— डॉ. ओ. पी. टाक —
श्रीमद् राजचंद्र आचार्य कोटि के संत हैं, जिनकी भाव-संगति जीवन विवेक प्रदान करती है और आत्मकल्याण की प्रेरणा जगाती है। भारत की सनातन परम्परा में संत वह है जो आत्मा या ब्रह्म के परमभाव में स्थिति प्राप्त कर ले और अपनी अहेतुकी करुणा द्वारा जगत कल्याण का कार्य करे। परमभाव में स्थिति पाना किसी एक जन्म की उपलब्धि नहीं होती है, बल्कि इसके पीछे अनेक जन्मों के संस्कार एवं साधना रहती है। श्रीमद् राजचंद्र संसार में रहे लेकिन संसारी नहीं बने और प्रतिक्षण अपने उच्चतर लक्ष्य के प्रति सजग-सचेत रहे। उन्होंने एक तरह से आत्म साधना के बल पर विराट को छू लिया लेकिन किसी कारणवश उसे पाने से वंचित रह गये। इसका कारण बताते हुए उन्होंने प्रतीक रूप में स्वयं कहा कि ‘यात्रा के मार्ग में सहारा का मरुस्थल बीच में आ गया।’
गांधीजी जैसे सत्धर्मी महापुरुष ने भी माना कि हम भले ही मोक्ष से दूर जा रहे हैं लेकिन श्रीमद् वायुवेग से मोक्ष की ओर बढ़ रहे हैं, हमें अभी कई योनियों में भटकना पड़ेगा लेकिन श्रीमद् के लिए कदाचित् एक जन्म ही काफी होगा। निश्चय ही आज श्रीमद् जिस लोक में होंगे वहां वे परम भाव में स्थित होंगे या अपूर्व पद पर आसीन होंगे।
श्रीमद् राजचंद्र की संसार यात्रा आधुनिक युग की अनोखी घटना है। उनका देवचरित ही नहीं मानवचरित भी अद्भुत है। सौभाग्यशाली थे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और अनेक सामान्यजन जिन्होंने श्रीमद् को कर्म और चरित के स्तर पर निरन्तर ऊपर उठते हुए और महान बनते हुए देखा। ऐसे लोकोत्तर महापुरुष शताब्दियों की अवधि में एकाध बार ही इस धरती पर आते हैं और अपने विचाराचार से अनेक पीढ़ियों का कल्याण कर जाते हैं। श्रीमद् की लोकयात्रा मनुष्य जाति के मंगल के लिए थी, लोककल्याण के लिए थी। वस्तुतः वह कलुष से उपर उठकर निर्मल-निश्छल बनने का आह्वान था और आत्मकल्याण के लिए पुरुषार्थी बनने का निमंत्रण था। श्रीमद् ने किसी मोह बंधन में पड़े बिना बहुत सरलता एवं सहजतापूर्वक अपना जीवन जिया। वे अत्यन्त सादगी से रहते थे और बहुत धीमे कदमों से चलते थे। उनका शांत-प्रशांत चेहरा और सदा प्रसन्न रहने वाला मन उनकी अंतरात्मा की आभा को प्रकट करता था। उन्होंने समस्त संकीर्णताओं से ऊपर उठकर राग-रहित, आसक्ति-रहित और अंहकार-रहित मनःस्थिति को प्राप्त कर लिया था।
उन्होंने अपने में इतनी उदारता विकसित कर ली थी कि सारा विश्व ही उन्हें अपना घर प्रतीत होता था। श्रीमद् ने महामूल्यवान संतोष धन पाकर संसार धन को धूल समान बना दिया था। यह जानना कितना दिलचस्प है कि ऐसी पुण्यात्मा ने जीविकोपार्जन के लिए हीरे-जवाहरात का व्यापार किया और इस व्यापार में किसी को धोखा देना तो दूर किसी का धोखा खाया भी नहीं। व्यवसायी के रूप में वे धर्मकुशल भी रहे और व्यवहारकुशल भी। वे अपनी दुकान पर बैठकर लाखों का व्यापार भी कर लेते थे और आत्मकल्याण की साधना भी। दो नावों पर एकसाथ सवार होकर भी श्रीमद् ने इस भवसागर को बिना किसी बाधा के पार भी कर लिया और साधना द्वारा दिव्य सोपान को भी छू लिया। निश्चय ही इस उपलब्धि के पीछे उनकी विशुद्ध ज्ञान-निधि ही थी। इस ज्ञान-राशि का प्रताप ही था कि उनके आसपास न झूठ टिक पाता था और न पाखंड। उन्होंने अपनी ज्ञानधर्मिता से देह-चोला पहन भी लिया और उस पर कोई दाग भी नहीं लगने दिया। संत कबीर के शब्दों में कहें तो श्रीमद् ‘ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया‘ के मूर्तिमान स्वरूप थे।
श्रीमद् राजचंद्र भारत की महान संत परम्परा के उज्जवल नक्षत्र हैं। किसी भी कोण से इस नक्षत्र के दर्शन करो, उसकी चमक आप पर पड़े बिना नहीं रहेगी। वस्तुतः श्रीमद् एक ऐसा विशाल सागर हैं जिसमें जितना गहरे उतरते हैं, हमें बेशकीमती मोती हाथ लगते हैं। आज जब विश्व के अनेक देशों में धार्मिक संकीर्णता तेजी से पांव पसार रही है और साम्प्रदायिक और कट्टरवादी सोच हर तरफ हावी होती दीख रही है, तब श्रीमद् राजचंद्र का धर्म-दृष्टिकोण और धर्म-चिन्तन हमें सम्यक राह दिखा सकता है।
श्रीमद् कहते हैं कि धर्म का अर्थ मत-मतांतर नहीं है, शास्त्र पढ़ना भी नहीं है, शास्त्र की बातों को मानना भी नहीं है। धर्म तो आत्मा का गुण है जो मनुष्य मात्र में विद्यमान है। धर्म से ही कर्तव्यबोध, दूसरे जीवों से सम्बन्ध बोध और आत्म-पहचान मिलती हैं।
यद्यपि श्रीमद् को जैन धर्म प्रिय था, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सम्यक जीवन जीने और मोक्ष पाने के लिए किसी धर्मविशेष का अनुसरण आवश्यक है। उनकी दृष्टि में धर्म से ज्यादा महत्त्व रखता है मनुष्य का विचाराचार। धर्म तो बाड़े की तरह हैं जिसमें मनुष्य कैद है, इसलिए हमें अपने भाल पर किसी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नहीं है। श्रीमद् की सीख है कि धार्मिक मनुष्य का धर्म उसके प्रत्येक कार्य में झलकना चाहिए। धर्म का पालन एकादशी, पर्युषण, ईद या रविवार को ही करें, ऐसा कोई नियम नहीं है। धर्म मात्र परमार्थ के लिए नहीं है, वह व्यापार एवं व्यवहार के लिए भी है। ऐसी एक भी वस्तु नहीं, एक भी व्यवहार नहीं जिसे हम धर्म से दूर रख सकें। श्रीमद् कहते हैं कि सत्कर्म और करुणा ही संसार का सबसे बड़ा धर्म है। उनकी दृष्टि में एक भी जीव को दुख देना और उसे अपना दुश्मन मानना पाप है। अहिंसाव्रती को भी सबसे पहले अपने क्रोध का शमन करना चाहिए और आत्मा की मलिनता को दूर करना चाहिए।
श्रीमद् राजचंद्र की पावन वाणी संसार की ज्वाला में जलते मनुष्य के लिए स्नेह लेप का कार्य करती है। वह हमारे दिमाग के जाले साफ करती है और भ्रम-भटकाव से बचाती है और हमें सच्चा और अच्छा धार्मिक मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करती है। यही हमारे जीवन में महात्मा की महिमा है और उनकी भूमिका भी।
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