संघ परिवार की राजनीति में सुधार असंभव है

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मधु लिमये (1 मई 1922 – 8 जनवरी 1995)

— मधु लिमये —

(यह लेख 1993 में प्रकाशित मधु लिमये की पुस्तक संघ परिवार की लचर बौद्धिकता का एक अंश है। इसे ‘समाजवादी विचारमाला’(27-ए, डीडीए फ्लैट्स, माता सुंदरी रोड, नई दिल्ली-110002) ने प्रकाशित किया था।)

श्री गोलवलकर 43 साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख रहे। उन्हीं के नेतृत्व में संघ 1948 के संकट को झेल पाया। इसने एक संविधान अपनाया जिसे लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित माना गया। सरकार को प्रतिबंध हटाने पर राजी करने के लिए इसने सांस्कृतिक मुखौटा पहन लिया। लेकिन संघ के मूल सिद्धांत नहीं बदले। वी : आवर नेशनहुड डिफाइंड संघ के आक्रामक हिन्दूवाद की गीता थी। यह पुस्तक चार संस्करणों में आई जिनमें आखिरी संस्करण 1947 में प्रकाशित हुआ। प्राक्कथन लिखने वाले एम. एस. अणे ने इसे गोलवलकर का शोधप्रबंध बताया। प्राक्कथन प्राप्त होने के बाद गोलवलकर ने भूमिका लिखी। उसमें उन्होंने यह नहीं लिखा कि यह बाबाराव सावरकर की किसी रचना का अनुवाद था।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ की गीता परेशानी का कारण बन गई। इसे पूरी तरह प्रसार (सर्कुलेशन) से वापस ले लिया गया। लेकिन अपने बाद के भाषणों में गोलवलकर उन बातों को कहते रहे जो  वी : आवर नेशनहुड डिफांइड का सारतत्त्व थीं। केवल उसकी कठोर ध्वनि को थोड़ा नरम कर दिया गया। नाजी जर्मनी द्वारा प्रचारित नस्लीय विचारों की खुली तारीफ छोड़ दी गई। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ।  ‘वी : आवर नेशनहुड डिफाइंडपुस्तक की केंद्रीय विषयवस्तु का कभी खंडन नहीं किया गया। दरअसल गोलवलकर ने अपनी अगली किताब  बंच ऑफ थॉट्स में देश के सामने उपस्थित अधिकांश मुद्दों पर उसी विचारधारा को आगे बढ़ाया।

संघ के विस्तार में गोलवलकर के स्थान (योगदान) पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। उन्हीं के नेतृत्व में संघ परिवार के रूप में फूला-फला। जनसंघ राजनीतिक मोर्चे पर संघ की पार्टी के रूप में उभरा। इसने अपनी मजदूर शाखा गठित की- भारतीय मजदूर संघ। इसने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद गठित की। आदिवासियों के बीच काम करने के लिए इसने कल्याण आश्रम बनाया। यहाँ तक कि विश्व हिन्दू परिषद का गठन भी गोलवलकर के जीवनकाल में ही हो गया था। जनता पार्टी का प्रयोग- और जनता पार्टी में जनसंघ के विलय का छल- आपातकाल और संघ पर लगे प्रतिबंध से उबरने के लिए उनकी एक रणनीति थी।

आपातकाल लगने से तीन दिन पहले नानाजी देशमुख ने हमें बताया था कि जनसंघ अपनी पहचान मिटाने पर कभी राजी नहीं होगा। वास्तव में इसने ऐसा कभी किया भी नहीं। 1977 से 1980 के बीच वह एक सुसंगत समूह के रूप में काम करता रहा। 1980 में वह अपने भूमिगत अस्तित्व से भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आ गया। श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बाद जनसंघ रा. स्व. संघ के उन कार्यकर्ताओं से नियंत्रित रहा, जिन्हें राजनीतिक कार्य का दायित्व सौंपा गया था। मौलीचंद्र शर्मा और बलराज मधोक जैसे संघ के प्रभुत्व का विरोध करने वाले अध्यक्षों को हटना पड़ा। वे अलग-थलग पड़ गए और महत्त्वहीन हो गए। बलराज मधोक की जो गति हुई, उसी को देखते हुए परिवार के वरिष्ठतम राजनेता, अटल बिहारी वाजपेयी अपने को उससे अच्छी तरह जोड़े हुए रखने को मजबूर होते हैं।

गोलवलकर केवल सांगठनिक प्रधान ही नहीं थे। वे संघ परिवारके आध्यात्मिक मार्गनिर्देशक भी थे। मैंने मध्यप्रदेश की जेलों में संघ के कार्यकर्ताओं के साथ करीब 20 महीने गुजारे हैं और मैं जानता हूँ कि  ‘परिवार के नेताओं और कार्यकर्ताओं में उनके लिए कितना आदर था। उनके लिए गोलवलकर के शब्द  “प्रकाशस्तंभ थे। वे उनके मार्गनिर्देशक, दार्शनिक और एक सच्चे गुरु थे। कुछ तो उनकीसंन्यासी जैसी जीवन शैली से इतने प्रभावित थे कि श्रद्धा के साथ मुझे बताते थे कि गुरुजी का देवी भगवती से साक्षात्कार होता था।

यह बिल्कुल सच है कि कुछ मुद्दों पर गोलवलकर के विचित्र विचार थे। कुछ लोग उन विचारों को पुराने पड़ गए विचार कहेंगे पर गोलवलकर के प्रशंसक उन्हें न सिर्फ प्रासंगिक, बल्कि अत्यंत विचारोत्तेजक भी मानते हैं। गोलवलकर रियासती व्यवस्था और जमींदारों के समर्थक थे। उन्होंने चीन की घटनाओं का जिक्र इस रूप में किया कि वहाँ कुलीन पुरुषों, बड़े जमींदारों और अंततः छोटे किसानों को हिंसक तरीकों से नष्ट कर दिया गया। अक्षम्य अतिशयोक्ति करते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि भारत भी चीन के रास्ते का अनुसरण कर रहा है। इसका कार्यक्रम चीनी कार्यक्रम की कार्बन कापी है। उन्होंने संहार (liquidated) शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि भारत ने सामूहिकीकरण और सहकारिताकरण के जरिए बड़े जमींदारों का संहार कर दिया है और छोटे किसानों को नष्ट करने जा रहा है। मजबूत कृषक स्वामित्व पर आधारित कृषि के प्रबल समर्थक और सामूहिक व सहकारिता खेती के विरोधी चौधरी चरण सिंह जैसे नेता भी भारत में भूमि सुधारों की गति से असंतुष्ट थे। उनकी राय थी कि आंध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब और इसी तरह के कई अन्य राज्यों में जमींदारी प्रथा नहीं खत्म की गई और भूमि हदबंदी कानूनों को लागू नहीं किया गया। और गोलवलकर ने इन अपर्याप्त भूमि सुधारों पर भी आपत्ति की। (एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, पेज 263)

संवैधानिक व्यवस्थाओं पर गोलवलकर के विचार बहुत उग्र थे। वे अनोखे भी थे। वे सोचते थे कि हमारी कठिनाइयों का एकमात्र हल यह है कि हम पर्याप्त साहस दिखाते हुए संविधान में उचित संशोधन कर एकात्मक प्रणाली की सरकार की घोषणा कर दें। देश एक है, लोग एक हैं, इसलिए एक ही सरकार, एक ही विधायी संस्था होनी चाहिए।…मैं लोकतंत्र और कई विधायिकाएं रखने के बीच संबंध नहीं समझ सका हूँ। पूरे देश के लिए एक विधायिका से लोकतंत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जानी चाहिए। (बंच ऑफ थॉट्स, पेज 330)

एकात्मक सरकार के पक्ष में गुरुजी के विचारों का हवाला देने पर रक्षात्मक स्थिति में पहुँच जाने वाले  ‘संघ परिवार के कुछ लोगों ने संशोधन और पुनर्विचार की बात करनी शुरू की है। लेकिन मेरी राय में यह कुछ पदाधिकारियों तक ही सीमित है। शायद संशोधनवाद की यह बात महज दिखावा ही है। संघ परिवार के कुछ शुभचिंतकों, खासकर मार्क्सवादी, स्तालिनवादी और रायवादी पृष्ठभूमियों से आए नव-दीक्षितों के लिए गोलवलकर के विचारों को निगलना कठिन महसूस होता जा रहा है। वे महसूस करते हैं कि कुछ उपरोक्त विषयों पर गुरुजी के विचार हमारी जनता और राष्ट्र के लिए महान महत्त्व के हैं, इसलिए उन्हें संशोधित करना चाहिए। इन शुभचिंतकों की दलील है कि चूंकि  ‘संघ परिवार अब शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बन गया है, इसलिए भाजपा नेताओं के लिए इन विवादास्पद विषयों पर अपने संशोधित एवं नए विचारों की व्याख्या करने का समय आ गया है।

उभरती हुई भाजपा में नव-दीक्षित हुआ यह समूह अभी हाल में रपटें प्रकाशित करता रहा है कि भाजपा में विचारधारात्मक  मंथन हो रहा है और विचारधारात्मक श्रेणी में गुरु एम.एस. गोलवलकर कास्थान फिर से तय किया जा रहा है। इस बात की चर्चा रही है कि संघ परिवार गुरुजी के विचारों के एक बड़े हिस्से को तिलांजलि देने जा रहा है। दावा किया गया कि भाजपा गुरुजी के प्रिय विचार एकात्मक संविधान को तिलांजलि दे चुकी है। संघ की पृष्ठभूमि से भाजपा में आए कुछ लोगों ने विकास और आगे बढ़ने की प्रक्रिया की बात की है। हिन्दुत्व के समर्थक बने एक पूर्व मार्क्सवादी ने कहा कि ग्लासनोस्त जैसी एक प्रक्रिया चल रही है जिसके तहत मूल सिदंधांतों की पुनर्परिभाषा की जा रही है और गुरु गोलवलकर का पुनर्मूल्यांकन भी हो रहा है। (द टाइम्स ऑफ इंडिया 19 मई 1993)

लेकिन अब तक भ्रांतिपूर्ण ये विचार महत्त्वहीन लोगों ने जाहिर किए हैं, देवरस, राजेन्द्र सिंह, ठेंगड़ी, पिंगले, शेषाद्रि, सुदर्शन आदि महत्त्वपूर्ण हस्तियों ने नहीं। इसलिए हकीकत में कोई विचारधारात्मक प्रकाश नहीं होने जा रहा है। अभी बहुत समय नहीं गुजरा है जब संघ परिवार के करीबी संतों ने धर्म के मूल्यों पर आधारित नए संविधान की जरूरत, परिवार नियोजन के मामले में बहुविवाह की बहाली, आदि के बारे में अपने विचार बेहिचक व्यक्त किए।

बहरहाल एक क्षेत्र ऐसा जरूर है, जिसमें संघ परिवार ने नया कार्य शुरू किया है और यह नहीं कहा जा सकता कि गोलवलकर ने इसकी कल्पना की थी। हालांकि विश्व हिंदू परिषद का गठन साठ के दशक के मध्य में ही, जब गोलवलकर संघ के प्रधान थे, हो गया था लेकिन अस्सी के दशक में इसका पुनरुत्थान गुणात्मक रूप से भिन्न प्रक्रिया थी। हिन्दुओं को हिन्दू के रूप में वोट डालने के लिए प्रेरित करने की अवधारणा और तीन या तीन हजार या तीस हजार मुस्लिम धार्मिक स्थलों को नष्ट करने के कार्यक्रम (यह संख्या अवसर एवं वक्ता के हिसाब से बदलती रहती है) का गोलवलकर के वी : आवर नेशनहुड डिफाइंड या बंच ऑफ थाट्स या समग्र दर्शन के पाँच खंडों में कहीं जिक्र नहीं है। यह नया प्रस्थान है।

संभवतः यह कार्यक्रम हिन्दूवाद के असहिष्णु रूप का अपरिहार्य परिणाम था। शायद यह मीनाक्षीपुरम में हुए धर्मपरिवर्तन की प्रक्रिया या गहरे राजनीतिक असंतोष का परिणाम था। मेरी समझ में यह मुख्य रूप से चुनाव प्रेरित सत्ता उन्मुख कार्यक्रम था।गोलवलकर उपभोक्तावाद और संग्रहशीलता को नापसंद करते थे। इस पर ध्यान देना चाहिए कि उन्हें राजनीति से नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति से अरुचि थी। संघ के कार्यकर्ताओं को उन्होंने सत्ता के लालच के प्रति आगाह किया था। उन्होंने उनसे सत्ता से दूर रहने को कहा था। उन्होंने प्रश्न किया था-राष्ट्रीय जीवन की अखंड दृष्टि रखने वाले हम लोगों को राजनीतिक सत्ता जैसी क्षणभंगुर चीज के पीछे क्यों भागना चाहिए?” सचमुच यह रामकृष्ण मिशन से प्रेरित वाक्य था। (बंच ऑफ थॉट्स, बंगलूर, 1980, पेज 103)

1977 में सत्ता का स्वाद चखने और सरकारी संरक्षण का लाभ उठाने के बाद न केवल जनसंघ-भाजपा नेतृत्व, बल्कि संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी भी सत्ता की राजनीति में उलझ गए और हिन्दू वोट बैंक बनाने की बात करने लगे। अयोध्या सुविधाजनक साधन के रूप में उन्हें मिल गया।

नवंबर 1989 में शिलान्यास और दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस वैसी घटनाएँ हैं जिन्हें संघ समर्थक पत्रकार हिन्दू राष्ट्र का पुनरुत्थान कहते हैं। भाजपा अब धन-सत्ता के दूषित चक्र में फँस गई है। धन की माँग कभी संतुष्ट नहीं होने वाली है क्योंकि इसके इस्तेमाल से सत्ता आती है और सत्ता से धन आता है। यही वजह है कि लखनऊ, भोपाल, बिहार, गुजरात और अन्य स्थानों पर भाजपा के आंतरिक चुनावी संघर्षों में भी गुंडों का इस्तेमाल देखने को मिला है। अब मकसद किसी भी तरह सत्ता के केंद्र पर कब्जा करना है।गुरुजी की चेतावनियों की कौन फिक्र करता है?

भाजपा चाहे जो भी श्रृंगारिक (कॉस्मेटिक) कार्यक्रम अपनाए, उसके लिए पुरानी लीक से हटना असंभव है। गुरुजी ने व्यक्तिगत जीवन में भौतिकवाद की निन्दा की थी, पर उन्होंने व्यापक आर्थिक विषमताओं तथा सामाजिक अन्याय को बढ़ाने वाली वर्ग एवं जाति प्रथाओं पर आधारित व्यवस्था की वकालत की थी। अगर भाजपा के लिए संघ से वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त करना कठिन है, तो उससे सांगठनिक स्वायत्तता हासिल करना असंभव है। संघ केवल भाजपा की कार्यसूची ही नहीं तय करता है, बल्कि उसके पदाधिकारियों का निर्णय भी करता है। जब संघ के नेता इस निष्कर्ष पर आ गए कि भाजपा अध्यक्ष के रूप में मुरली मनोहर जोशी का दूसरा कार्यकाल विनाशकारी होगा, तो उन्हें बेआबरू करके हटा दिया और उनकी जगह आडवाणी को नियुक्त कर दिया।

गुजरात अभी भाजपा के लिए एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। 1991 के लोकसभा चुनाव में वहाँ भाजपा को 51 फीसदी वोट मिले थे। विधानसभा के चुनाव जब भी हों, उनकी जीत तय है। इसके बाद भी गुजरात शाखा को, यहाँ तक कि केंद्रीय संगठन को भी ज्यादा स्वायत्तता नहीं मिली हुई है। नरेंद्र मोदी की दोबारा नियुक्ति और उससे गुजरात भाजपा में पैदा हुआ असंतोष यह जाहिर करता है कि भाजपा संगठन पर संघ का नियंत्रण कितना सख्त है। राज्य इकाइयों और निम्नतर समितियों में सत्ता संघर्ष तीखा रूप ले चुका है। लेकिन इससे संघ का नियंत्रण कहीं ढीला पड़ने का कोई संकेत नहीं है।

लोकतांत्रिक राजनीति के कुछ नुकसान होते हैं जिनसे केरल माकपा, त्रिपुरा माकपा और पश्चिम बंगाल माकपा जैसी केंद्रीकृत पार्टियाँ भी पूरी तरह नहीं बच पाई हैं। मुझे मालूम है कि जनसंख्या विस्फोट, गतिरुद्ध अर्थ-व्यवस्था, व्यापक भ्रष्टाचार और सार्वजनिक जीवन में तेजी से बढ़ रहा अपराधीकरण संघ परिवार के साथ हो जाएंगे और उसके आक्रामक हिंदुत्व से मिलकर ऐसी विस्फोटक स्थिति पैदा करेंगे जो वर्तमान राज्य व्यवस्था (पॉलिटी) को उड़ा देगी, जिसे राष्ट्र की कई पीढ़ियों ने अपने परिश्रम से स्थापित किया था।

देश और राज्य पहले ही संघ परिवार की नई राजनीति की भारी कीमत चुका चुके हैं। जब तक संघ परिवार अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा, देश और संगठित राज्य नाम का कुछ भी बचा नहीं रह सकेगा।

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