
— ध्रुव शुक्ल —
कल संसद में प्रधानमंत्री जी का भाषण सुनते हुए लगा कि वे देश में अपने चलने-फिरने पर ही इतने अभिभूत हैं कि उन्हें अपने प्रतिपक्ष का चलना-फिरना शायद पसंद न आता हो। तभी तो उन्होंने प्रतिपक्ष की ओर व्यंग्य कसते हुए यह शेर पढ़ा –
ये कह-कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं
मैं सोचने लगा कि अब प्रतिपक्ष को वह शेर तुरन्त याद आ जाना चाहिए जो संसद में कई बार उसने ही दुहराया है। पर उसे याद ही नहीं आया –
तू इधर-उधर की न बात कर ये बता कि कारवां क्यों लुटा
मुझे रहगुजर से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है
इसके जवाब में प्रधानमंत्री कौन-सा शेर संसद को सुनाते, यह तो वही जानें। पर उनने तो शाइरी में पिछड़ गये प्रतिपक्ष पर फिर एक तंज कसते हुए कवि दुष्यंत कुमार का यह शेर भी दाग दिया —
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
अब प्रधानमंत्री जी ने प्रतिपक्ष को फिर एक मौका दिया कि वह भी कोई शेर उन पर दागे। पर प्रतिपक्ष को मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर याद ही नहीं आया –
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है
यह शेर सुनकर प्रधानमंत्री जी के मन में कौन-सा शेर जाग उठता, यह कहना तो मुश्किल है। उनके मन की बात तो वे ही जानते हैं। पर मुझे मन ही मन लगता रहा कि उनके मन में कवि दुष्यंत कुमार का शुद्ध हिंदी में रचा गया यह शेर बहुत गहरे पैठा हुआ है और जिसे वे सुनाये बिना ही मन ही मन गुनगुना रहे हैं —
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
प्रधानमंत्री जी संसद में यह तो कह रहे थे कि लोकतंत्र में आलोचना बहुत जरूरी है। पर हमें लग रहा था कि वे उसे सुन नहीं रहे हैं और हम अकेले संसद टीवी के स्क्रीन के सामने जनता की तरफ से यह सोचने लगे कि अगर जनता अपनी चुनी हुई सरकार और टूटे-बिखरे प्रतिपक्ष को कोई शेर सुनाना चाहे तो उसे इस समय कौन-सा शेर याद आ रहा होगा? वो शायद यह प्रसिद्ध शेर ही होना चाहिए –
हमको उनसे है वफ़ा की उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
खुदा खैर करे। पर कल संसद में सरकार और प्रतिपक्ष की हालत देखकर मुझे तो मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर याद आता रहा –
कहूं जो हाल, तो कहते हैं मुद्दआ कहिए
तुम्हीं कहो, जो तुम यों कहो, तो क्या कहिए
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