— विमल कुमार —
आज से करीब सौ साल पहले 1922 में जब पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का कहानी संग्रह ‘चाकलेट’ छपा था तो उसमें एक कहानी समलैंगिक संबंधों पर आधारित थी। इस कहानी को लेकर हिंदी साहित्य में तब बहुत विवाद खड़ा हुआ था। प्रख्यात हिंदीसेवी और संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी ने उग्र की इस कहानी के खिलाफ घासलेटी साहित्य का आंदोलन चलाया था जो करीब 2 साल तक चला था। उन्होंने ‘चाकलेट’ को अश्लील करार देते हुए उग्र के लेखन की शिकायत महात्मा गांधी से की थी और जब महात्मा गांधी ने चाकलेट को पढ़ा था तो उन्होंने चतुर्वेदी जी को पत्र लिखकर कहा था कि उसमें कोई अश्लीलता नहीं. लेकिन यह बात तब चतुर्वेदी जी ने हिंदी जगत को नहीं बताई थी। करीब साठ के दशक में बनारसीदास जी ने इस बात का रहस्योदघाटन किया था कि गांधीजी ने ‘चाकलेट’ को अश्लील नहीं माना था. लेकिन घासलेटी साहित्य के खिलाफ आंदोलन का हिंदी साहित्य पर ऐसा गहरा असर पड़ा कि हिंदी का कोई लेखक यौनिकता पर लिखने से कतराता रहा और उग्र एक बदनाम लेखक के रूप में जाने गए तथा उग्र के कथा साहित्य का मूल्यांकन नहीं हुआ क्योंकि उनकी छवि बहुत ही खराब हो गई थी या कर दी गई थी। तब उग्र ने एक पत्र अपने मित्र और ‘मतवाला’ के सहयोगी शिवपूजन सहाय को लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था- चॉकलेट को लेकर जो विवाद हुआ उसमें केवल तुमने ही मेरा खुलकर साथ दिया। इस पत्र से पता चलता है कि उस विवाद में बहुत कम लेखक उग्र के साथ थे।
जाहिर है उस वक्त समाज में नैतिकता और यौनिकता को लेकर एक द्वंद्व चल रहा था और समाज इस तरह के सम्बन्धों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं करना चाहता था और साहित्य का विषय नहीं बनाना चाहता था। ऐसे में कोई एक महिला लेखक यौनिकता के सवालों को लेकर कोई रचना करे, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी लेकिन उग्र के ‘चाकलेट’ के 26 साल बाद बिहार की आशा सहाय ने ‘एकाकिनी’ नामक एक उपन्यास लिखा जो लेस्बियन (lesbian) संबंधों पर आधारित था। 75 साल के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध आलोचक एवं सीनियर प्रोफेसर डॉ सुधा सिंह ने इस उपन्यास को दोबारा प्रकाशित कराया है क्योंकि उसके बारे में चर्चा या विमर्श की बात तो दूर, हिंदी साहित्य जगत को इस उपन्यास की जानकारी नहीं थी जबकि 1948 में जब यह उपन्यास आया था तो उसकी भूमिका शिवपूजन सहाय ने लिखी थी और उन्हें बिहार की पहली विदुषी महिला बताया था तथा उनके इस उपन्यास की विषयवस्तु की तारीफ भी की थी। यह अलग सवाल है कि सहाय जी ने इस उपन्यास को समलैंगिकता के स्त्री विमर्श की सैद्धान्तिकी के रूप में नहीं देखा था।
इसका एक कारण सम्भवतः यह भी रहा हो कि हिंदी साहित्य में तब स्त्री विमर्श की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी और राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्री अस्मिता का एजेंडा निरूपित नहीं था इसलिए लोगों ने इस उपन्यास पर ध्यान नहीं दिया। यद्यपि महात्मा गांधी ने अपने असहयोग आंदोलन में बड़ी संख्या में स्त्रियों का सहयोग लिया था और स्त्री मुक्ति को भी गांधी जी देश की आजादी के साथ जोड़ कर देखने लगे थे। हाल ही में प्रसिद्ध पत्रकार अरविंद मोहन की पुस्तक गांधी और उनसे जुड़ी 75 महिलाओं से पता चलता है कि उस असहयोग आंदोलन में 25000 स्त्रियां जेल गई थीं। दुनिया के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियां जेल गयी थीं यानी स्त्रियों ने राष्ट्रीय आंदोलन में आजादीकी मांग को लेकर समाज में एक जागरूकता फैलाई थी लेकिन तब यौनिकता का मसला उनके एजेंडे पर नहीं था। प्रेमचन्द युग के लेखकों के भी एजेंडे में नहीं।
1913 में छपी राजा राधिकारण प्रसाद ने अपनी कहानी ‘कानों में कंगना’ में एक सामंती पुरुष की कामवासना और गणिकाओं के साथ सम्बन्धों को विषय बनाया था; दरअसल तब भारतीय समाज में नैतिकता का एक ऐसा दबाव काम कर रहा था कि महात्मा गांधी ने अपनी सेक्सुअलिटी के संबंध में अपने प्रयोग का जिक्र अपनी आत्मकथा में किया पर अपनी आत्मकथा में तमाम ईमानदारी और पारदर्शिता के बावजूद सरला देवी चौधरानी के साथ अपने प्रेम संबंधों के बारे में लिख नहीं पाए। उन्होंने बाद में इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी नहीं किया।अलबत्ता अपने कुछ पत्रों में उन्होंने अपनी इस भावना का इजहार जरूर किया। हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका अलका सरावगी ने पिछले दिनों गांधी और सरला देवी के प्रेम संबंधों के बारे में दोनों के आत्मिक रिश्तों का वर्णन करके यह बताने की कोशिश की है कि इतिहास में तब एक स्त्री के प्रेम संबंधों को छुपाने की कोशिश की गई और आज भी उन दोनों के संबंधों के बारे में लोगों को विशेष जानकारी नहीं है। यहां तक कि गांधीजी ने जो पत्र सरला देवी को लिखे थे उसको बाद में गांधीजी की बहू ने जलाकर नष्ट कर दिया था। इन घटनाओं से पता चलता है कि भारतीय समाज में स्त्रियों के बारे में, स्त्री पुरुष सम्बन्धों के बारे में किस तरह की सोच काम कर रही थी।
ऐसे में आशा सहाय स्त्री की यौन जरूरतों के बारे में कुछ लिखती हैं और यौनिकता के बारे में भारतीय समाज के पाखंड को उजागर करते हुए लिखती हैं तो यह कोई मामूली घटना नहीं है; लेकिन दुर्भाग्य से हिंदी जगत में इस उपन्यास की न तो कोई चर्चा हुई और न ही इसका जिक्र किया गया, इसलिए पाठ्यक्रमों में इसे शामिल करने का सवाल ही नहीं उठता। अगर इससे हिंदी साहित्य, समाजशास्त्र या मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया होता तो शायद बाद की हिंदी पीढ़ी इस उपन्यास के बारे में जानती लेकिन हिंदी साहित्य के इतिहास में कोई जिक्र होना तो दूर, अकादमिक जगत की चर्चाओं में भी शायद ही कभी इस उपन्यास पर बात हुई हो।
ऐसे में सुधा जी ने इस उपन्यास को प्रकाशित कर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने हिंदी साहित्य पर बड़ा उपकार किया है। कल शनिवार को ‘स्त्री दर्पण’ और ‘राजेन्द्र प्रसाद एकेडमी’ की ओर से इस उपन्यास पर एक परिचर्चा आयोजित की गई जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय की अवकाश प्राप्त अंग्रेजी प्रोफेसर शर्मिष्ठा पांजा, इतिहास के प्रोफेसर डॉ निर्मल कुमार और प्रसिद्ध नारीवादी कार्यकर्ता और डीयू में प्रोफेसर रहीं इंदु अग्निहोत्री, कवयित्री एवं आलोचक सविता सिंह तथा प्रसिद्ध आलोचक डॉ सुधा सिंह और सुप्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस चर्चा में हिस्सा लिया। जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस उपन्यास की एक लंबी और महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखी है और उन्होंने लेस्बियन उपन्यास की परिभाषा भी बताई है। कार्यक्रम में उन्होंने कहा भी कि हिंदी के बड़े लेखकों और लेखिकाओं से जब हिंदी की 5 लेखिकाओं के बारे में पूछा गया तो वे महादेवी और सुभद्राकुमारी चौहान से आगे किसी को नहीं बता सके। उन्हें भी न तो इस उपन्यास की जानकारी थी और न ही उस जमाने में हुए स्त्री लेखन की जानकारी थी। इससे पता चलता है कि हिंदी समाज किस तरह से स्त्रियों के अवदान की, उनकी आवाजों की अनदेखी करता रहा है या उसे तवज्जो नहीं देता रहा है। शायद यही कारण रहा हो कि रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में स्त्रियों के पर्याप्त योगदान की चर्चा नहीं की है जबकि अब नए शोधों से पता चल रहा है कि भारतेंदु काल से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी काल तक स्त्रियों द्वारा करीब 150 किताबें लिखी गयी थीं और 1900 से लेकर 1920 तक तो 80 कवयित्रियाँ थीं। लेकिन क्या उन पर शोधकार्य हुए, चर्चा हुई? नहीं हुई। सच तो यह है कि उनका कोई नामोल्लेख तक नहीं हुआ। आज स्त्री विमर्श के दौर में इस उपन्यास पर चर्चा आयोजित किया जाना सुखद है।
आज हम लेस्बियन सम्बन्धों पर चर्चा तो करने लगे हैं लेकिन हमें यह जानने की जरूरत है कि लेस्बियानिज्म केवल दो स्त्रियों के दैहिक सम्बन्धों तक सीमित नहीं है।वक्ताओं ने यह भी कहा कि इस उपन्यास में कई पाठ की संभावना छिपी है। इस उपन्यास के करीब 30 साल बाद जब मृदुला गर्ग ने ‘चितकोबरा’ लिखा तो उन्हें जेल जाना पड़ा। जैनेंद्र ने उस जमाने मे ‘सुनीता’ लिखा तो उनकी इस कृति की प्रतियां लोगों ने जलाईं। यशपाल ने जब ‘फूलों का कुर्ता’ लिखा तो रामविलास शर्मा ने उसकी आलोचना की।यानी सेक्स को लेकर एक कठमुल्लापन अभी भी समाज मे काम कर रहा है। कृष्णा सोबती ने ‘मित्रो मरजानी’ के माध्यम से स्त्री की यौनिकता पर बात की। शरद सिंह ने ‘लिव इन रिलेशन’ पर उपन्यास जरूर लिखा लेकिन हिंदी की मुख्यधारा में उनके उपन्यास का बहुत स्वागत नहीं हुआ। कुछ युवा लेखिकाएं सामने आ रही हैं जो कविता कहानी में यौनिकता को विषय बना रही हैं पर आलोचक नाक-भौं अभी भी सिकोड़ते हैं। इसलिए आशा सहाय के उपन्यास के बहाने स्त्री यौनिकता पर बात करने का समय आ गया है और इस बहस को आगे बढ़ाने की जरूरत है।