फिल्म को बहुत दर्शक मिलेंगे।
शैलेन्द्र के साथ रेणु भी कहानी में फेरबदल के पक्ष में नहीं थे। शैलेन्द्र की पुस्तक के संपादक इन्द्रजीत सिंह आगे बताते हैं कि सितम्बर 1966 में दिल्ली के डिलाइट सिनेमा में बिना प्रचार-प्रसार के फिल्म का प्रदर्शन करा दिया गया। फलस्वरूप हाल खाली रहने के कारण दो दिन में ही फिल्म उतार ली गई। देश के कुछ दूसरे भागों में भी दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया। इस सब के बावजूद फिल्म की रिपोर्ट अच्छी रही। सभी समीक्षाएँ उच्चकोटि की मिलीं।
शैलेन्द्र फिल्म की आरंभिक असफलता से बहुत आहत हुए। 14 दिसम्बर 1966 को शैलेन्द्र इस दुनिया से विदा हुए। संपादक इन्द्रजीत बताते हैं कि सितंबर 1966 में जिन दर्शकों ने फिल्म को नकारा उन्हीं ने 1967 के आरंभ में फिल्म को हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया।
1966 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा 1967 में की गई। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का स्वर्ण-पदक मिला और बीस हजार रुपये का नकद पुरस्कार दिया गया। इस प्रतियोगिता में कालजयी फिल्म निर्देशक सत्यजित रे की फिल्म को रीजनल भाषा का सिल्वर मेडल मिला।
बंगाल जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने भी ‘तीसरी कसम’ फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का सम्मान प्रदान किया। शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’फिल्म की कहानी की आत्मा के साथ अनाचार होने के बजाय अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। फणीश्वरनाथ रेणु के अनुसार,‘शैलेन्द्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक धर्मयुद्ध में लड़ता हुआ शहीद हो गया।’