निर्माण मजदूरों की सुध कौन लेगा

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— सुभाष भटनागर —

ई दिवस 2021 के अवसर पर भारत के निर्माण मजदूरों के आंदोलन का इतिहास समझना और भारत के मजदूर आंदोलन में निर्माण मजदूर आंदोलन के योगदान को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।

भारत में श्रम कानून इंग्लैंड के श्रम कानूनों की नकल के आधार पर ही बनते रहे थे। भारत में काम की परिस्थिति के अनुकूल श्रम कानून नहीं बनाए जाते थे। इसलिए भारत के लगभग सभी श्रम कानून संगठित क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुकूल बनाए गए थे जिसमें भारत के कामगारों का 5 फीसदी से कम हिस्सा काम करता था। इसलिए भारत के श्रम कानूनों से भारत में काम कर रहे 95 फीसदी श्रमिकों को कभी कोई सामाजिक सुरक्षा या श्रम कल्याण का लाभ नहीं मिला।

भारत के श्रम आन्दोलन का और भारत की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का ध्यान कभी इस विषमता की ओर गया ही नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि भारत में असंगठित क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुकूल कोई श्रम कानून थे ही नहीं। भारत का गोदी मजदूरों का 1948 का कानून और महाराष्ट्र का 1969 का मथाडी कानून भारत के असंगठित क्षेत्र के काम की परिस्थिति के अनुकूल कानून थे परंतु उन्हें इस समझ के आधार पर नहीं बनाया गया था। इसलिए भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन ने कभी भी भारत के 95 फीसदी असंगठित के मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा और श्रम कल्याण के लिए इन दो कानूनों के अंतर्गत गठित त्रिपक्षीय बोर्ड के इस्तेमाल की बात नहीं सोची।

2-3 नवंबर 1985 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री वी आर कृष्ण अय्यर की अध्यक्षता में गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में आयोजित निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय कार्यशाला में पहली बार यह विचार किया गया कि भारत के श्रम कानूनों का लाभ भारत के निर्माण मजदूरों को क्यों नहीं मिल रहा? इसी कार्यशाला में यह भी विचार किया गया कि संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र में ऐसे क्या अंतर हैं जिनकी वजह से संगठित क्षेत्र के लिए बनाए गए कानून असंगठित क्षेत्र में नहीं लागू हो सकते।

सबसे पहले हमें संगठित और असंगठित क्षेत्र के इस अंतर को अवश्य समझना चाहिए। क्योंकि इस अंतर को समझे बिना हम यह नहीं समझ सकते कि असंगठित क्षेत्र के लिए सही कानून कैसा होना चाहिए और कैसा कानून असंगठित क्षेत्र के लिए पूरी तरह गलत है।

पहला अन्तर, संगठित क्षेत्र में मालिक और मजदूर का संबंध लंबे समय तक चलता है जबकि असंगठित क्षेत्र में मालिक और मजदूर का संबंध अल्पकालीन होता है और बार-बार टूटता और जुड़ता रहता है। जैसे रिक्शा, ऑटो-टैक्सी चालक का सवारी से मालिक मजदूर का संबंध एक जगह से दूसरी जगह जाने में लगने वाले समय तक सीमित है। जैसे निर्माण मजदूर एक घर में पेंट, पुताई या मरम्मत कुछ एक दिन में खत्म कर देता है। जबकि कपड़ा उद्योग या स्टील उद्योग में मजदूर जवानी से बुढ़ापे तक काम करता है। दूसरा अन्तर, संगठित क्षेत्र में मैनेजमेंट की एक स्थायी टीम होती है, भले ही इस टीम में काम करनेवाले व्यक्ति बदलते रहें परंतु असंगठित क्षेत्र में मैनेजमेंट की कोई स्थायी टीम नहीं होती है।

अधिकांश श्रम कानूनों में जैसे ईएसआई और प्रोविडेंट फंड के कानून में मैनेजमेंट की यह स्थायी टीम मालिक और मजदूर का शेयर ईएसआई और पीएफ विभाग में जमा करवाती है और सामाजिक सुरक्षा के अन्य कानूनों का लागू करती है। संगठित क्षेत्र के श्रम कानूनों को असंगठित क्षेत्र में लागू करने के लिए मैनेजमेंट की कोई टीम नहीं होती। जैसे कि घर में काम करनेवाली घरेलू कामगार को बुढ़ापे में पेंशन देने के लिए घरेलू कामगारों के एम्प्लायर के पास कोई मैनेजमेंट की टीम नहीं होती। इसलिए संगठित क्षेत्र के लिए बनाए गए कानून जो स्थायी मैनेजमेंट पर निर्भर होते हैं उन्हें असंगठित क्षेत्र में जैसा का तैसा लागू नहीं किया जा सकता।

असंगठित क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा के कानून को लागू करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है मैनेजमेंट की स्थायी टीम का विकल्प बनाना। निर्माण मजदूरों के अभियान की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है गोदी मजदूर कानून 1948 और महाराष्ट्र में मथाडी मजदूर कानून 1969 से त्रिपक्षीय बोर्ड के स्वरूप को अपनाकर मैनेजमेंट की अस्थायी टीम के अभाव को त्रिपक्षीय बोर्ड के सुझाव से पूरा करना। जब तक हम इस त्रिपक्षीय बोर्ड के काम को नहीं समझेंगे तब तक हम निर्माण मजदूरों के, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के किसी भी कानून को ठीक से लागू नहीं करवा पाएंगे।

निर्माण मजदूरों के 1996 के कानून को लागू करने में भारत में इसी समझ की कमी रह गई। 10 साल बाद अर्थात 2006 तक यह कानून केवल 6 प्रांतों में लागू किया गया था। केरल, दिल्ली,, मध्यप्रदेश, गुजरात और हरियाणा। इसलिए निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति को 2006 में सर्वोच्च न्यायालय में इस भाग के साथ एक जन याचिका दायर करनी पड़ी कि सर्वोच्च न्यायालय केंद्र व सभी राज्य सरकारों को निर्माण मजदूरों के 1996 के कानूनों को सभी प्रदेशों में पूरी तरह लागू करने का आदेश दे।

सर्वोच्च न्यायालय की निरंतर मानिटरिंग के बाद भी अंतिम तीन राज्यों में नियम अधिसूचित करवाने में, बोर्ड बनवाने, निर्माण मजदूरों का हिताधिकारियों की तरह पंजीकरण शुरू करवाने और हितलाभ का वितरण शुरू करवाने में छह साल से ज्यादा का समय लग गया।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरंतर मानिटरिंग के कारण 19 मार्च 2018 तक जब सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग 12 साल की मॉनिटरिंग के बाद निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति की याचिका सीडब्ल्यूपी 318/2006 पर अपना फैसला दिया था तब तक अनुमानित 7.4 करोड़ निर्माण मजदूरों में से 2.8 करोड़ अर्थात् 37 फीसदी का हिताधिकारी की तरह पंजीकरण हो चुका था, 37.488 करोड़ रुपए का सेस इकट्ठा हो चुका था, 9492 करोड़ रुपए का अर्थात 25 फीसदी प्रशासनिक और कल्याण खर्च हो चुका था। परंतु केंद्र सरकार और अधिकांश राज्य सरकारों ने इतनी विशाल श्रम कल्याण योजना के प्रशासन के लिए एक भी पूर्णकालीन स्टाफ की नियुक्ति नहीं की। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने 18 जनवरी 2010 को ही समुचित पूर्णकालीन स्टाफ की नियुक्ति का आदेश दे दिया था।

भारत में (ईएसआई) कर्मचारी राज्य बीमा निगम के लगभग चार करोड़ हिताधिकारियों की देखभाल के लिए 10,000 से अधिक प्रशासनिक कर्मचारी और 12000 से अधिक मेडिकल कर्मचारी हैं। इतने ही प्रोविडेंट फंड की देखभाल के लिए भी दस हजार कर्मचारी हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए गठित कमेटीे द्वारा बनाया गया एक एक्शन प्लान और एक माॅडल वेलफेयर स्कीम केन्द्रीय श्रम सचिव द्वारा 30 अक्टूबर 2018 को सभी राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रमुख सचिवों को भेजी गयी। इससे पहले कि कोई राज्य उपरोक्त एक्शन प्लान पर कोई कार्रवाई कर पाता केन्द्रीय श्रम मंन्त्रालय के एक और अधिकारी ने सोशल सिक्योरिटी कोड 2018 का ड्राफ्ट सर्कुलेट करते हुए सभी राज्यों को सूचित किया कि नई चार लेबर कोड के अन्तर्गत केन्द्र सरकार 1996 के निर्माण मजदूरों के दोनों कानूनों को निरस्त करने जा रही है।

भारत की बारह में से दस केन्द्रीय ट्रेड यूनियन ने एकसाथ इन चारों लेबर कोड का विरोध करने की नीति अपनायी क्योंकि इन चारों कोड का यह अर्थ भी है कि पिछले एक सौ सालों में बने 44 श्रम कानूनों को निरस्त कर दिया जाये और उनमें से छोटी मोटी व्यवस्थाएं इन चारों लेबर कोड में रख ली जाएं।

निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति ने इन चारों कोड का विरोध करते हुए,1996 के निर्माण मजदूरों के कानूनों को बनाये रखने की मांग करते हुए यह भी सुनिश्चित कि ओ. एस. एच. व वर्किग कन्डीशन कोड और सोशल सिक्योरिटी कोड में निर्माण मजदूरों के 1996 के कानून के कम से कम उन सब प्रावधानों को रखा जाये जिनसे सभी राज्यों में निर्माण मजदूरों के बोर्ड बने रहें, निर्माण मजदूर कल्याण कोष सुरक्षित रहे और देश के दस करोड़ निर्माण मजदूरों को सेस जैसे सामूहिक संसाधनों से सामाजिक सुरक्षा मिलती रह सके।

भारतीय मजदूर संघ और नेशनल फ्रन्ट आफ इन्डियन ट्रेड यूनियन ने निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति का इस दिशा में भरपूर सहयोग किया।

आगामी वर्षों में निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति की योजना है कि 2019-2020 में बनाये गए चारों लेबर कोड में से जिन सभी कानूनों को निरस्त किया गया है उससे प्रभावित क्षेत्र में काम कर रही सभी ट्रेड यूनियनों और अन्य संगठनों को एकजुट किया जाए और असंगठित क्षेत्र के उन सभी घटकों को भी एकजुट किया जाए जिन्हें चार कोड में शामिल नहीं किया गया है। असंगठित क्षेत्र के इन सब घटकों के लिए एक पांचवीं कोड की मांग की जाय जो असंगठित क्षेत्र के इन सभी घटकों के काम की परिस्थिति के अनुकूल हो। प्रस्तावित श्रम कानून सामूहिक साधनों से त्रिपक्षीय मजदूर बोर्ड के माॅडल द्वारा सार्वजनिक सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करें।

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