– पी.एन.सिंह –
अंग्रेजी के ‘इंटलेक्चुअल’ शब्द के लिए हिंदी में बुद्धिजीवी शब्द रूढ़ हो गया है जो भ्रामक है। बुद्धिजीवी के मानी हैं- वह जो बुद्धि के सहारे जीवित हो। इस प्रकार जिनकी भी जीविका का आधार गैर-शारीरिक श्रम है, वे बुद्धिजीवी कहलाएंगे। इस श्रेणी में ऑफिस का बाबू, अफसर, इंजीनियर, डॉक्टर, पुरोहित, वकील, दलाल, सटोरिया, प्रबंधक, नेता, शिक्षक, पत्रकार, लेखक, कवि, वैज्ञानिक, दार्शनिक आदि सभी गिने जाएंगे। इसमें नटवरलाल भी आएंगे और मार्क्स तथा गांधी भी। इसमें कालिदास, शेक्सपियर, ताल्सताय के साथ-साथ गुलशन नंदा, कर्नल रंजीत और जेम्स बांड भी आएंगे। विज्ञान का एक सामान्य वेतनभोगी शिक्षक न्यूटन, गैलीलियो और आइंस्टीन की श्रेणी में गिना जाएगा। इन सबके जीवन-यापन में बुद्धिश्रम की प्रधानता है। वैसे थोरो और गांधी जैसे लोगों ने बौद्धिक और शारीरिक श्रम में तालमेल बिठाने की कोशिश की थी, लेकिन इतने से न इन्हें बुद्धिजीवी कहा जाएगा और न श्रमजीवी ही। प्रसिद्ध समाज-चिंतक सी. राइट मिल्स ने यांत्रिक रूप से गैर-शारीरिक पेशों में लगे लोगों के लिए ‘सफेदपोश’ (वाइट कॉलर) शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार सभी ‘सफेदपोश’ ‘इंटलेक्चुअल’ कहलाने का गौरव प्राप्त कर लेंगे।
शब्दकोशों में ‘इंटलेक्चुअल’ शब्द के जो अर्थ दिए गए हैं उनमें बुद्धिधर्मिता या बौद्धिकता का स्वर प्रमुख है। अतः इंटलेक्चुल शब्द का हिंदी अनुवाद बुद्धिधर्मी समीचीन होता। बुद्धिधर्मी वह है जो किसी व्यक्ति, विचार, आस्था, प्रतीक या परिघटना आदि की समझ के लिए बुद्धि एवं तर्क का सहारा लेता है, न कि विश्वास, आप्त-वचन अथवा किसी पूर्वाग्रह का। तर्क में वस्तुगतता होनी चाहिए अन्यथा वह किसी निहित स्वार्थ अथवा पूर्वाग्रह की पुष्टि में प्रयुक्त होगा। कार्ल मार्क्स ने कहा है कि तर्कपरकता तो हमेशा रही है, लेकिन वह हमेशा विवेकशील नहीं रही है। निस्पृह तर्कपरकता में ही विवेकशीलता की संभावना होती है। आसक्त तर्क विवेकहीनता का पोषक हो सकता है। संभव है, बुद्धिधर्मिता किसी व्यक्ति को उस बिंदु तक ले जाए जो उसकी व्यक्तिगत आस्थाओं एवं मान्यताओं के प्रतिकूल हो। लेकिन बुद्धिधर्मी अपने तार्किक निष्कर्षों को प्रामाणिक मानता है, न कि अपने किसी पूर्व-मत अथवा आस्था को। हीगेल को लेकर कार्ल मार्क्स के जीवन में यह स्थिति आई थी जब उन्हें हीगेल की स्थापनाओं और निष्कर्षों में असंगति दिखी थी। वे रात-रात भर परेशान रहते, लेकिन अंत में अपने बौद्धिक आदर्श हीगेल से वे दूर हटे। गांधी जैसे आस्थावान व्यक्ति को भी जैसे-जैसे अपने अनुभवाश्रित सामाजिक विवेक और शास्त्रों के निष्कर्षों में असंगति दिखी, उन्होंने भी शास्त्रीय वचनों को ‘शैतान की कृति’ बताकर मानने से अस्वीकार किया।
केवल बुद्धिधर्मी ही अनुभूत यथार्थ और किताबी यथार्थ के बीच की असंगति को देख पाता है। यह दृष्टि बुद्धिजीवी अथवा कोरे किताबी विद्वान के पास नहीं होती। बुद्धिजीवी के लिए रोजी-रोटी प्राथमिक है और कोरे पंडित के लिए किताबी निष्कर्ष, लेकिन बुद्धिधर्मी के लिए उसका अपना तर्कसम्मत विवेक। बुद्धिजीवी केवल अपने लिए जीता है, अर्थात उसके सारे बौद्धिक सरोकार अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने तक सीमित होते हैं। अतः वह खरीदा जाता है और किसी व्यवस्था का जाने-अनजाने पुर्जा बन जाता है। बुद्धिजीवी का जन्मना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन मरना नहीं, क्योंकि उसके जीवन का अभीष्ट सुख सफलता है, संघर्ष और सार्थकता नहीं। वह मूलतः प्रवाहपतित होता है और किसी व्यक्ति तथा स्थिति का आकलन उसकी गुणवत्ता के परिप्रेक्ष्य में नहीं, बल्कि उसकी उपयोगिता के परिप्रेक्ष्य में करता है। इसके ठीक विपरीत, बुद्धिधर्मी सत्य का अन्वेषी होता है। वह स्थापित आस्थाओं और विचारधाराओं में निहित असंगति एवं अविवेक को रेखांकित करता है और इसके लिए उपेक्षित होता है और अगर सांगठनिक चुनौती देता है तो उसे जोखिम उठाना पड़ता है। बिना बुद्धिधर्मिता के असहमति संभव नहीं, और बिना असहमति के आलोचना, विद्रोह अथवा क्रांति की परिकल्पना संभव नहीं। चूंकि वह स्थापित सत्ता की सार्थकता के प्रति शंकालु होता है, अतः व्यवस्था भी उसे संदेह के घेरे में रखती है। सामान्यतया वह पहचान पाता है, सम्मान नहीं, और जब वह सम्मान पाने लगता है तो अप्रासंगिक हो चुका होता है। बुद्धिधर्मी की वास्तिवक नियति प्रामीथियस की है जिसे मार्क्स ने ‘इतिहास का पहला शहीद मसीहा’ बताया। अपने समाज से उसका सैद्धांतिक एवं वैचारिक द्वंद्व अपरिहार्य है।
उदाहरणार्थ, हम गैलीलियो को ही लें। उनका वैज्ञानिक ज्ञान रोमन चर्च के सामान्य बोध से टकरा गया। ज्ञान पर एकाधिकार रखनेवाले चर्च ने इंद्रियाश्रित ज्ञान को ईश्वरीय विधान घोषित कर आस्था की वस्तु बना डाला था। उससे भिन्न कुछ भी कहना और सोचना ईश्वर की अवज्ञा थी और इसलिए पाप भी। लेकिन गैलीलियो के वैज्ञानिक प्रयोग और उनसे निकले निष्कर्ष कुछ और ही थे जिन्हें उन्होंने कहने और लिखने का साहस किया। परिणाम? चर्च ने उन्हें दंडित किया। बुढ़ापे में जेल की यातना झेलनी पड़ी और जेल में ही वे अंधे हो गए।
विश्व इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। युगीन सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं के विरोधी होने के चलते बुद्ध को नास्तिक कहकर निंदित किया गया और अशोक को ‘देवानांप्रिय’ अर्थात मूर्ख कहा गया। वृहस्पति जैसे मनीषी को ‘काना’ बताया गया। सनातन पुराणपंथियों ने लोकायतों को न जाने क्या-क्या कहा। उन्नीसवीं सदी में सती प्रथा को लेकर राममोहन राय का विवेक प्रचलित हिंदू बोध से टकरा गया और एक लंबे अरसे तक उन्हें कदम-कदम पर अपमान झेलना पड़ा। पश्चिम में सुकरात को जहर पिलाया गया, ईसा मसीह को सूली नसीब हुई, मुहम्मद को आजीवन संघर्ष करना पड़ा, सूफी मंसूर को पत्थरों से मार-मार कर मार डाला गया, ब्रूनो और सेंट जॉन को जिंदा जलाया गया और कार्ल मार्क्स को ठोकरें खानी पड़ीं।
आज भी बुद्धिधर्मी के परिप्रेक्ष्य में संसार बहुत नहीं बदला है। महात्मा गांधी का हिंदू विवेक भी हिंदूवादी कठमुल्लों के लिए असह्य हो गया और उनकी हत्या कर दी गई, पाब्लो नेरुदा और मोलाइस जैसों को शहीद होना पड़ा, नेल्सन मंडेला सत्ताईस वर्षों तक जेल के सींकचों में बंद रहे, बिशप टूटू को डंडे खाने पड़े और भारत में जयप्रकाश नारायण को जेल और डंडे दोनों ही झेलने पड़े जो मेरे दलीय बोध को बहुत ही कम खटका था। रसेल जैसे निस्पृह विवेक के प्रतीक को अपनी जीवन दृष्टि के लिए एक लंबे अरसे तक संघर्ष करना पड़ा। बुद्धिधर्मी विवेक के एक चरम प्रतीक कार्ल मार्क्स के नाम पर निर्मित इहलौकिक चर्च ने भी वही रास्ता अपनाया जो मध्ययुगीन आध्यात्मिक चर्च ने अपनाया था। खुमैनी और स्वामी जयेंद्र जैसों के इहलौकिक स्वर्ग में बुद्धिधर्मिता के लिए कोई जगह संभव नहीं है। आश्चर्य नहीं, जहां खलीफाओं के राज्य की दुहाई देकर जमीन को जन्नत में तब्दील करने की कोशिशें जारी हैं, उनसे डरकर कहीं सलमान रुश्दी किसी सुरक्षित अज्ञात कमरे में बंद दिन गिन रहे हैं और कहीं तसलीमा नसरीन को काफिरों की छाया से भी दूर रहना पड़ रहा है।
शुचितावादी आग्रहों पर आधारित सत्ता, चाहे वह धार्मिकों की हो अथवा राजनीतिज्ञों की, निर्विवाद रूप से एकांगी और क्रूर होगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि समाज ने बुद्धिधर्मियों को हमेशा नकारात्मक सम्मान दिया है और देता रहेगा। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने ठीक ही कहा था कि समाज प्रत्येक युग में प्रत्येक ईसा मसीह को पहले सूली पर चढ़ाता है और फिर बाद में उसकी पूजा करता है। बुद्धिजीवी इसी समाज का एक ‘सफेदपोश’ अंग है जो बुद्धिधर्मियों के आखेट का नेतृत्व करता है।
बीसवीं सदी के एक सुविख्यात विचारक अंतोनियो ग्राम्शी के अनुसार एक सीमा तक प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिधर्मी होता है, लेकिन सभी बुद्धिधर्मी की भूमिका नहीं निभाते। ग्राम्शी की दृष्टि में बुद्धिधर्मी होने का अर्थ है ‘आलोचनात्मक, सर्जनात्मक और कल्पनाशील’ होना। प्रचलित आस्थाओं और स्थापनाओं को यथावत यांत्रिक रूप से मान लेनेवाला व्यक्ति बुद्धिधर्मी कहलाने का अधिकारी नहीं होता। बुद्धिधर्मी विवेकसंगत नवीनता का आग्रही होता है। कल्पनाशीलता के अभाव में न आलोचनात्मक विवेक संभव है न सृजनशीलता ही। सृजनशीलता का धर्म ही जाने-पहचाने का अतिक्रमण करते चलना है, और आलोचनात्मक बोध हमेशा किसी वैकल्पिक आदर्श प्रतिमान द्वारा संचालित होता है। आशय यह कि बुद्धिधर्मी में, वर्तमान की जटिलताओं में भी, अनागत की संभावनाओं को खोजते रहने का आलोचनात्मक बोध और सृजनशील विवेक चाहिए। इसीलिए ग्राम्शी की एक मान्यता यह भी है कि बड़े-बड़े विद्वान, कवि और दार्शनिक भी अपने प्रत्येक क्रियाकलाप से बुद्धिधर्मी नहीं हुआ करते।
पारंपरिक समाजों में बुद्धिर्मी बनने की संभावना बड़ी क्षीण होती है। ऐसे समाजों में रूढ़ सामाजिक संस्कारों का दबाव निर्णायक होता है। बिरले ही उसके फौलादी सांचे से बाहर निकल पाते हैं। बर्ट्रेन्ड रसेल के अनुसार, छह वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते मां-बाप और पास-पड़ोस के माध्यम से बच्चे के मन पर सामाजिक संस्कारों का निर्णायक दबाव पड़ चुका होता है। अधिसंख्य पढ़े और अनपढ़ इन्हीं संस्कारों में जीते हैं और सुकून महसूस करते हैं। इनकी सोच-समझ का दायरा बचपन में ही कमोबेश निश्चित हो जाता है। सोच-समझ के स्तर पर इनसे मुक्त लोग भी अकसर संवेदना के स्तर पर इनके शिकार पाए जाते हैं। अर्थात अनजाने ही प्रत्येक व्यक्ति किसी धर्म, कबीले और जाति के विचार, आचरण तथा संवेदना के स्तर पर आबद्ध हो जाता है। अनजाने ही सबकी नफरत और प्यार के संदर्भ परिभाषित हो जाते हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक, साहित्यकार, समाजशास्त्री और दार्शनिक भी अपने ज्ञान और संस्कार को ही अलग-अलग स्वायत्त स्तरों पर जीते पाए जाते हैं। भावना और संवेदना का उनके ज्ञान से कोई स्वतःस्फूर्त रिश्ता नहीं बन पाता।
अकसर यह देखने में आता है कि बड़े-बड़े विद्वान सामाजिक चेतना और व्यवहार के स्तर पर एक अनपढ़ तथा निहायत गंवार एवं अनुभवहीन व्यक्ति से भिन्न नहीं होते। अगर हिंदू हैं तो अपने समूचे ज्ञान के बावजूद, ग्रहण लगने पर गंगा नहाने दौड़ते हैं, दुर्गापाठ से उन्हें सुकून मिलता है; आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग और नरक की फंतासी उनकी सोच पर निर्णायक प्रभाव रखती है। संवेदनशील क्षणों में उनकी प्रतिक्रियाएं नितांत जातिवादी एवं सांप्रदायिक होती हैं। प्राचीन पुस्तकों और युगों के प्रति उनकी दृष्टि उतनी ही रूमानी अर्थात अनैतिहासिक, आस्थारहित एवं अवास्तविक होती है जितनी एक सामान्य अनपढ़ व्यक्ति की। अंतर इतना जरूर होता है कि ये अपने विवेकहीन संस्कारों के समर्थन में कुछ दृष्टिहीन उद्धरण और तर्क देते हैं जो एक सामान्य अनपढ़ व्यक्ति नहीं कर पाता। यह हिंदू, मुसलमान, ईसाई और अन्य सभी धर्मपरायण लोगों पर लागू होता है।
एक प्रश्न उठता है कि क्या क्षेत्र-विशेष में विशिष्ट ज्ञान रखनेवाले लोग भी बुद्धिधर्मी होते हैं? उदाहरणार्थ वाणिज्य, कृषि, भूगोल जैसे क्षेत्रों में अनुसंधानरत लोगों को तथा इंजीनियर, डॉक्टर जैसे टेक्निकल लोगों को क्या माना जाए? नौकरशाह और प्रबंधक भी इसी श्रेणी के लोग हैं। इनकी सारी ऊर्जा क्षेत्र-विशेष के बारीक ज्ञान अथवा व्यवहार के प्रति समर्पित होती है। सामान्यतया इन्हें बुद्धिधर्मी नहीं माना जा सकता, यद्यपि अपवादों के लिए हमेशा जगह देनी होगी। ऐसा नहीं कि इनमें बुद्धिधर्मी होने की संभावना नहीं होती, लेकिन इनकी पेशेगत भूमिका इनके विकास में बाधक होती है। इसी कारण ये ‘प्रोफेशनल्स’ की श्रेणी में आते हैं। इनकी रुचि एक-आयामी हो जाती है। ये भिन्न अथवा परस्पर विरोधी दिखनेवाली स्थितियों के अंतःसंबंधों की ओर ध्यान नहीं दे पाते। ये बृहत्तर मानवीय सवालों और सरोकारों से कट जाते हैं। इसी कारण ये अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के स्तर पर अति सामान्य दिखते हैं। ये अपने संस्कारों पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाते। इसीलिए एफ.आर.लीविस का यह मानना था कि सैकड़ों विशेषज्ञ मिलकर भी एक शिक्षित मस्तिष्क नहीं बनाते। वैसे विशेषीकृत क्षेत्रों के भी अनेक लोग हैं जिन्होंने बृहत्तर सामाजिक और सांस्कृतिक संस्कारों से अपना अर्थवान संवाद कायम किया है। इनमें डार्विन, हक्सले, फ्रायडर रसेल, ह्वाइट हेड, हाल्डेन, कौशाम्बी, मेघनाथ साहा जैसे लोग हैं।
इसी प्रकार अनगिनत कवि, लेखक मिलेंगे जो शब्द, अलंकार, छंद, लय, नाद में ही निमग्न फंसे रह जाते हैं। इनका सौंदर्य-बोध मानवीय सरोकारों से नहीं जुड़ता या ऐसा जुड़ाव इनका प्रमुख लक्षण नहीं होता। प्रतिभाशाली नर्तक, संगीतज्ञ और चित्रकार भी सामान्यतया इसी श्रेणी के लोग हैं। जनेऊ, चोटी, गायत्री जाप, वजू, नमाज, कलमा, रोजा आदि के तर्कहीन दायरों से ये बाहर नहीं निकल पाते। कुर्सी, मंच और कार्यक्रम, रंग, तूलिका, कैनवास आदि इनके प्रमुख सरोकार होते हैं। अपने सामाजिक आचरण द्वारा ये अकसर रूढ़िबद्ध संस्कारों को जीवित रखने में मददगार बनते हैं। अयोध्या के मंदिर-मस्जिद और मंडल-कमंडल विवाद में मैंने हिंदी के ब़ड़े-बड़े लेखकों, कवियों आदि को अपने आदिम संस्कारों की आक्रामक भाषा बोलते-लिखते सुना-पढ़ा है। ये ठंडे विश्लेषण की ओर न जाकर पूर्वग्रहग्रस्त आक्रोश के शिकार हो गए, इसीलिए कि बचपन के संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाए थे।
अनुभवों से कटे हुए, केवल पुस्तकीय सूचनाओं को उगलनेवाले बुद्धिजीवियों की संस्कार-जड़ता भी ध्यातव्य है। डॉ. आंबेडकर कहा करते थे कि भारत में शास्त्रज्ञ तो बहुत पैदा हुए लेकिन बुद्धिकर्मी बहुत कम। शास्त्रज्ञों का मस्तिष्क गोदाम जैसा होता है जिसमें आवश्यक-अनावश्यक बहुत-कुछ ठुंसा रहता है। लेकिन मस्तिष्क कारखाने की तरह होना चाहिए क्योंकि इसकी खूबी पुरानी, अनगढ़, फेंकी हुई चीजों से नया उपयोगी माल तैयार करने में है, न कि पुरानी चीजों को यथावत सुरक्षित रखने और उनके नुमाइशी इजहार में। पारंपरिक समाजों में पांडित्य का स्वरूप गोदाम जैसा ही होता है। यह अपने विधि-निषेधों से बाहर जाकर कुछ सोचने-करने लायक न हीं होता।
डॉ. आंबेडकर ने आदर्श बुद्धिधर्मी के रूप में वाल्तेयर की चर्चा की। वे अठारहवीं सदी के फ्रांस के बुद्धिवाद के नेताओं में से थे जिन्होंने ईसाई होते हुए भी, ईसाइयत के पाखंड की निर्मल आलोचना की थी और इस प्रकार फ्रांस की क्रांति के लिए बौद्धिक आधार दिया था। इसी प्रकार, भारत के संगठित दलित जागरण के जनक डॉ. आंबेडकर ने हिंदू समाज-व्यवस्था की ‘सनातनता’ और ‘दैवीयता’ की तीखी आलोचना की और उसके राजनीतिक-सामाजिक आधार का रहस्योद्घाटन किया। स्थिति इतनी बदलती गई है कि सनातनता का आतंक गायब है, ‘सनातनी’ बुद्धिजीवी हास्यास्पद बनता गया है। भारत में प्रथम बुद्धिधर्मी गौतम बुद्ध ने इस सनातनता की ढाई हजार वर्ष पूर्व आलोचना की थी जिसे राजाश्रय ने इसकी बुद्धिधर्मिता को निस्तेज कर दिया। लेकिन इसे वैष्णव संतों तथा नानक, कबीर आदि ने बचाए रखा, जो उन्नीसवीं सदी में इहलौकिक संस्कारों से जुड़ी और बीसवीं सदी तक आते-आते राजनीतिक जागरण का कारण बनी। इसके अभाव में न तो संतों का आध्यात्मिक विवेक संभव था और न ही उन्नीसवीं सदी का सामाजिक-धार्मिक विवेक अथवा बीसवीं सदी का राजनीतिक विवेक। दादा भाई, गोखले और तिलक से लेकर गांधी, नेहरू, आंबेडकर तक अतीत जीवित तो है, लेकिन वर्तमान एवं भविष्य की चिंता इन्हें अधिक है। अतीत अब कोरी आस्था का प्रतीक नहीं बल्कि विवेचन और विश्लेषण का विषय है। यह बुद्धिधर्मिता मूलतः देशज है। बौद्धिक आदान-प्रदान के बावजूद इसकी राष्ट्रीय केंद्रीयता कायम है।
मार्क्सवादी बुद्धिधर्मिता का तेवर तो अधिक रैडिकल अवश्य रहा है, लेकिन इसकी राजनीतिक संवेदना देशज नहीं रही, अन्यथा यही वह वैचारिक आधार था जहां से वास्तविक बुद्धिधर्मी खड़े हुए होते। वैसे इसके प्रभाव में राहुल, कौशाम्बी, मानवेन्द्र और डांगे जैसे लोग पैदा हुए जिन्होंने भारतीय अतीत को निस्पृह एवं वस्तुगत ढंग से देखा-परखा और भविष्य का एक वैकल्पिक खाका भी प्रस्तुत किया। ये लोग अतीत को जानते थे, लेकिन उसके कायल नहीं थे। अतीत की गठरी नहीं ढोते थे बल्कि उसे वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से विवेचन तथा विश्लेषण का विषय मानते थे।
दरअसल, आज के जमाने में मार्क्सवाद की ठोस पीठिका के अभाव में बुद्धिधर्मी नहीं बना जा सकता। बर्तोल्त ब्रेख्त ने सही ही कहा था कि केंद्र के बाएं से ही कोई सार्थक बात कही जा सकती है। विडंबना ही है कि व्यवस्था के रूप में स्थापित होते ही सत्तासीन मार्क्सवादियों ने ‘वाम’ के उभार की संभावना को ही समाप्त करने की बात सोच ली। आश्चर्य नहीं कि मार्क्सवादी व्यवस्था ने बुद्धिधर्मी के नाम पर केवल व्यवस्था-सेवी बुद्धिजीवी और ‘आइडियोलॉग’ पैदा किया और व्यवस्था में आत्मालोचना का स्रोत सूख गया जो इसकी जड़ता और अंततः इसके विनाश का कारण बना।
संप्रति हम भारत में एक उग्र सामाजिक जागरण के दौर से गुजर रहे हैं। यह मूलतः दलित जागरण का दौर है। हजारों वर्षों से दबाया-कुचला गया यह तबका डॉ. आंबेडकर के विचारों से प्रेरित होकर जागा है और अपनी अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन लगता है कि इस जागरण ने अभी तक केवल ‘आइडियोलॉग’ ही पैदा किया है। चूंकि अभी इस जागरण का प्रारंभिक दौर है, इसलिए इसका बुद्धिजीवी मूलतः ‘अवयवी बुद्धिजीवी’ है जो अपने वर्ग के हितों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। अभी इसके पास सार्वभौम भाषा नहीं है। अभी यह उसकी पहली सामाजिक-राजनीतिक पहल है। अभी यह प्रतिक्रियात्मक और निषेधात्मक तथा किसी सीमा तक प्रतिशोधात्मक भी है, जो इसके अतीत को देखते हुए स्वाभाविक है। अभी इसके सकारात्मक और समावेशी बनने में देर है। इसके भी अपने विशिष्ट पावन प्रतीक और अनुल्लंघनीय आप्त वचन हैं। यह अभी अपने जागरण की सीमाओं के प्रति संवेदनशील नहीं है, क्योंकि अभी इसने बुद्धिधर्मी नहीं पैदा किया है। लेकिन इतना तय है कि अगर यह तबका बुद्धिधर्मी नहीं पैदा कर सका तो राजनीतिक सत्ता हथियाने और पुराने हिसाब-किताब को चुकाने के चक्कर में अनेक हितों और संवेदनाओं को आहत करेगा और अंततः निर्वासन का शिकार होगा।
सवाल राजनीतिक वर्चस्व का नहीं, बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका का है और इस भूमिका में आने के लिए बौद्धिक, सांस्कृतिक और नैतिक श्रेष्ठता अनिवार्य है, और इस श्रेष्ठता की आधारशिला बुद्धिधर्मियों द्वारा निर्मित होती है, न कि अवयवी बुद्धिजीवी अथवा व्यवस्था-सेवी ‘आइडियोलॉग’ द्वारा।
गहन विचारणीय विश्लेषण