अनुराधा ओस की सात कविताएँ

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पेंटिंग- कौशलेश पांडेय


1. एकांत स्वीकर है

अपनी अलिखित कहानियों को
ढूॅंढ़ना
एकांत में

गहरी मिट्टी में दबाने के बाद भी
कहीं न कहीं
बची रहती हैं
किसी फ़ांस सी

हाँ! चाहना जरूर
कुछ पल एकांत के
उसी तरह जैसे पलाश
की पंखुड़ियां
इंतजार करती हैं
बसन्त का

एकांत बहुत बड़ा दोस्त होता है
कभी -कभी
कोलाहल से टक्कर लेने के लिए।

2. हैंडपंप के पासवाली पटिया पर
एड़ियां घिसती औरत

वह मुगलसराय से मुँह ॲंधेरे आने वाली ट्रेन के आने से पहले
साबुन की बट्टी फटाफट घिसती है
अपनी झवांई देह पर
और जल्दी से नहाकर निबट लेना चाहती है इस क्रिया से

मानो उसे नौ बजे की ट्रेन पकड़कर
ऑफिस जाना हो
और एसी में बैठकर
लेनी हो कोल्ड कॉफी की चुस्की

फटाफट निबटकर भीगी देह पर
पेटिकोट-साड़ी डालकर जल्दी से वहाँ से हटना चाहती है

इसके लिए वह मुँहॲंधेरे ही उठ जाती है
किसी की धॅंसने वाली
पथरीली निगाहों से वह बच सके
एक दिन और

एक-एक दिन खुद को बचाकर
अपने सपने को बचाती है
ताकि जल्दी से पहुंच सके
मैडम के अस्त व्यस्त घर को संवार दे
गोल फूली रोटियां सेंक दे

इससे पहले उसे
कंडे पर मोटी मोटी रोटियां बनाकर रखनी होंगी
मुन्ने को पास के सरकारी स्कूल में
पहुंचाना होता है

पुरानी कील लगी चप्पलें घसीटती हुई औरत की देह
बाथटब का नहीं
रोटी के सपने देखती है।

3. अनुपस्थित की उपस्थिति

अनुपस्थिति की पीड़ा उपस्थित ही समझेगा
क्या अभी वहाँ मेरे होने का कुछ बाकी है
क्या तुम्हें महसूस होती है मेरी उपस्थिति?
जब मैं वहाँ नहीं हूँ
अनुपस्थिति की पीड़ा उपस्थित ही समझे शायद
जबकि शायद ही वहाँ कुछ निशान बचा हो
शायद कुछ छिंटाया हो वहाँ मेरा
दर्द कसकता है किसी कोने में देह के
तुम्हारे अदृश्य कंधों पर सिर रखकर
अक्सर आँखों से धार गिरने तलक रो लेती हूँ
कभी साक्षात मिल गए तो
पहचान भी न सकूंगी तुम्हें
लेकिन तुम्हारी उपस्थिति की उजास
ॲंधेरे कोने में जलते दिए की मानिंद रहती है मेरे साथ
कभी कभी तुम्हारी अनुपस्थिति
उपस्थिति लगती है मुझे।

4. छाया के सर्जक

तुम उस छाया के सर्जक हो
जो पहले इतनी सुंदर न थी।

धूप पहले भी आती थी
ओस पहले भी गिरती थी
पाँव पहले भी नदी में भीगते थे
मगर!!
तुम्हारे आने से पहले
इतनी सुंदर न थी।

तुम उतरती साँझ की आँच की
लालिमा की तांबई छुवन को
छू भर लेते हो तो
लोहित हो जाते हैं अधर
तुम उस छाया के सर्जक हो।

हजारों चन्द्र तमाम नक्षत्रों का तेज हो
जेठ की तपती लू में
नदियों से मांग लाते हो नमी
मेरी आँखों के लिए
तुम उस छाया के सर्जक हो।

तुम्हारी छाया उपजाऊ बना देती है
जो पहले बंजर सी थी
मरुथल थी जो
देखो!! तो
जो पहले इतनी सुंदर न थी
तुम उस छाया के सर्जक हो।

पेंटिंग – सरोज मिश्रा

5. जंगल पास आ गया मेरे

अभी-अभी तुमसे बात करके
पता चला कि
जंगल कितना पास आ गया मेरे
कितनी सुगन्धित हो गयी जंगली फूलों की गंध

अभी-अभी मुझे पता चला मेरे हाथ जो रीते थे
अमूल्य वस्तुओं से भर गए
उनमें तुम्हारा प्रेम जो है

अभी-अभी पानी का रंग और चमकीला लगने लगा
और पेड़ से गिरे ज़र्द पत्तों में भी दिखने लगी चमक

जिन सड़कों पर यूँ ही सफर कर रही थी
वो महज़ सड़कें ही नहीं थीं

अभी-अभी मुझे पता चला कि जिसके वज़ूद को लोग नकार देते थे
उसका भी होना बहुत कुछ है पृथ्वी पर

और अभी-अभी मुझे लगा कि तुम जो
इतने दूर हो
दूर नहीं मेरे अंदर ही हो।

6. हमने तय किया था

हमने तय किया था कि
हम कभी नहीं मिलेंगे

जर्द पत्तों और फूलों में
ढूंढेंगे तुमको
कहीं एकांत में बैठकर
सोचेंगे अपनी बातें

जूतों की चरमराहट से
जब जब ध्यान टूटेगा
उस ध्यानाकर्षण में भी
ढूंढ़ेंगे तुमको

मिलना बहुत जरूरी नहीं
हाँ! कभी संजोग से
मिल भी जाना तो
चेहरे के आकर्षण में मत खोना
खोना किसी प्यारी सी बात में

बेशक खो जाना किसी छोटी चिड़िया को देखते हुए
मैं चुपचाप देखूँगी
उस चिड़िया की आँख में तुम्हारा अक्स

बसन्त को विदा करते हुए पेड़ों के गीत
साथ साथ सुनेंगे
चन्द्रमा की किरणों और झरते ओस
में नहाएंगे
लाल टपकते फूलों को आँचल में बीन लूँगी, तुम उनको खोंस देना
मेरे जूड़े में।

7. क्योंकि मैं रिस्क लेती हूँ

क्योंकि मैं औरत हूँ
इसलिए रिस्क लेती हूँ
जीने का

मुझे इग्नोर करनी होती हैं
बहुत सी बातें

जो हानिकारक मानी जाती हैं सभ्य लोगों के लिए
मेरे माथे पर चुनरी उढ़ा दी जाती जब
तब मुझे लगता है वजन बढ़ गया है मेरे सिर पर
चुनरी नहीं भारी टोकरी होती है
इज्जत की
क्योंकि मैं औरत हूँ
इसलिए रिस्क लेती हूँ

कहीं धुंधलके में गुजरते समय
ध्यान रखना होगा कि
रास्ता सुनसान तो नहीं

सब्जी में नमक की मात्रा कहीं कम बेसी
ध्यान कहाँ है तुम्हारा आजकल??
इसलिए मुझे अपने ध्यान को और ध्यानस्थ करना पड़ता है।

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