व्यंग्य और उसके पर्याय हरिशंकर परसाई

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हरिशंकर परसाई (22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995)


— बसन्त राघव —

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार राधाकृष्ण व्यंग्य को ताना साहित्य कहते हैं। सामान्य अर्थ में व्यंग्य का अर्थ ताना मारना या फिर आलोचना करना ही समझ में आता है। व्यंग्य की व्युत्पत्ति ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक अञ्ज् धातु में ण्यत् प्रत्यय लगने से हुई है। व्यंग्य प्रत्यक्ष निंदा, भर्त्सना या गालीगलौज के स्तर से इतर उदात्त संवेदनाओं से भरा होता है। व्यंग्य अर्थगत भंगिमाओं की व्यंजक अभिव्यक्ति है, जो अपने चुटीले, रोचक और हास्य-विनोद के द्वारा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक विकृतियों पर प्रहार करके जीवन को सही दिशा प्रदान करती है।

व्यंग्य को जन्म देने वाली मानसिकता को समझें तो लगता है समाज और जीवन की विसंगतियों के आत्मबोध से व्यंग्य का जन्म होता है, अर्थात व्यंग्य विसंगतियों की उपज होता है। किसी भी प्रकार की विसंगति या विकृति कष्टकारक होती है। अतः व्यंग्यकार इसी से उबरने-उबारने के लिए प्रतिशोध का सहारा लेकर व्यंग्य करता है। वह साहसी और निर्भीक होता है, क्योंकि कायर और डरपोक कभी व्यंग्य रचना कर ही नहीं सकते। हरिशंकर परसाई ने स्वयं के लिए लिखा भी है : “मैंने तय किया- परसाई, डरो किसी से मत। डरे कि मरे। सीने को ऊपर कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो। ज़िम्मेदारी को गैरज़िम्मेदारी के साथ निभाओ।”

व्यंग्य की सार्थकता पर हरिशंकर परसाई जी की मान्यता है कि “जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य रचना उतनी ही सार्थक होगी।” उनका यह भी मानना था कि व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।”

दरअसल व्यंग्य आलोच्य विषय का समीक्ष्य, बौद्धिक स्तर है। वह उन विद्रूपताओं पर इस तरह से कुठाराघात करता है कि पाठक में गहरी प्रतिक्रिया हो, जिससे वह उन सामाजिक विसंगतियों से जूझने और उनसे मुक्ति पाने के लिए विचार करे और प्रतिकार के लिए प्रेरित हो। व्यंग्य व्यक्ति और समाज का मार्गदर्शक है और व्यंग्यकार शाश्वत मूल्यों का रक्षक। समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार, ढोंग, अवसरवादिता, अन्धविश्वास, साम्प्रदायिकता आदि कुप्रवृत्तियों का वह पर्दाफाश करता है।

भारतीय साहित्य में व्यंग्य की शुरुआत कबीर की रचनाओं से होती है लेकिन उसका स्वरूप पद्य था; गद्य के रूप में व्यंग्य की शुरुआत भारतेन्दु युग में हुई। उस जमाने में ज्यादातर व्यंग्य प्रहसन और स्तोत्र शैली में ही लिखे गये। उस युग के प्रमुख व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी गणनीय थे। “अंधेर नगरी चौपट राजा” उस समय की एक कालजयी व्यंग्य नाटिका है। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में भी सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य किया गया है। उस युग में प्रेमचंद सहित अमृतलाल नागर, यशपाल और भगवतीचरण वर्मा की रचनाओं में उच्चकोटि के व्यंग्य मिलते हैं। द्विवेदी युग में भी व्यंग्यकार हुए, जिनमें महावीर प्रसाद द्विवेदी और बालमुकुंद गुप्त आदि ने व्यंग्य विधा पर सृजन किया है। वैसे तो हास्य और व्यंग्य दोनों ही भिन्न विधाएँ हैं, हास्य बहिर्मुखी है तो व्यंग्य अन्तमुर्खी। लेकिन भारतेंदु हरिश्चंद्र और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाओं में हास्य और व्यंग्य दोनों का समन्वय उत्कर्ष पर है, दोनों में हास्य और व्यंग्य के संयुक्त बिम्ब के दर्शन होते हैं। व्यंग्य के लिए भावना, कल्पना, चिंतन की अतिशयता के साथ जटिल मानिसक अवस्था जरूरी है। यही कारण है कि निराला व्यंग्य कर सके। निराला द्वारा लिखित ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘नये पत्ते’ इस युग की श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं हैं। कुछ लोगों का मानना है कि व्यंग्य कोई स्वतंत्र विधा नहीं है वह तो सहज प्रवृत्ति है, जो अभिव्यक्ति की विविध विधाओं में मसलन उपन्यास, नाटक, लेख, कविता, निबंध आदि के रूप में लिखा जाता रहा है। लेकिन कुछ विद्वान इसे विशिष्ट विधा के रूप में स्वीकृति देते हैं।

यह भी देखा गया है कि अस्सी प्रतिशत व्यंग्य निबंधात्मक हैं, और निबंध विधा में ही व्यंग्यकारों को पहचान मिली। व्यंग्य लेखन जितना निबंधों में सफल रहा है, उतना अन्य विधाओं में नहीं। निबंध में व्यंग्यकारों को आत्माभिव्यक्ति की जितनी आजादी मिलती है, अन्य विधाओं में नहीं, व्यंग्यकार स्वतंत्रतापूर्वक अनेक संंदर्भों का समायोजन कर आलोच्य विषय पर सम्यक प्रहार करता है। निबंध सृजनधर्मिता की ललित अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से देखें तो व्यंग्य साहित्य का सम्पूर्ण विकास आधुनिक युग में ही हुआ है जिसमें सर्वप्रथम हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवींद्र त्यागी, लतीफ घोंघी, बरसाने लाल चतुर्वेदी, डॉ सुर्दशन मजीठिया प्रभृति व्यंग्यकार प्रमुख हैं। श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और हरिशंकर परसाई ने गद्य के व्यंग्य को शिखर पर पहुंचाया।

दूसरी पीढ़ी में स्व. लक्ष्मीकांत वैष्णव, कृष्ण चराटे, रमेश बक्षी, गोपाल चतुर्वेदी, डॉ सूर्यबाला, डॉ रमाशंकर श्रीवास्तव, पूर्णसिंह डबास, डॉ. सरोजिनी प्रीतम, डॉ. प्रेम जनमेजय, डॉ. मधुसूदन पाटिल, डॉ. रामनारायण सिंह, बलवीर त्यागी, भवानीशंकर व्यास, हरिकृष्ण दासगुप्त, घनश्याम अग्रवाल, एवं सतीश कुमार शेखड़ी प्रमुख हैं। नई पीढ़ी के व्यंग्यकारों में सूर्यकांत नागर, डा.महेंद्रकुमार ठाकुर , गिरीश पंकज और विनोद साव, विनोदशंकर शुक्ल, डॉ.संतोष दीक्षित, महावीर अग्रवाल, शेरजंग जांगली दीपक प्रभृति का व्यंग्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा है। 21वीं सदी में डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी का नाम भी प्रमुख व्यंग्यकारों में समादृत है। वर्तमान समय में उपन्यास विधा में व्यंग्य नहीं लिखा जा रहा है। व्यंग्य नाटक लिखने वालों में डॉ. श्रवणकुमार गोस्वामी और श्याम मोहन अस्थाना हैं। शरद जोशी एवं श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में जहां गंभीरता है तो वहीं दूसरी ओर हरिशंकर परसाई के व्यंग्य में व्यापकता, और आक्रमकता की तेज धार है। लतीफ घोंघी की व्यंग्य रचनाएं कहीं गुदगुदाती हैं तो कहीं नश्तर सी चुभोती हैं।

व्यंग्य को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए हास्य और व्यंग्य का उत्तम समायोजन जरूरी है जिससे श्रेष्ठ लोकप्रिय व्यंग्य का सृजन हो सके, एवं मध्यमार्ग ग्राह्य हो। व्यंग्य को ज्यादा उग्र, आक्रामक और हिंसक नहीं होना चाहिए, व्यंग्यकार को व्यंग्य में सरसता, सोद्देश्यता, सजीवता, रुचिता की दृष्टि से भावबोध पैदा करना चाहिए। जो कि हरिशंकर परसाई के ज्यादातर लघुकाय, आत्मपरक, विश्लेषणात्मक व्यंग्य निबंधों में देखने को मिलता है। परसाई जी ने जनसाधारण से लेकर बड़े बड़े राजनेता, बुद्धिजीवी, भगवान, महात्मा, पण्डे, पुजारी, मठाधीश, साहूकार, पूँजीपति, प्रशासक, अध्यापक, डॉक्टर, वकील, थानेदार, प्रेमी-प्रेमिका, युद्धशास्त्री, अवसरवादी विविध चरित्रों को व्यंग्य के माध्यम से पाठकों के समक्ष अनावृत किया। हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य उद्देश्य प्रधान होते हैं। उनकी रचनाएं पाठकों को सोचने-विचारने को बाध्य करती हैं। परसाई जी के व्यंग्य समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार, ढोंग, अवसरवादिता, अन्धविश्वास, साम्प्रदायिकता आदि कुप्रवृत्तियों पर कुठाराघात करते हैं उनकी रचनाएं हमें अपने समय के यथार्थ से रूबरू कराती हैं। उनके व्यंग्य पाठकों को आदर्श जीवनदृष्टि से समृद्ध करते हैं।

उनकी सृजनधर्मिता कबीर की परम्परा को आगे बढ़ाती है। एक प्रकार से कहें तो कबीर की परम्परा को ही हरिशंकर परसाई ने अपनी गद्यविधा में विकसित किया है, उसे आगे बढ़ाया है। निसंदेह परसाई हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं।

उन्होंने देश के आम लोगों की आकांक्षाओं, असफलताओं एवं जीवन संघर्षों को बहुत करीब से देखा और जिया था। विद्रूप स्थितियों से उनकी नाराजगी तब अधिक उग्र और आक्रामक हो जाती है जब आदमी आदमी न होकर चालाकी और धूर्तता का पर्याय हो जाए। सामाजिक विद्रूपताओं और इनके भीतरी कारणों को हरिशंकर परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं से पाठकों को समझाने की कोशिश की है। परसाई जी का व्यंग्य समाज से उपजी विसंगतियों की गहरी पड़ताल करता है। उन्होंने ही व्यंग्य को एक स्वतत्रं विधा के रूप में स्थापित करने में अपनी कालजयी भूमिका निभाई। उनके व्यंग्य निबंधों में चिंतन की गहनता देखी जा सकती है।

परसाई का व्यंग्य हमें अपना सा इसलिए भी लगता है, क्योंकि वे स्वयं पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते। वे स्वयं में एक साधारण आदमी की जिंदगी को अनुभव करते हैं। वे व्यंग्य को इतने शिद्दत और आत्मीय ढंग से लिखते हैं कि पाठक को अपनेपन का अहसास होने लगता है।

उन्हें पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे वे सामने ही खड़े हों, सभी प्रश्नों के जवाबों से लैस। उनकी भाषा शैली में एक खास किस्म का अपनापन है। ऐसे व्यंग्यकार विरले ही मिलते हैं। उनकी भाषा शैली व्यंग्य के लिए सर्वथा अनुकूल थी। सरल शब्दों में लिखना उन्हें पसंद था। उनकी रचनाओं में मुहावरों, कहावतों के साथ-साथ बोलचाल से लेकर, तत्सम, अंग्रेजी शब्दों को भी स्थान दिया गया है। उनके व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना का कुशल प्रयोग देखते ही बनता है। उनके वाक्य लघुकाय हुआ करते हैं। संस्कृत व उर्दू शब्दों का भी उन्होंने प्रचुरता के साथ प्रयोग किया है।

हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं में सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक क्षेत्र में फैली हुई विकृतियों और कारगुजारियों पर बहुत ही सरलता और सहजता के साथ छिद्रान्वेषण और उस पर कटाक्ष किया गया है। धर्म, जातीयता, रूढ़ परम्पराओं से उन्हें चिढ़ है। देश में व्याप्त भुखमरी, अपराध, शोषण, अनाचार, अकाल, बाढ़, युवा आक्रोश, जन-आंदोलन, साम्प्रदायिक दंगों धार्मिक उन्माद जैसी घटनाओं, कलाकारों, बुद्धिजीवियों के दोहरे चरित्रों, संघी-पंथी सोच की सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से व्याख्या या विवेचना ही नहीं करते बल्कि धर्म, समाज, राजनीति में विद्यमान विसंगतियों को जन्म देने वाले कारकों की तह तक जाते हैं और उन तमाम विसंगतियों से मुक्ति के मार्ग तलाशते हैं।

दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित व्यंग्य “सुनो भाई साधो” पर सिक्खों का प्रदर्शन हुआ था। अकाली आन्दोलन की विसंगतिपूर्ण भूमिका पर टिप्पणी के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित दो युवाओं ने 21 जून 1973 के दिन उनके निवास स्थान पर उन पर आक्रमण कर दिया था। इस आक्रमण के बाद परसाई जी का 24 -25 जून को स्थानीय समाचार-पत्रों में “मेरा लिखना सार्थक हो गया” वक्तव्य प्रकाशित हुआ था। इन घटनाओं से यह मालूम होता है कि एक व्यंग्यकार के रूप में उनका लेखन कितना सार्थक और प्रभावशाली हुआ करता था। वे साहसी भी कम न थे। लिखते समय परिणामों की उन्हें चिंता नहीं रहती थी। सन् 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल के समय में उन्होंने सत्तापक्ष के विरुद्ध लिखा था। उनकी निर्भीकता और व्यंग्य की धार से प्रभावित होकर विश्वनाथ उपाध्याय ने लिखा था:-
‘मुझे हरिशंकर परसाई की लंबी पतली काया बंदूक की नली सी लगती है जिसमें से व्यंग्य भन्नाता हुआ निकलता है और जनशत्रु को छार-छार कर देता है।’

उनकी व्यंग्य रचनाओं में “पगडंडियों का जमाना” दो दर्जन से भी अधिक चुटीले व्यंग्य निबंधों का संग्रह है। संगृहीत निबंध पूर्व में ‘ज्ञानोदय’, ‘धर्मयुग’ एवं ‘नई कहानियाँ’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। “सदाचार का तावीज”, “वैष्णव की फिसलन”, “विकलांग श्रद्धा का दौर’, जिसके लिए 1982 में उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया था। “प्रेमचंद के फटे जूते”, “ऐसा भी सोचा जाता है”, “तुलसीदास चंदन घिसैं “,’हँसते हैं रोते हैं” , “हम इक उम्र से वाकिफ हैं”, “जैसे उनके दिन फिरे”, “भोलाराम का जीव”, हिंदी का श्रेष्ठ व्यंग्य कहानी संग्रह है। जिसमें सरकारी कार्यालयों और लालफीताशाही, ब्यूरोक्रेसी पर जमकर प्रहार किया गया है.उपन्यास “रानी नागफनी की कहानी”, “तट की खोज”, “ज्वाला और जल”, संस्मरण ‘तिरछी रेखाएँ”, व्यंग्य निबंध संग्रहों में “तब की बात और थी”, सदाचार की ताबीज”, “भूत के पाँव पीछे”, “बेईमानी की परत”, “अपनी अपनी बीमारी”, “माटी कहे कुम्हार से”, तिरछी निगाहें”, “काग भगोड़ा”, “आवारा भीड़ के खतरे”, ‘शिकायत मुझे भी है” , “उखड़े खंभे”, ‘बस की यात्रा”, इत्यादि प्रमुख हैं। हिंदी की सभी ख्यात पत्र-पत्रिकाओं में उनके स्तंभ काफी चर्चित रहे। जिनमें से कुछ प्रमुख स्तंभ इस प्रकार हैं- ‘नई दुनिया’ में ‘सुनो भई साधो’; ‘नई कहानियाँ’ में ‘पाँचवाँ कालम’, और ‘उलझी-उलझी’; ‘कल्पना’ में ‘और अंत में’, “माजरा क्या है” “मेरे समकालीन”। उनकी व्यंग्य रचनाएं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं में भी निरन्तर छपतीं थीं। कुछ वर्षों तक उन्होंने “वसुधा” पत्रिका का संपादन कार्य भी किया। बाद में वित्तीय संकट के कारण ‘वसुधा’ पत्रिका बंद हो गई थी।

प्रश्नात्मक शैली में लिखी गई व्यंग्य रचनाओं में हरिशंकर परसाई जी पहले तो प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। उनके प्रश्न पाठक के मस्तिष्क को भीतर से झकझोर देते हैं । प्रश्नात्मक शैली में लिखा गया “पूछिए परछाई से” देशबंधु में उनका एक कालम निकलता था, जिसमें वे पाठकों के प्रश्नों का जवाब दिया करते थे। वह कालम भी काफी लोकप्रिय हुआ था।

परसाई जी का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के जमानी ग्राम में हुआ था, और मृत्यु 10 अगस्त 1995, जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुई थी। उस समय उनकी आयु 72 वर्ष की थी। हरिशंकर परसाई जी के साहित्यिक योगदानों के लिए उन्हें रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर ने डी.लिट् की मानद उपाधि से नवाजा था। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के द्वारा सन् 1978 में उन्हें “भवभूति सम्मान” दिया गया था। सन् 1986 में उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया था एवं सन् 1984 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन द्वारा ‘‘शिखर सम्मान’’ से सम्मानित किया गया। निश्चय ही हिंदी व्यंग्य साहित्य में उनका युगांतरकारी स्थान अक्षुण्ण बना रहेगा।

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